राजीव सचान। कांग्रेस महासचिव और मध्य प्रदेश के प्रभारी जितेंद्र सिंह की इस घोषणा से कांग्रेस नेताओं से अधिक इस राज्य के भाजपा नेताओं ने राहत की सांस ली होगी कि कमल नाथ कहीं नहीं जा रहे। फिलहाल वह तो भाजपा में नहीं आ रहे, लेकिन महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चह्वाण भाजपा में आ चुके हैं। भाजपा में आते ही पार्टी ने उन्हें राज्यसभा का प्रत्याशी बना दिया।

भाजपा उन्हें आदर्श सोसायटी घोटाले में लिप्त बताती रही है। इसी घोटाले के चलते उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। इस घोटाले के सिलसिले में उनके खिलाफ दो मामले दर्ज हैं। एक सीबीआइ की ओर से और दूसरा ईडी की ओर से। इसके अलावा उनके खिलाफ एक मामला यवतमाल जिले में जमीन हड़पने का है।

चूंकि ये तीनों मामले किसी नतीजे पर नहीं पहुंचे हैं इसलिए उन्हें दोषी तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसकी अनदेखी भी नहीं कर सकते कि हाल में वित्त मंत्री ने संप्रग शासनकाल की आर्थिक स्थिति को लेकर जो श्वेतपत्र पेश किया, उसमें जिन अनेक घोटालों की सूची दी गई, उनमें आदर्श सोसायटी घोटाला भी है।

लगता है श्वेतपत्र तैयार होने तक अशोक चह्वाण का भाजपा में आना तय नहीं हुआ था। जो भी हो, नवंबर 2019 का वह घटनाक्रम लोग भूले नहीं होंगे, जब अचानक यह खबर आई थी कि देवेंद्र फडणवीस ने मुख्यमंत्री पद और एनसीपी नेता अजीत पवार ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। दोनों नेता तीन दिन ही अपने पदों पर रह सके, क्योंकि चाचा शरद पवार ने भतीजे अजीत पवार को भाजपा के साथ जाने से रोक लिया। भाजपा को फजीहत का सामना करना पड़ा-इसलिए और भी, क्योंकि वह अजीत पवार पर आरोप लगाती थी कि वह घोटालों में लिप्त हैं।

भाजपा नेता किरीट सोमैया तो अजीत पवार के घोटालों की एक पूरी सूची गिनाते थे। तीन दिन की इस सरकार के पतन के बाद महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की सरकार बनी। उसमें अजीत पवार एनसीपी की ओर से उपमुख्यमंत्री बने। फिर यह सरकार भी गिरी और शिवसेना से अलग हुए एकनाथ शिंदे की सरकार बनी, जिसमें देवेंद्र फडणवीस उपमुख्यमंत्री बने। इसके बाद पिछले साल जुलाई में अजीत पवार खुद को असली एनसीपी बताते हुए भाजपा के समर्थन वाली एकनाथ शिंदे सरकार का हिस्सा बन गए। उन्होंने फिर उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली।

दोष सिद्ध न होने तक हर व्यक्ति निर्दोष है, लेकिन एक समय भाजपा ऐसे नेताओं से दूरी बनाकर चलती थी, जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप होते थे या जो बाहुबली माने जाते थे। तब भाजपा चाल, चरित्र और चेहरे की बात करती थी। इसी कारण जनवरी 2004 में जब बाहुबली छवि वाले डीपी यादव भाजपा में शामिल हो गए तो पार्टी के अंदर और बाहर विरोध हुआ। विरोध इतना बढ़ा कि चार दिन बाद ही भाजपा को डीपी यादव को विदा करना पड़ा।

इसके बाद जनवरी 2012 में बसपा से निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा भाजपा में शामिल हुए। उन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे। वह राष्ट्रीय ग्रामीण स्वाथ्य मिशन घोटाले के साथ-साथ सीएमओ हत्याकांड में भी अभियुक्त थे। उनके भी भाजपा में शामिल होने का विरोध हुआ। विरोध इतना था कि चार दिन बाद ही भाजपा की ओर से यह चिट्ठी जारी हुई कि बाबू सिंह कुशवाहा जब तक बेदाग साबित नहीं होते, तब तक उनकी सदस्यता स्थगित रहेगी। इसका मतलब था कि भाजपा में उनके लिए जगह नहीं रही।

समय के साथ राजनीति बदली और राजनीतिक दलों की चाल-ढाल भी। इसी क्रम में भाजपा ने साध्य के साथ साधनों की पवित्रता की परवाह करना कम किया। बीते कुछ वर्षों में अनेक ऐसे नेता भाजपा में शामिल हुए, जिन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप थे या फिर जो बाहुबली या दागी छवि वाले थे। ऐसे कई नेताओं ने भाजपा की किरकिरी भी कराई, जैसे शारदा घोटाले में आरोपित और बाजे-गाजे संग तृणमूल कांग्रेस से आए मुकुल राय। ऐसे नेताओं के भाजपा में आने के कारण ही विरोधी दलों के नेता उसे वाशिंग मशीन कहने लगे हैं। भाजपा में दूसरे दलों के नेताओं के प्रवेश का सिलसिला इसीलिए कायम है, क्योंकि इस समय उसका सारा जोर येन-केन-प्रकारेण विस्तार पर है। इसीलिए चाल, चरित्र और चेहरे की बात नहीं होती।

भाजपा संग दूसरे राजनीतिक दल और यहां तक कि वे भी कम नहीं हैं, जो अपनी विशेष विचारधारा का बखान करते हैं। एक तो उद्धव ठाकरे की शिवसेना ही है, जिसने सत्ता के लोभ में धुर विरोधी कांग्रेस और एनसीपी की गोद में बैठना पसंद किया। चूंकि कुछ दलों की तो विचारधारा का ही अता-पता नहीं है, इसलिए वे किसी भी पाले में जाने और किसी के भी साथ खड़े होने के लिए उतावले रहते हैं। कांग्रेस की विचारधारा क्या है, यह शायद आज के कांग्रेस नेता भी न बता पाएं।

नई तरह की राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी भी पूरी तरह विचारधारा से हीन हो चुकी है। इस दल को अब किसी से भी गुरेज नहीं-उनसे भी नहीं, जिन्हें वह एक समय भ्रष्ट, बेईमान, चोर आदि बताती थी। भ्रष्टाचार के विरोध से निकली यह पार्टी आज भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी है। ऐसे छोटे दलों की तो गिनती करना बहुत कठिन हो गया है, जो किसी का भी साथ लेने-देने का मौका हर वक्त तलाशते रहते हैं। जनता दल-यू बड़ा दल है, लेकिन उसका कोई भरोसा नहीं कि वह कब किसके साथ चला जाए। चूंकि आम चुनाव निकट आ रहे हैं, इसलिए राजनीतिक दलों की ओर से साध्य के साथ साधनों की शुचिता की और अधिक अनदेखी के लिए तैयार रहें।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)