[ गोपालकृष्ण गांधी ] जब मैं छोटा था यानी आज से कुछ साठ-पैंसठ साल पहले तब त्योहारों से लगाव था। यूं कहिए कि त्योहारों से मोहब्बत थी। दीवाली, होली। हिंदू होते हुए भी, क्रिसमस एवं ईद भी हमारे लिए खुशियों के त्योहार होते। क्रिसमस में केक मिलता, ईद में सेवइयां। आज बुढ़ापे में त्योहारों के मतलब में कुछ फर्क आ गया है। कुछ क्यों, बहुत फर्क। दीवाली आती है तो पटाखों से उत्पन्न प्रदूषण का ख्याल आता है। और फिर जोखिम...दीवाली में, पटाखों से जले लोगों की संख्या कम नहीं। बीमार लोगों, वृद्धजनों और नन्हे शिशुओं को पटाखों के फटने से, उस शोर से जो तकलीफ होती है, वह बीमार, बूढ़े और शिशु ही बतला सकते हैं। और राम लीला! क्या मजा आता था रावण, कुंभकर्ण और इंद्रजीत को जलते, झुलसते, राख होते देखकर। साल-दर-साल क्या मजा! पहला तीर उनके हाथों पर...वाह! दूसरा तीर उनके कंधो पर...वाह, वाह! तीसरा तीर उनकी छातियों पर...वाह, वाह, वाह! और चौथा उनके सिर पर...अरे वाह! जय हो! फिर कई सालों के बाद, एक दिन, जब मैं बच्चा नहीं था, मेरी खुद की दो बच्चियां थी, एक श्रीलंकाई मित्र ने मुझे अंग्रेजी में कुछ कहा, जिसका हिंदी में तर्जुमा कुछ यूं है-‘गोपाल, मैं एक बुद्धिस्ट हूं। रावण यूं मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता, लेकिन एक बार जब मेरा राम लीला के दिनों में दिल्ली जाना हुआ तो मैंने देखा कि कुछ लोग उल्लास के उद्घोष, जयघोष के बीच एक विशालकाय आकृति, जिसे वे लंका का राजा कह रहे थे, को आग्नेय मिसाइल दाग पंक्चर करते हुए उसका अंग-प्रत्यंग जला रहे थे और कुछ ही देर में वह आकृति राख में तब्दील हो गई। यह देख मेरे भीतर भी कुछ जल गया और तब मैंने तय किया कि यदि मेरा कभी कोई पुत्र हुआ तो मैं उसका नाम रखूंगा-रावण।’

इन सब बातों ने दीवाली, नवरात्रि का वह पुराना मतलब, वह आनंद छीन लिया है। बच्चा जब था मैं, इन बातों का ज्ञान न था। चित्राजगजीत के अल्फाज में, ‘तब न दुनिया का गम था, न रिश्तों के बंधन...।’ अब है, और अफसोस! हर त्योहार में अब जब सोचता हूं, कुछ बातें पाता हूं, जिनसे दिल दुखी हो जाता है। होली के रंगों में कीचड़ की प्रबलता, मां काली के नाम बकरियों की बलि, ईद में जानवरों की कुर्बानी...। तब, बचपन में बारिश के पानी और कागज की कश्तियों के दिनों में एक और त्योहार, एक नए त्योहार ने जन्म लिया था-चुनाव। 1952 का चुनाव मुझे याद है। सात बरस का था मैं। क्या बात थी उस चुनाव में! क्या मजा! क्या उमंग! जवाहरलालजी का चुनाव था वह। गुलाबी चुनाव। मैं बच्चा जो था, उसूलों की कोई समझ ना थी, नीतियों का ज्ञान ना था। घोषणा पत्रों की पहचान न थी, फिर भी, उस बचपने की अपनी एक फिजा थी, एक सिफत, जो समझ रही थी कि देश करके कुछ होता है, देश के नेता होते हैं। वे बहुत अच्छे लोग भी हैं, सच्चे लोग हैं। वे बापूजी के साथ रहे हैं, बापूजी का सहारा रहे हैं।

