[ प्रो. निरंजन कुमार ]: 17वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव की तिथियों की घोषणा के साथ ही विश्व के सबसे जटिल लोकतंत्र के महापर्व की शुरुआत हो गई है। जटिल इस रूप में कि भारत जाति एवं उपजाति, मजहब और संप्रदाय, भौगोलिक क्षेत्र, भाषा, आर्थिक तथा सामाजिक रूप से विविध एवं बहुरंगी, बल्कि परस्पर अंतरविरोधी तत्वों वाला देश है। संसार में शायद ही कोई ऐसा दूसरा राष्ट्र होगा जहां इतनी विविधताएं होंगी, लेकिन हमारी खासियत रही है कि इन विविधताओं एवं अंतरविरोधों के बावजूद भारतभूमि ने सामान्यतया अपना राष्ट्रीय भाव बनाए रखा है। लोकसभा चुनावों में भी एकाध अपवादों को छोड़ दें तो इस देश की जनता ने अपने इस राष्ट्रीय विवेक का परिचय हमेशा दिया है।

पुलवामा आतंकी हमला

पुलवामा में हालिया आतंकी हमला, चीन द्वारा पाकिस्तान का समर्थन, फिर चीन की भारत के प्रति आक्रामक नीति और उससे हमारा सीमा विवाद, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न सामाजिक-आर्थिक समस्याएं एवं चुनौतियां, रोजगार एवं भ्रष्टाचार, विदेश नीति के प्रश्न इत्यादि आगामी लोकसभा चुनावों के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे होंगे। फिर एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भारतीय मतदाताओं का क्या रुख होना चाहिए जब कुछ राष्ट्रीय पार्टियों के साथ-साथ क्षेत्रीय दल भी ताल ठोंक रहे हैं? इस संदर्भ में इन राजनीतिक दलों का चरित्र, चाल और चेहरा जानना प्रासंगिक होगा।

भाजपा और कांग्रेस

आगामी आम चुनाव में एक तरफ भाजपा है जिसने कई क्षेत्रीय दलों से सहयोग करके चुनाव में उतरने का फैसला किया है। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगु देसम पार्टी, तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति, अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी, नवीन पटनायक की बीजू जनता दल और विभिन्न कम्युनिस्ट पार्टियां प्रमुख रूप से खम ठोंक रही हैं। उपरोक्त पार्टियों की नीति, दृष्टिकोण और आधार आदि की पड़ताल करें तो इनमें भाजपा और कांग्रेस ही सच्चे राष्ट्रीय दलों के रूप में सामने आते हैं। हालांकि तकनीकी रूप से चुनाव आयोग के नियमों के अनुसार तृणमूल कांग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, माकपा, भाकपा आदि भी कहने को राष्ट्रीय पार्टियां हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर दलों का मूलभूत चरित्र, चाल और चेहरा क्षेत्रीय पार्टियों वाला है।

अस्ताचल की ओर प्रस्थान

अपने अस्ताचल की ओर प्रस्थान कर रहीं माकपा और भाकपा पहले से ही पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल तक सिमटकर रह गई थीं, पिछले कुछ वर्षों में ये और भी ज्यादा सिकुड़ चुकी हैं। अपने सबसे बड़े गढ़ पश्चिम बंगाल में ही ये तीसरे नंबर पर धकेल दी गई हैं। त्रिपुरा भी इनके हाथ से निकल चुका है और अब केरल में भी इनको नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस विशुद्ध रूप से पश्चिम बंगाल केंद्रित पार्टी है। यही हालत राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की है जिसकी जड़ें मुख्य रूप से महाराष्ट्र में हैं। मायावती की बसपा भी इनसे भिन्न नहीं है जो उत्तर प्रदेश की धरती से प्रमुख रूप से अपनी जीवन शक्ति लेती है। अन्य विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियां तो सिर्फ अपने-अपने राज्यों अथवा उन राज्यों के भी छोटे-छोटे हिस्सों भर में केंद्रित हैं।

