बिहार, आलोक मिश्रा। Lockdown 2.0: बिहार के लिए अब नया संकट बन गया है अन्य राज्यों में बसा बिहार। चाहे छात्र हों या कामगार, वे लौटना चाहते हैं। बाहर न उसके पास खाने को है और न ही कमाने को, भीतर छटपटाहट है किसी तरह घर वापसी की। जिस राज्य में कल तक वे उनके कमाऊ पूत थे, आज वहां की सरकार के लिए मुसीबत बन गए हैं। सब उन्हें बिहार ठेलने पर अमादा हैं और बिहार में व्यवस्थागत संकट है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए आगे कुआं, पीछे खाई वाली स्थिति पैदा हो गई है। एक तो संख्या लाखों में, बसें सीमित, 21 दिन क्वारंटाइन करने की मजबूरी और संसाधन सीमित। न लाएं तो देश में फजीहत, लाएं तो घर में रोग फैलने की आशंका। करें तो क्या करें वाली स्थिति बन गई है सरकार के सामने?

ट्रेन की मांग की तो अब ट्रेन भी मिल चुकी है। सब रास्ते खुल चुके हैं, अब जो कुछ करना है बिहार सरकार को करना है। वापसी को लेकर सरकार के असमंजस का कारण भी है। जब पहली बार लॉकडाउन की घोषणा हुई तो दिल्ली, हरियाणा, पंजाब से लाखों की खेप बिहार कूच कर गई। इधर नीतीश कुमार किसी को लेने को तैयार नहीं थे। सीमा की घेरेबंदी का आदेश दे दिया, लेकिन जब भीड़ टूट पड़ी तो रोकना मुश्किल हो गया। सबको दामन में समा लिया गया। अब उनमें से कई कोरोना संक्रमित निकल आए हैं। यही डर सरकार को था कि अन्य राज्यों की तुलना में कोरोना से बचा यह घनी आबादी वाला राज्य कहीं इसकी चपेट में न आ जाए। उसका असर दिखने भी लगा। इसी बीच दूसरा लॉकडाउन हुआ तो चाहे वे कोटा में फंसे छात्र हों या अन्य राज्यों में बचे प्रवासी। सभी के सुर वापसी के लिए बुलंद होने लगे। आग में घी डाला उत्तर प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने, जिन्होंने कोटा से छात्रों को बुलाने के लिए बसें लगा दीं। दबाव बढ़ गया बिहार पर और सवाल खड़ा हो गया नीतीश पर।

इसी दबाव के चलते बीते सोमवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुख्यमंत्रियों की वार्ता के दौरान नीतीश ने अन्य राज्यों पर यह कहकर निशाना साधा कि वापसी के लिए केंद्र एक समान नीति बनाए। बुधवार को नीति बन गई कि राज्य अपने लोगों को घर बुला सकते हैं। अब धन्यवाद के अलावा कोई चारा नहीं था, यह कहा गया कि केंद्र ने बिहार की बात मान ली, लेकिन अपने पाले में आई इस गेंद को लेकर चिंता भी खड़ी हो गई कि लाखों की इस संख्या को लाया कैसे जाए और फिर उन्हें 21 दिन क्वारंटाइन कैसे किया जाए? संख्या को लेकर भी असमंजस, कितने आएंगे? 27 लाख के लगभग तो राज्य सरकार की एक हजार रुपये की मदद ही ले चुके हैं। इस अनुसार कभी आंकड़ा तीस लाख तो कभी चालीस लाख तक पहुंच रहा है। अटारा-खटारा बसें भी जोड़ ली जाएं तो सत्तर-बहत्तर हजार ही होती हैं।

बीस से ज्यादा बैठाए नहीं जा सकते और हर फेरे में कम से कम पांच छह दिन का समय। इसलिए सरकार ने विशेष ट्रेन चलाने की मांग कर दी, इस अनुरोध के साथ कि इनके लिए भोजन की भी व्यवस्था की जाए। नीतीश सरकार की यह मांग कुछ हद तक व्यावहारिक भी है कि सड़कों पर इतनी बसें दौड़ने से दिक्कत ही बढ़ेगी, लेकिन इस मांग के भी तमाम अर्थ निकाले जाने लगे हैं। हालांकि शुक्रवार को तेलंगाना से झारखंड के लिए चलाई गई एक विशेष ट्रेन से उम्मीद बढ़ भी गई, जो शाम होते-होते विश्वास में बदल गई। बिहार का यह चुनावी साल है। अगर हालात समय पर ठीक हो गए तो नवंबर में अगली सरकार चुनी जाने वाली है। कोरोना में ठंडे-ठंडे घर में बैठे विपक्ष को इसे लेकर मुद्दा मिल गया है और विपक्ष की तेजी देख सहयोगी दल भाजपा के भी कुछ नेता मुखर होने लगे हैं। सभी घर वापसी के लिए राह सुगम करने की मांग कर रहे हैं।

राजद के तेजस्वी तो दो हजार बसें खुद देने का बिगुल फूंक चुके हैं। कांग्रेसी भी दबाव बना रहे हैं। भाजपा का एक खेमा इसे चुनाव में नुकसान के रूप में देख रहा है। इसलिए बिहार भाजपा के अध्यक्ष संजय जायसवाल एवं एमएलसी संजय पासवान जैसे नेताओं ने भी वापसी सुगम बनाने की बात कही है। बहरहाल बिहार में पिछले दस दिनों में कोरोना संक्रमितों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। अब 38 में 29 जिलों में कोरोना फैल चुका है। इसलिए बाहर से आने वाली इस भीड़ को लेकर चिंता जायज भी है कि कहीं इनके आने से कुछ हद तक संभली स्थिति और न बिगड़ जाए। 

[स्थानीय संपादक, बिहार]