जब मेरे माता-पिता चुनाव में वोट डालकर घर लौटे, तब उनके चेहरों पर एक खुशी थी, कामयाबी की खुशी, जैसे किसी तीर्थ से लौटे हों, मथुरा से या काशी से, गंगा-स्नान के बाद। मैंने उनकी अंगुलियों पर चुनावी स्याही देखी। एक शांतमय गर्व था उनमें उस स्याही के निशान पर। मानिए जैसे कि माथे पर लगे हुए तिलक पर। पहला चुनाव था वह। पहली लोकसभा के लिए। पहला चुनावी त्योहार था वह, लोकसभा के निर्माण के लिए। जैसा कि मैंने कहा है, तब मैं सात साल का था। आज जब हम लोग सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के बीच हैं, तब मैं 74 साल का हूं। मेरी दोनों बच्चियों ने मुझे नाना बनाया हुआ है। मैं बूढ़ा हो गया हूं। और वह खुशी नहीं हो रही है इस चुनावी त्योहार पर, जो तब हुई थी और हमेशा होनी चाहिए। अफसोस! जब इस बार मैं और मेरी पत्नी वोट डालकर घर लौटे तो मेरी छह साल की पोती उछलते-कूदते मेरे पास आई। उसको कुछ अंदाज था। इलेक्शन हो रहे हैं। वोटा डाला जाता है। बटन दबाया जाता है। हम कहते हैं-‘दिस पर्सन इज ए गुड पर्सन...और बटन दबाते हैं उसके लिए। फिर स्याही लगती है उंगली पर, वगैरह-वगैरह!’

‘शो मी, शो मी द इंक मार्क बोली वह। (आजकल बच्चे अंग्रेजी में ही बोलते हैं...!) स्याही रेखा पर उसने अपनी नन्ही अंगुली दबाई। फिर मुझे देखते हुए-‘डिड इट हर्ट? न, न...बच्ची...। ‘व्हेन विल द मार्क गो?’ मैंने कहा कि बहुत दिन लगेंगे। ‘टिल आय बिकम बिग?’नहीं, उतने दिन नहीं। बस कई दिन। ‘ओह!’फिर आया सवाल...सवालों का सवाल! ‘...यु हैव वोटेड...राइट?’ ‘यस!’ ‘हु डिड यु वोट फॉर?’ मैंने नाम दिया प्रत्याशी का। कुछ सोचा नन्हीं ने, कुछ पल सोचा। फिर उसने जो कहा, मैं उस बात को कभी नहीं भूल सकता हूं। मेरे लिए उसमें गीता है, बाइबल है, धम्मपद, महावीर भगवान का मौन, कुरान-ए-पाक है। ‘...बट...।’ ‘बट व्हाट, बच्ची? ‘बट, यु शुड हैव वोटेड फॉर बापूजी।’ मेरा दिल थम गया, आंखें नम हो गईं। मैंने नन्हीं को गले लगाकर, बहती आंखो से नीरव आशीर्वाद दिया। उसको मालूम है कि बापूजी अब नहीं हैं। मालूम है उसको कि ‘डेथ’करके कुछ बात है। उसने कई बार पूछा है मुझे ‘हाउ डिड बापूजी डाय?’ मैंने जवाब दिया है, गंभीरता से, उसके मन में किसी भी प्रकार के क्रोध या वेदना को जगह न देते हुए। कहा कि बापूजी अब नहीं हैं, लेकिन अपने तरीके से... हैं भी...रुपयों की तस्वीर में नहीं, सड़क के कूड़े की बड़ी-बड़ी बाल्टियों पर चित्रित एनक में नहीं, लेकिन महादेवी वर्मा के शब्दों में, लोगों के दिल के सदन में...। इसलिए उसके मन में बापूजी एक सत्य हैं, एक यथार्थ। फिर मैंने कहा उसको कि बापूजी को तो वोट न दे सका मैं, लेकिन बापूजी को ध्यान में रखते हुए, उनकी याद में इस चुनाव-यज्ञ में मैंने मताहुति दी।

यह चुनाव भी त्योहार है। उसकी बहुत सी खूबियां हैं, उपलब्धियां हैं। लेकिन कितनी विषमताएं भी दिखती हैं उसमें! कितनी गालियां सुनने को मिलती हैं, कितना गलौज! जो अपशब्द बाप और पुरखों से भी लिपटे हुए, जात से, मजहब से, अदालत और इलेक्शन कमीशन की जहन में लाए गए हैं, भयावह हैं, लेकिन जो सड़कों, गलियों, मुहल्लों, कूचों में कहे गए हैं वे इतने बदतर हैं कि वहां से बाहर नहीं आए, उनका वर्णन तो छोड़िए, उनका स्मरण भी करना गलत है। कितनी हिंसा हुई है, कितनी हिंसा सोची गई है। कितनों को डराया-धमकाया है दबंगों, मुस्टंडों ने। त्योहार में क्या ऐसा होता है? और पैसा? कितना पैसा बहा है इस त्योहार में? कितना धन घूमा है-सफेद, भूरा, काला!‘डिड इट हर्ट?’ जो सवाल मुझे पूछा नन्ही ने, उस सवाल का जवाब था ‘न, न...’, लेकिन दरअसल जवाब होना चाहिए था-‘हां कुछ हद तक..लेकिन उस सबको समझने में अभी और देर है।

(वर्तमान में अध्यापनरत लेखक पूर्व राजनयिक एवं पूर्व राज्यपाल है)

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