क्षेत्रीय पार्टियों की नीति

इस क्रम में अलग-अलग स्थितियों और परिप्रेक्ष्य में इन क्षेत्रीय पार्टियों की नीति, दृष्टिकोण और आधार को भी परख लिया जाए। एक तो ये राजनीतिक दल प्रमुख रूप से केवल किसी राज्य विशेष तक सीमित हैं और इसलिए अपनी नीति और दृष्टिकोण में राष्ट्रहित के बजाय एक संकुचित दृष्टि से परिचालित होते हैं। उदाहरण के लिए भारत और बांग्लादेश के बीच तीस्ता नदी जल के बंटवारे का विवाद 2011 या 2018 में हल हो गया होता, अगर ममता बनर्जी ने इसमें अड़ंगा न लगाया होता। यहां बताना जरूरी है कि इस विवाद का निपटारा बांग्लादेश से बेहतर संबंधों के लिए बहुत जरूरी है और इस रूप में यह राष्ट्रहित में है, क्योंकि बांग्लादेश एक तरफ पाकिस्तान को विभिन्न प्रसंगों में काउंटर बैलेंस करने के काम में आता है तो दूसरी तरफ ‘एक्ट ईस्ट पॉलिसी’ के लिए भी बहुत अहम है। ध्यान रहे कि मोदी सरकार के साथ-साथ मनमोहन सरकार भी इस समझौते की पक्षधर थी। यहीं राष्ट्रीय राजनीतिक दलों के अखिल भारतीय या राष्ट्रीय हित की दृष्टि बनाम क्षेत्रीय दल के संकीर्ण स्वार्थ का अंतर स्पष्ट हो जाता है। एक अन्य उदाहरण तमिलनाडु की पार्टियों का ले सकते हैं, जिनके रवैये के कारण एक समय भारत और श्रीलंका के रिश्ते में खटास पैदा हो रही थी, क्योंकि केंद्र सरकारें तमिलनाडु के दलों से अलग विचार रखती थीं। कहने का तात्पर्य है कि क्षेत्रीय दल सीमित दृष्टि की वजह से संकुचित नीतिगत फैसले लेते हैं जो कई बार व्यापक राष्ट्रहित में नहीं होता।

जातिगत आधार पर राजनीति

दूसरे, अधिकांश क्षेत्रीय राजनीतिक दल न केवल किसी राज्य विशेष तक सिमटे हैं, बल्कि आमतौर पर किसी खास जातिगत आधार तक भी सीमित हैं। मिसाल के लिए लालू प्रसाद यादव की राजद मुख्य रूप से यादवों की पार्टी है तो बसपा दलितों और उनमें भी जाटवों की पार्टी है। लोकदल जाटों की पार्टी है तो सपा भी मुख्य रूप से यादवों की पार्टी है। इसी तरह से कर्नाटक की जेडी(एस) वोक्कालिगाओं, टीडीपी कम्मा जाति वालों, अपना दल पटेल कुर्मियों, लोक जनशक्ति पासवान समुदाय की पार्टियां हैं। जाहिर है कि जाति आधारित ये राजनीतिक दल आमजन के हित और राष्ट्रहित से अधिक अपनी-अपनी जातियों के हित की बात ज्यादा सोचेंगे। लोकतंत्र के उत्सव में भागीदारी के वक्त क्या हम इसकी अनदेखी कर सकते हैैं कि क्षेत्रीय राजनीतिक दलों में से कई परिवार विशेष के कब्जे वाली पार्टियां हैं? राजद, सपा, लोकदल, जेडी(एस), डीएमके, टीआरएस, अकाली दल, इनेलो, लोक जनशक्ति पार्टी, झामुमो जैसी कई पार्टियां हैं, जो इस देश और समाज से ज्यादा अपने परिवार के हित की चिंता करती हैं।

‘अपनी डफली-अपना राग’

यह भी रेखांकित करना जरूरी है कि इनमें से अधिकांश दल ‘अपनी डफली-अपना राग’ अलापते हुए किसी एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम या एक साझी राष्ट्रीय नीति अपनाने के बजाय अलग-थलग चुनावी मैदान में खड़े होते रहते हैं। जाहिर है कि यह सवाल जनता के सामने उठ खड़ा होता है कि क्या राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद से परे जाति, परिवार आधारित क्षेत्रीय राजनीतिक दलों पर हम अपना दांव लगा सकते हैं? कुछ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने भाजपा और कांग्रेस से गठबंधन जरूर किया है और इससे उनके संकुचित दृष्टिकोण पर कुछ लगाम लगेगी, लेकिन इसके लिए भाजपा और कांग्रेस को मजबूती से उभरना होगा।

( लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं )