[ राजीव सचान ]: पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त ही देश में जैसा माहौल बन गया था उससे यह स्पष्ट था कि आने वाला समय विभिन्न दलों के बीच राजनीतिक कटुता बढ़ाने वाला होगा। आखिरकार ऐसा ही हुआ। समय के साथ सत्तापक्ष-विपक्ष की राजनीतिक कटुता में अन्य क्षेत्रों के लोग भी शामिल हो गए। इनमें फिल्म और साहित्य जगत के लोग खास तौर से थे। अवार्ड वापसी अभियान गोरक्षा के नाम पर्र ंहसा के खिलाफ कम, मोदी सरकार के प्रति विरोध जताने का जरिया अधिक था। इस पर हैरत नहीं कि आम चुनाव आते ही किस्म-किस्म के बुद्धिजीवियों ने अपनी-अपनी तरह से मतदाताओं को चेताना शुरू कर दिया। लेखकों, फिल्मकारों के साथ सेवानिवृत्त नौकरशाहों और सैन्य अधिकारियों ने चिट्ठियां जारी कर यह बताया कि किसे वोट नहीं देना चाहिए। ऐसा करते हुए वे यह भी स्पष्ट कर दे रहे थे कि वोट किसे देना चाहिए।

इन चिट्ठियों के जवाब में जवाबी चिट्ठियां भी सामने आईं। इस तरह की चिट्ठियां जारी होने में हर्ज नहीं, लेकिन इतना अवश्य है कि जब कोई किसी दल को वोट न देने की अपील करता है तो वह खुद को एक पाले में खड़ा कर लेता है-ठीक वैसे ही जैसे जब कोई राजनीतिक दल किसी एक समुदाय या जाति को एकजुट होने को कहता है तो दूसरा समुदाय या जाति अपने आप ही किसी और के पक्ष में एकजुट होने की कोशिश करती है। इसमें फर्क सिर्फ यह होता है कि सेक्युलर किस्म के कुछ लोग एक पक्ष की एकजुटता को सोशल इंजीनिर्यंरग की संज्ञा दे देते हैैं और दूसरे पक्ष की एकजुटता को धु्रवीकरण।

चुनावों के वक्त छल-कपट का सहारा लेना अथवा मतदाताओं को बहकाना कोई नई-अनोखी बात नहीं, लेकिन पहले यह काम छोटे-मझोले किस्म के नेता ही करते थे। अब इस काम को बड़े नेताओं ने अपने हाथ में ले लिया है। हालांकि वे इससे अनजान नहीं हो सकते कि सोशल मीडिया के इस दौर में जब करीब-करीब हर किसी के हाथ में स्मार्ट फोन है, झूठ बोलना और भड़काऊ बयान देना खतरे से खाली नहीं, फिर भी कुछ नेता किसी की परवाह नहीं कर रहे हैैं। इसी 23 अप्रैल को कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शहडोल में बयान दिया कि नरेंद्र मोदी ने आदिवासियों के लिए एक ऐसा कानून बनाया है जिसमें एक लाइन लिखी है कि आदिवासियों को गोली से मारा जा सकेगा। भला इससे बेढब बयान और क्या हो सकता है, लेकिन लोगों को गुमराह करने वाले इस भाषण की वैसे ही कोई खास चर्चा नहीं हुई जैसे इसकी कि ‘सारे मोदी चोर होते हैैं।’

यह सही है कि चुनावों के दौरान बेतुके बयानों का सिलसिला कायम हो ही जाता है और इस तरह के बयान सभी दल के नेता देते हैैं, लेकिन इस बार चुनाव की गर्मी में राहुल गांधी अपने विचित्र बयानों से सबको पीछे छोड़ते दिख रहे हैैं। वह बेधड़क कुछ भी कह देते हैैं और यह विरोधी दल या फिर मीडिया पर छोड़ देते हैैं कि वह उनके कथन में सच-झूठ या फिर अजब-गजब की खोज करे। अब तो यह काम सर्वोच्च न्यायालय को भी करना पड़ रहा है। राहुल गांधी कभी भी गंभीर और अर्थपूर्ण बयानों के लिए नहीं जाने गए। जयपुर में कांग्रेस उपाध्यक्ष बनते समय उन्होंने अवश्य सत्ता जहर है.. वाले भाषण से कुछ छाप छोड़ी थी। उसके बाद से याद नहीं कि उन्होंने अपनी बात गंभीरता से रखी हो या फिर कोई नया विचार सामने रखा हो। अब तो उनसे उम्मीद भी नहीं की जाती कि वह कोई धीर-गंभीर वक्तव्य देंगे।

