[रशीद किदवई]। दीपिका पादुकोण के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू में जाने से हंगामा मचा हुआ है। दीपिका वहां मात्र 15 मिनट रहीं और इस दौरान उन्होंने किसी से कोई संवाद नहीं किया। उनके इस कदम से कुछ लोग उनकी आने वाली फिल्म ‘छपाक’ को देखने और सफल बनाने की बात कर रहे हैं तो कुछ उसका बायकाट करने की मांग कर रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो दीपिका पादुकोण को सार्वजनिक जीवन की महानायिका के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं।

बॉलीवुड और राजनीति का बड़ा लंबा और रोचक इतिहास रहा है। एक समय वी शांताराम, महबूब, पृथ्वीराज कपूर, दादा साहेब फाल्के आदि कलाकार गांधी दर्शन के विभिन्न आयामों से प्रभावित थे। इसका प्रभाव उनकी फिल्मों में दिखा करता था। उनकी फिल्मों में अहिंसा, प्रेम एवं बलिदान, हिंदू-मुस्लिम एकता, नारी उद्धार, नगरीय एवं ग्रामीण जीवनशैली में अंतर, अंधी व्यावसायिकता का विरोध, नैतिक पतन की चिंता जैसे गांधीवादी मूल्य प्रस्तुत किए जाते थे।

फिल्मी कलाकारों ने राजनीति में किया प्रवेश

दूसरी ओर दर्जनों अन्य फिल्मी कलाकारों ने समय-समय पर राजनीति में सिर्फ इसलिए प्रवेश किया ताकि वे अपनी रील लाइफ को सार्वजनिक जीवन में बढ़ा सकें और जनता से वैसा ही स्नेह और लोकप्रियता हासिल कर सकें जैसी उन्हें फिल्मों से मिलती थी, लेकिन दो-चार अपवाद छोड़कर अधिकांश अभिनेता राजनीति में असफल हुए, क्योंकि राजनीति मेहनत, लगन और एकाग्रता की मांग करती है जिसे वे पूरा नहीं कर पाए।

अमिताभ बच्चन बड़ी शान और सम्मान के साथ अपने मित्र राजीव गांधी का साथ देने के लिए राजनीति में आए। उन्होंने इलाहाबाद से चुनाव लड़ा और जीता भी, लेकिन वह लोकसभा का आधा कार्यकाल भी पूरा नहीं कर पाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से दोस्ती और तरह-तरह के विवादों ने अमिताभ बच्चन को हिला दिया और फिर उन्होंने राजनीति से तौबा ही कर ली। दिलचस्प बात यह रही कि बच्चन परिवार नेहरू-गांधी परिवार से बेशक अलग हो गया हो, लेकिन समाजवादी पार्टी और राजनीति से अपने आप को कभी अलग नहीं कर सका। दुर्भाग्यवश विभिन्न संवेदनशील अथवा ज्वलंत मुद्दों पर अमिताभ बच्चन अक्सर खामोश रहते हैं।

कई फिल्मी सितारे राजनीति से चले गए बाहर

इसी तरह से रेखा, गोविंदा, लता मंगेशकर संसद में अपनी गैर हाजिरी के लिए जाने गए। हेमा मालिनी, धर्मेंद्र, सनी देओल, परेश रावल इत्यादि भी राजनीति में आए, लेकिन अपने गैर जिम्मेदाराना बयानों के चलते अधिक चर्चा में रहे। शत्रुघ्न सिन्हा, राज बब्बर और मिथुन चक्रवर्ती राजनीतिक आंदोलन से जुड़ने के बाद राजनीति में आए, लेकिन मिथुन चक्रवर्ती बिना कोई छाप छोड़े सियासत से बाहर चले गए। देव आनंद संसद में नहीं आ पाए, लेकिन उनके हिस्से में बड़ी उपलब्धियां दर्ज हैं।

उन्होंने न सिर्फ गायक किशोर कुमार की तरह इंदिरा गांधी के आपातकाल का विरोध किया और प्रतिबंध सहा, बल्कि नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया के नाम से एक राजनीतिक दल भी बनाया। देव आनंद इंदिरा गांधी को टक्कर देने के लिए बहुत उत्सुक थे। नामचीन हस्तियां जैसे विजय लक्ष्मी पंडित और नाना पालकीवाला जैसे लोग उनके साथ खड़े हुए, लेकिन इन्हीं लोगों ने उनके इरादे पर पानी भी फेर दिया, क्योंकि वे लोकसभा का चुनाव लड़ने के बजाय देव आनंद से राज्यसभा की सीट मांग रहे थे। इस मांग को पूरा करना देव आनंद की सामथ्र्य से बाहर था।

संकट के समय में बॉलीवुड ने किया सराहनीय कार्य

हालांकि ऐसा नहीं है कि हम समस्त बॉलीवुड को एक ही चश्मे से देखें। संकट की घड़ी में बॉलीवुड अक्सर सामने आया और सराहनीय कार्य किया। 1948 में जब पाकिस्तान ने धोखे से देश में घुसने का दुस्साहस किया था तब राज कपूर, नरगिस, गीता बाली, आइएस जौहर, कामिनी कौशल, मुकेश और अन्य कलाकारों ने युद्ध के लिए लाखों रुपये जमा किए।

इसी तरह 1962 और 1965 की लड़ाई में सुनील दत्त, नरगिस, लता मंगेशकर, किशोर कुमार, वहीदा रहमान ने युद्ध भूमि जाकर सैनिकों का हौसला भी बढ़ाया और फंड भी इकट्ठा किया। 1971 में प्राण, शम्मी कपूर और वहीदा रहमान ने कल्याणजी आनंदजी, सुनील दत्त, नरगिस और लता मंगेशकर के साथ मिलकर बांग्लादेश सहायता समिति बनाई। इसके माध्यम से उन्होंने महत्वपूर्ण योगदान दिया।

स्वच्छ भारत अभियान में फिल्मी कलाकारों ने लिया भाग 

जब पीएम मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान छेड़ा और बॉलीवुड का समर्थन मांगा तब आमिर खान, प्रियंका चोपड़ा, कंगना रनोट और अन्य दूसरे अदाकार सामने आए और उन्होंने इसमें बढ़-चढ़कर योगदान दिया, लेकिन जब आमिर खान ने सहिष्णुता की कमी का अहसास दिलाने की कोशिश की और शाहरुख खान ने मॉब लिंचिंग के विरुद्ध बोला तो उनकी आलोचना के साथ ही उनकी फिल्मों का विरोध शुरू हो गया।

भारतीय फिल्म दर्शक बड़ा है समझदार 

अब यदि हम उन फिल्मों पर नजर डालें जिनका राजनीतिक स्तर पर बायकाट करने की बात की गई या जिनसे सियासी लाभ लेने की कोशिश की गई तो बड़े दिलचस्प परिणाम दिखेंगे। भारतीय फिल्म दर्शक बड़ा समझदार और रोशन ख्याल है। वह प्रोपेगंडा या भावनाओं के बीच गलत और सही का फैसला करना जानता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि बाकी तमाम नागरिकों की तरह फिल्मी कलाकारों का भी यह लोकतांत्रिक हक है कि वह अपनी राजनीतिक सोच और विचारों को जनता के सामने रखें और उससे जुड़ी प्रशंसा अथवा निंदा का पात्र बनें।उनके इस कदम से उनकी कला या फिल्म को जोड़ना दुर्भाग्यपूर्ण है।

यह तो खास तौर पर ध्यान रखा जाना चाहिए कि फिल्म एक टीमवर्क होता है जिसमें हजारों लोगों की मेहनत और जीविका जुड़ी होती है। उसे किसी एक कलाकार की राजनीतिक सोच से जोड़ना और उसका बायकाट करने के लिए अभियान छेड़ना लोकतांत्रिक और मानवीय मूल्यों का अपमान है। इस पर आत्म चिंतन की जरूरत है।

 

(स्तंभकार ‘नेता-अभिनेता: बॉलीवुड स्टार पॉवर इन इंडियन पॉलिटिक्स’ के लेखक एवं ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में विजिटिंग फैलो हैं)