[ बैजयंत जय पांडा ]: बीते कुछ सप्ताह से नागरिकता संशोधन कानून को लेकर राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर भावनात्मक प्रतिक्रियाओं का दौर जारी है। देश यह देख रहा है कि राजनीतिक दल, एक्टिविस्ट, छात्र और आम लोग नागरिकता संशोधन कानून के समर्थन अथवा विरोध में सड़कों पर उतर रहे हैैं। संसद के दोनों सदनों से पारित कानून को लेकर इस तरह की गतिविधियों की जरूरत नहीं पड़ती, अगर इस मसले पर तार्किक ढंग से बहस की जाती। जो लोग इस कानून के विरोध में हैैं वे इस कानून को लाने के सरकार के उद्देश्य को समझने के लिए तैयार नहीं दिखते और इसीलिए इस मसले पर सार्थक बहस की जरूरत है।

नागरिकता कानून के अधिकतर विरोधी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि नागरिकता कानून के अधिकतर विरोधी पूर्वाग्रह से भरे दिखते हैैं। ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में गए बगैर कुछ लोग सवाल उछाल रहे हैैं कि आखिर इसमें मुसलमानों को शामिल क्यों नहीं किया गया? इसका साधारण जवाब यही है कि नागरिकता संशोधन कानून के रूप में की गई मानवीय पहल पड़ोसी देशों के प्रताड़ित अल्पसंख्यकों को राहत देने के लिए की गई है। ये वे पड़ोसी देश हैैं जहां इस्लाम राजकीय धर्म है और जहां की आबादी का ढांचा भारत जैसा नहीं है। यह ठीक उसी तरह की पहल है जिसका समर्थन अतीत में मनमोहन सिंह और अन्य अनेक नेताओं ने किया, पर राजनीतिक कारणों से अब वे पीछे हट रहे हैैं।

मोदी सरकार के कार्यकाल में ही इन देशों के 600 मुसलमानों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई

यह महत्वपूर्ण है कि नागरिकता कानून के विरोधी इस तरह का कानून बनाए जाने के कारणों को समझें। उन्हें यह भी समझना होगा कि इस कानून के दायरे में पड़ोसी देशों के मुसलमानों को शामिल करना क्यों उचित नहीं होता? जिन तीन देशों के अल्पसंख्यकों को इस कानून के दायरे में रखा गया है वे न केवल मुस्लिम बहुल हैैं, बल्कि उन्हें संवैधानिक महत्ता भी हासिल है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि नागरिकता संशोधन कानून में ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन देशों के मुसलमानों को भारत की नागरिकता हासिल करने में आड़े आता हो। मोदी सरकार के कार्यकाल में ही इन देशों के करीब छह सौ मुसलमानों को भारत की नागरिकता प्रदान की गई है और वे भारतीय बन चुके हैैं।

नागरिकता कानून के विरोधी इस कानून को पक्षपातपूर्ण मानते हैं

भले ही नागरिकता कानून के विरोधी यह मानते हों कि यह कानून पक्षपातपूर्ण है, लेकिन सच्चाई यही है कि किसी देश के ऐसे अल्पसंख्यकों को चिन्हितकर उन्हें राहत देना कोई असामान्य या अस्वाभाविक बात नहीं है जो अपने देश में उत्पीड़न का शिकार हों। बतौर उदाहरण 2000 के दशक में जब इराक में सैकड़ों ईसाई प्रताड़ित होकर वहां से भागे तो ओबामा प्रशासन ने उन्हें ऐसे समूह के रूप में माना जो नरसंहार का शिकार हो सकता है और जिसका उत्पीड़न उसकी उपासना पद्धति के कारण हो रहा है। अमेरिका ने इनमें से अधिकांश को अपने यहां शरण दी। कुछ इसी तरह का मामला बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अल्पसंख्यकों का है। ये वे देश हैैं जहां एक उपासना पद्धति को अन्य उपासना पद्धतियों के मुकाबले श्रेष्ठता प्राप्त है।

इन तीन देशों में अल्पसंख्यक समुदाय गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैैं

इस बहस में पड़ने का कोई मतलब नहीं कि आखिर कैसे माना जाए कि किसी का नरसंहार हो रहा है या फिर यह कैसे तय होगा कि कोई समुदाय अपनी धार्मिक आस्था के कारण उत्पीड़न का शिकार हो रहा है? उत्पीड़न चाहे धार्मिक आस्था के कारण हो रहा हो या फिर भाषा के कारण, कोई भी उन रपटों से मुंह नहीं मोड़ सकता जो यह बताती हैैं कि इन तीन देशों में अल्पसंख्यक समुदाय गंभीर खतरे का सामना कर रहे हैैं। वे जबरन धर्मांतरण के बाद जबरिया विवाह के भी शिकार हैैं और अपहरण, हत्या सरीखे संगीन आपराधिक गतिविधियों का भी।

इन देशों के अल्पसंख्यकों की तेजी से घटती आबादी उनकी दारूण स्थिति को बयां करती है

इन देशों के अल्पसंख्यक हर स्तर पर बहुसंख्यकों की प्रताड़ना से इस हद तक दो-चार हैैं कि उनकी आबादी घटती जा रही है। उनकी तेजी से घटती आबादी उनकी दारूण स्थिति को बयान करने के लिए पर्याप्त है।

अविभाजित भारत के अल्पसंख्यकों को उत्पीड़न से बचाकर राहत देना नैतिक जिम्मेदारी बनती

चूंकि ये सभी अल्पसंख्यक अविभाजित भारत का हिस्सा हैैं इसलिए नैतिक स्तर पर भारत की जिम्मेदारी बनती थी कि वह उन्हें भीषण उत्पीड़न से बचाकर राहत दे। इसके लिए उसी रास्ते पर चला गया जो गांधी, नेहरू, पटेल और अन्य महान नेताओं ने सुझाया था। इन नेताओं ने इन अल्पसंख्यकों को शरण देने की बात कही थी।

अतीत में भारत ने यूगांडा के शरणार्थियों की मदद की और पूर्वी पाक से भागकर आए लोगों की भी

विरोधी कुछ भी कहें, नागरिकता संशोधन कानून उन वैश्विक मापदंडों के अनुकूल है जो यह रेखांकित करते हैैं कि धार्मिक उत्पीड़न के शिकार शरणार्थी स्वाभाविक तौर पर उन लोगों के मुकाबले कहीं अधिक प्राथमिकता पाने के हकदार हैं जो आर्थिक कारणों से किसी देश आते हैैं। राजनीतिक और आर्थिक कारणों से होने वाले भेदभाव की अनदेखी नहीं की जा सकती, लेकिन धार्मिक आधार पर होने वाले उत्पीड़न पर अधिक ध्यान देना ही होगा, क्योंकि यह सबसे खराब किस्म का उत्पीड़न होता है। इसी कारण अतीत में भारत ने यूगांडा के शरणार्थियों की मदद की और साथ ही पूर्वी पाकिस्तान से भागकर आए लोगों की भी।

शरारती तत्वों ने हिंसक विरोध प्रदर्शन करने वालों को उकसाया

यह राहतकारी है कि हिंसा से भरे विरोध प्रदर्शन थम गए हैैं, लेकिन यह देखना पीड़ाजनक रहा कि कई जगह कुछ प्रदर्शनकारियों ने आगजनी और तोड़फोड़ का सहारा लिया। कुछ जगह तो पुलिस पर हमले भी किए गए। पुलिस की ओर से तमाम सतर्कता बरते जाने के बाद भी कई लोग हताहत हुए। यह नहीं कहा जा सकता कि सभी विरोध प्रदर्शन हिंसक थे, पर हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि कई जगहों पर अराजकता ऐसे हिंसक तत्वों की ओर से की गई जिन्हें यही नहीं पता था कि वे किसलिए प्रदर्शन कर रहे हैैं और मसला क्या है? यह मानने के पर्याप्त कारण हैैं कि शरारती तत्वों ने उन्हें उकसाया। सुप्रीम कोर्ट ने इस हिंसा पर तत्काल हस्तक्षेप करने से इन्कार करके सही किया। पुलिस की कार्रवाई पर भी उसने यही कहा कि पहले हिंसा रुकनी चाहिए।

सीएए के विरोधियों ने अपने दायरे को बढ़ाकर एनपीआर को भी लपेट लिया

किसी मसले पर न्यायसंगत बहस के लिए यह आवश्यक होता है कि दूसरा पक्ष भी तार्किक रवैया अपनाए, न कि अपनी ही रट लगाए रहे। विपक्षी राजनीतिक दलों को इस पर आत्मचिंतन करना चाहिए कि आखिर इस मसले पर खुद उनका रवैया क्या होता? अब जब नागरिकता कानून के समर्थन में भी प्रदर्शन हो रहे हैैं तब यह देखने को मिल रहा है कि उसके विरोधियों ने अपने विरोध के दायरे को बढ़ाते हुए राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर को भी लपेट लिया है। चूंकि विपक्ष के विरोध का आधार सरकार के इरादों को संदिग्ध समझने पर आधारित है इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार लोगों तक अपनी बात पहुंचाए। यह अच्छा है कि यह काम शुरू हो गया है।

( लेखक पूर्व सांसद एवं भाजपा के उपाध्यक्ष हैैं )