राहुल गांधी अपनी न्याय नामक योजना को लेकर कितना गंभीर है, इसे इससे समझा जा सकता है कि इन दिनों वह यह भाषण देते सुनाई दे रहे हैैं कि इस योजना के लिए पैसा अनिल अंबानी जैसे लुटेरे उद्यमियों से जुटाया जाएगा। मतदान के चार चरणों के बाद चुनाव प्रचार जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, कई लोगों के वक्तव्यों और प्रतिक्रियाओं में उस कथित चुनावी गर्मी का असर बढ़ता दिख रहा है जिसका हवाला देकर राहुल गांधी ने लोगों को गुमराह करने वाला यह बयान दिया था कि अब तो सुप्रीम कोर्ट ने भी कह दिया कि ‘चौकीदार चोर है।’

इस पर हैरानी नहीं कि भाजपा विरोधी नेताओं और बुद्धिजीवियों को वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रोड शो रास नहीं आया। उन्होंने उसकी आलोचना करने के लिए अपने हिसाब से धारदार तर्क खोज निकाले।

भाजपा छोड़ चुके यशवंत सिन्हा ने कहा कि वाराणसी में मोदी का रोड शो देखकर मुझे वह भीड़ स्मरण हो आई जो नाजी जर्मनी में हिटलर के पक्ष जुटती थी। आखिर इसे बौखलाहट के अलावा और क्या कहा जा सकता है, लेकिन यह तो कुछ भी नहीं। राफेल मामले में उनके साथी-सहयोगी बने वकील प्रशांत भूषण ने इसी दिन ट्वीट करके कहा कि मोदी को पांच साल और मिलने का मतलब है सभ्यता का अंत। वह इससे भी गदगद दिखे कि राज ठाकरे मोदी की पोल खोल रहे हैैं। हालांकि उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वह राज ठाकरे की तमाम बातों से सहमत नहीं, लेकिन यह देखने लायक है कि वह मोदी के झूठ को उजागर कर रहे हैैं। इन दिनों उनके साथ अन्य अनेक लोग, जिन्हें लिबरल बुद्धिजीवियों के खेमे में रखा जाता है, इससे मुदित हैं कि राज ठाकरे मोदी की पोल खोलने में जुटे हैैं।

फिल्मकार और लेखक प्रीतीश नंदी तो राज ठाकरे के साथ उनके उन कार्यकर्ताओं के भी मुरीद बन गए हैं जो अपने नेता को गाली देने वाले किसी भाजपाई को पीटने उसके घर तक घुस जाते हैैं। ऐसा नहीं है कि राज ठाकरे का हृदय परिवर्तन हो गया है। वह आज भी यह बात ठसक के साथ कहते हैैं कि अगर कोई मुझे गाली देगा तो मेरे कार्यकर्ताओं के हाथों पिटेगा, लेकिन चूंकि वह मोदी के खिलाफ बोलने में लगे हुए हैैं इसलिए तथाकथित लिबरल बुद्धिजीवी और सेक्युलर नेता उन पर फिदा हैं। यह या तो इस बौद्धिक खेमे के लोगों का महापतन है या फिर वे भी उस चुनावी गर्मी के शिकार हैैं जिससे राहुल गांधी पीड़ित हैं। क्या उन्हें गुंडागर्दी को राजनीति का पर्याय बनाने वाले राज ठाकरे के अलावा और कोई ऐसा मोदी विरोधी नहीं मिला जिसकी वह तारीफ कर पाते?

मोदी का विरोध करने के लिए मुद्दों की कमी नहीं। कई एक ऐसे मुद्दे हैैं जैसे पुलिस सुधार, शिक्षा सुधार और नौकरशाही में सुधार न होना। इन और इन जैसे अन्य अनेक मुद्दों के जरिये मोदी की आलोचना ही नहीं, कठोर आलोचना की जा सकती है, लेकिन उनके रोड शो में हिटलर की झलक पाना या फिर उनकी वापसी से सभ्यता का अंत होते हुए देखना हास्यास्पद है।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )