[ राजीव सचान ]: चिट्ठियों का अपना महत्व है, लेकिन हर चिट्ठी असरकारी नहीं होती। अगर होती तो लोकसभा चुनाव के मौके पर लिखी गई लेखकों के एक समूह की वह चिट्ठी अवश्य रंग लाती जिसमें घुमा फिराकर यह कहा गया था कि लोकतंत्र को बचाने के लिए भाजपा को वोट देने से बचा जाना चाहिए। असहिष्णुता, भीड़ की हिंसा और जय श्रीराम नारे के कथित दुरुपयोग का जिक्र करते हुए 49 बुद्धिजीवियों की ओर से प्रधानमंत्री को जो चिट्ठी लिखी गई वह सार्वजनिक होते ही आलोचना और निंदा की चपेट में आ गई तो इसीलिए, क्योंकि एक तो चिट्ठी लिखने वालों में से कई भाजपा विरोधी की छवि से लैस हैं और दूसरे उन्होंने इस पर बल देना ज्यादा जरूरी समझा कि केवल अल्पसंख्यक और दलित ही भीड़ की हिंसा यानी मॉब लिंचिंग का शिकार हो रहे हैं। ऐसा करके उन्होंने वही काम किया जो मीडिया का एक हिस्सा और कुछ विचारक बड़ी चतुराई से करने में लगे हुए हैं।

तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का काम

यह काम है चुनिंदा तथ्यों को अपने हिसाब से उठाना और फिर उनकी मनचाही व्याख्या करना। ऐसा करते हुए तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने का भी काम किया जाता है। इसे फैक्ट लिंचिंग कहना अनुचित न होगा। इसका एक उदाहरण पेश करती वह खबर देखें जिसका शीर्षक है- दो सालों में 2400 छात्रों ने आइआइटी की पढ़ाई छोड़ी, आधे एससी-एसटी ओबीसी के। पहली नजर में यही लगेगा कि इन वर्गों के छात्रों के लिए आइआइटी की पढ़ाई पूरी करना मुश्किल हो रहा है, लेकिन जब आप खबर की तह तक जाते हैं तो पाते हैं कि पढ़ाई पूरी न करने वाले आधे, बल्कि आधे से कळ्छ अधिक छात्र सामान्य वर्ग के हैं।

फैक्ट लिंचिंग

फैक्ट लिंचिंग का काम किस सुनियोजित तरीके से हो रहा है, इसका एक और उदाहरण देखें। बीते हफ्ते दिल्ली में एक युवक ने सरेराह एक युवती की हत्या कर दी। एक खबर इस शीर्षक से छपी-युवती के पीछे पड़े शख्स ने उसे चाकू घोंपकर मारा। इस खबर में न तो मारी गई युवती का नाम था और न ही उसके किसी परिजन का। अन्य स्रोतों से पता चला कि मारी गई युवती हिंदू थी और उसे मारने वाला मुस्लिम। इसी दिन अहमदाबाद की एक खबर इस शीर्षक से छपी-आदिवासी लड़की से अफेयर के चलते 18 साल के मुस्लिम की पीटकर हत्या। ये दोनों घटनाएं भीड़ की हिंसा या नफरत से उपजी हिंसा का मामला नहीं कही जा सकतीं, लेकिन यह स्वाभाविक है कि दूसरी खबर पढ़कर पाठक यही सोचेंगे कि कहीं यह भीड़ की हिंसा का मामला यानी मॉब लिंचिंग तो नहीं?

तथ्यों के साथ खिलवाड़

तथ्यों के साथ इसी तरह के खिलवाड़ ने यह माहौल बनाने में मदद की है कि भारत में अल्पसंख्यकों की जान की खैर नहीं, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि भीड़ की हिंसा जनित घटनाएं नहीं हो रही हैैं। सच्चाई यही है कि वे हो रही हैैं। पशुओं, बच्चों, वाहनों आदि की चोरी के आरोप में पकड़े गए लोग अक्सर भीड़ की हिंसा का शिकार हो रहे हैैं। इसी तरह गाय काटने या गोमांस बेचने के शक के घेरे में आए लोग भीड़ की हिंसा के शिकार हो रहे हैैं। इस सबके साथ यदा-कदा सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण भी ऐसी घटनाएं हो रही हैैं। इसे किसी और न सही, खुद को बुद्धिजीवी कहने वाले लोगों को अवश्य समझना चाहिए। उन्हें यह भी समझना चाहिए कि भीड़ की हिंसा के मामले लचर कानून एवं व्यवस्था का भी नतीजा हैैं।

