बिहार, आलोक मिश्र। जब अनलॉक शुरू हुआ तो लगने लगा था कि जिंदगी पटरी पर लौटने लगेगी। लेकिन पटरी पर आते-आते ऐसी आपाधापी मची कि एक-एक कर राज्य के चौदह जिलों में लॉक फिर से डाउन करने पड़े। यह संख्या और बढ़ने की उम्मीद है। हालात देख चुनाव को लेकर भी चर्चा होने लगी है कि समय पर हो पाएंगे या नहीं? सत्ता पक्ष समय पर चाहता है और विपक्ष इस माहौल को अनुकूल नहीं मान रहा। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं और उसी के सहारे एक-दूसरे पर वे हमलावर हैं। बीच में फंसी है जनता, जो बयानबाजी और कोरोना की बढ़त पर निगाहें टिका, दोनों को तौल रही है। चुनाव आयोग इन सबसे इतर अपनी तैयारी में जुटा है। उसका दावा है कि वह पूरी तरह से तैयार है चुनाव कराने को। अब निर्भर कोरोना पर है कि वह होने देगा या नहीं।

जैसे-जैसे चुनाव नजदीक आ रहा है, कोरोना भी उतनी तेजी से पांव पसार रहा है। अनलॉक में इसे पनपने का बेहतर मौका मिला। बारह हजार से ज्यादा के इस आंकड़े का एक चौथाई ही था लॉकडाउन में। बाकी बढ़ोतरी लोगों के बाहर निकलने से हुई। अगली सरकार का चयन नवंबर में हो जाना है, इसलिए अब समय भी ज्यादा नहीं है, जबकि हालात बदतर ही होते जा रहे हैं। इसलिए चुनाव के समय को लेकर चर्चाएं आम हो चली हैं। सत्ता पक्ष यानी जदयू, भाजपा व लोजपा नहीं चाहती है कि यह टले, जबकि राजद का टालने पर जोर है। उसका कहना है कि लोगों की जिंदगी पहले है सत्ता बाद में। वहीं जदयू व भाजपा यह कहकर हमलावर हैं कि राजद की जमीन खिसक गई है, इसलिए चुनाव से डर रहा है। राजद के अनुसार जदयू राष्ट्रपति शासन नहीं चाहता, इसलिए चुनाव-चुनाव चिल्ला रहा है। राजद के अलावा हम के जीतनराम मांझी, पप्पू यादव, कांग्रेस सभी चुनाव न कराने के पक्ष में हैं। इसे टालने के लिए हाईकोर्ट में एक याचिका भी दायर की गई है। पक्ष-विपक्ष की इन दलीलों से एक तरह से कोरोना भी अब मुद्दा बनता जा रहा है।

ऐसा नहीं है कि बढ़ती संख्या से सत्ता पक्ष चिंतित नहीं है या विपक्ष ही जनता का हिमायती है। इसके पीछे भी चुनावी गणित भी काम कर रही है। कोरोना काल में एक-एक हजार की मदद, तीन महीने का राशन, प्रवासियों को रोजगार जैसी मदद के सहारे सत्ता पक्ष को मैदान साफ दिख रहा है। उसे लगता है कि इसके सहारे उसकी नैया फिर पार लग जाएगी। सातवां द्वार पीएम मोदी व सीएम नीतीश का चेहरा तोड़ देगा। अगर चुनाव में विलंब हुआ और राष्ट्रपति शासन के हालात आए तो मेहरबानियों को जनता भूल सकती है। सत्ता पक्ष की इस चाल को विपक्ष भी बखूबी समझ रहा है। वह जानता है कि इस समय खाली पुरानी बखिया उधेड़ने से काम नहीं बनने वाला। तत्काल मेहरबानी उसकी राह में रोड़ा बनेगी। अगर कुछ मोहलत मिलती है और हालात सामान्य होते हैं तो उसको फायदा होगा। अभी लोगों से मेल-मिलाप का समय भी नहीं है। ऐसे में सत्तापक्ष तो वर्चुअल मीटिंग के जरिये अपनी बात कार्यकर्ताओं व जनता तक पहुंचा भी ले रहा है, जबकि संसाधनों के अभाव के कारण विपक्ष इसमें फिसड्डी है। उसके सामने खुलकर मैदान में आना मजबूरी ही है।

बहरहाल कसरतें सभी दलों की जारी हैं। भीतर और बाहर दोनों तरफ। भीतर मतलब सीटों पर सहमति बना कर गठबंधन साधना और बाहर कायकर्ताओं को सक्रिय कर ज्यादा से ज्यादा वोटबैंक बढ़ाना। भीतरी मजबूती के लिए एनडीए में भाजपा और महागठबंधन में कांग्रेस अगुवाई कर रही हैं। एनडीए में लोजपा की 94 सीटों की मांग और उसके रवैये से नीतीश सहज नहीं हैं तो हम, रालोसपा व वीआइपी जैसे दलों की मांग को लेकर राजद। जदयू भाजपा पर दबाव बनाए है कि वह अपने कोटे से लोजपा को समङो और महागठबंधन में ऐसी ही स्थिति में कांग्रेस है। अभी भाजपा के प्रभारी भूपेंद्र यादव और कांग्रेस के शक्ति सिंह गोहिल इसी मुहिम में तीन-चार दिन जुटे रहे। उनकी कोशिश यही है कि घर को जल्दी ठीक कर बाहर मोर्चा खोला जाए।

इससे इतर आयोग समय पर चुनाव कराने की तैयारियों में जुट गया है। कोरोना ने उसके सामने भी चुनौती खड़ी कर दी है। चुनाव आयोग फिलहाल इस मूड में भी नहीं दिख रहा कि चुनाव टलने चाहिए। हां, राजनीतिक दलों में जरूर इस बात की चिंता है कि कोरोना के कहर के कारण कहीं मतदान का प्रतिशत न प्रभावित हो जाए। अगर वोट कम पड़े तो बाजी उसी की होगी जो ज्यादा से ज्यादा वोट डलवा लेगा। कुछ ऐसे ही हालात हैं लॉकडाउन लौटने के बाद बिहार में। कुछ समय बाद ही तस्वीर साफ होगी कि कोरोना जीतता है या चुनाव।

[स्थानीय संपादक, बिहार]