दलित और अल्पसंख्यक भीड़ की हिंसा के शिकार हो रहे

आमतौर पर पुलिस पशुओं की चोरी, गायों की तस्करी आदि की घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेती। इससे लोगों में आक्रोश बढ़ता है और नतीजा यह होता है कि जब कोई चोर हाथ लगता है तो फिर उसकी पिटाई होती है। कई बार यह पिटाई जानलेवा साबित होती है, लेकिन 49 बद्धिजीवियों समेत अन्य अनेक बुद्धिजीवी इस निष्कर्ष पर पहुंच गए कि दलित और अल्पसंख्यक चुन-चुनकर भीड़ की हिंसा का शिकार हो रहे हैैं।

भीड़ की हिंसा से निपटने के लिए कानून बने

49 बुद्धिजीवियों की मांग है कि भीड़ की हिंसा से निपटने के लिए कानून बने। सुप्रीम कोर्ट भी ऐसी जरूरत जता चुका है। मोदी सरकार इस दिशा में प्रयासरत भी है, लेकिन क्या कानून बनने मात्र से भीड़ की हिंसा रुक जाएगी? ऐसा होने में संदेह है, क्योंकि पुलिस सुधारों पर ध्यान देने से बचा जा रहा है। इस मामले में भाजपा और गैर भाजपा सरकारों में कोई भेद करना मुश्किल है।

49 बुद्धिजीवियों की चिट्ठी का जवाब

इस पर हैरत नहीं कि 49 लोगों की चिट्ठी के जवाब में 62 लोगों की चिट्ठी आ गई। एक समय था जब एक ही पक्ष के लोग चिट्ठी लिखते थे और उसी को प्रचार एवं महत्व मिलता था। तब उन्हें कोई जवाबी चिट्ठी नहीं लिखता था, बल्कि यह कहें तो बेहतर कि लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पाता था। अब वह दौर बीत गया है। अब हर चिट्ठी का जवाब देने वाले हैैं। फिल्मकारों, कलाकारों, लेखकों आदि यानी हर समूह के लोगों की किसी भी चिट्ठी पर उन्हीं के बीच का कोई दूसरा समूह उन्हें जवाबी चिट्ठी लिख देता है। यह एक नया परिदृश्य है और शायद यह उन बुद्धिजीवियों को बिल्कुल भी नहीं पच रहा जिन्हें पहले कोई जवाबी चिट्ठी नहीं मिलती थी। उन्हें यह शिकायत रहती है कि उन्हें तत्काल देशद्रोही करार दिया जाता है या फिर पाकिस्तान जाने को कह दिया जाता है। ये बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैैं कि एक समय वह भी था जब किस तरह कुछ लोगों को बड़ी आसानी से सीआइए एजेंट कह दिया जाता था और फिर भी यह शिकायत कोई नहीं करता था कि देश में असहिष्णुता बढ़ रही है।

चिट्ठीबाजी की अहमियत पतंगबाजी से ज्यादा नहीं

बात-बात पर चिट्ठी लिखने वाले यह समझें तो बेहतर कि देश न सही, वक्त बदल गया है और उनकी हर चिट्ठी पर जवाबी चिट्ठी आएगी। यह बात और है कि इससे समाज और देश को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। हासिल तो तब होगा जब दोनों खेमों के बुद्धिजीवी एक-दूसरे के साथ संवाद करेंगे। बुद्धिजीवी का मतलब है विद्वान और विद्वान जब संवाद करते हैैं तो अपना तर्क रखने के पहले दूसरे के दृष्टिकोण को समझते हैैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा और इसीलिए यह जो चिट्ठीबाजी हो रही है उसकी अहमियत पतंगबाजी से ज्यादा नहीं। यदि बुद्धिजीवी तबका आपस में संवाद नहीं कर सकता तो फिर कितनी ही चिट्ठियां लिख लें, समाज को सही दिशा नहीं दिखा सकता।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )

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