[शंकर शरण]। राजस्थान का मामला उच्च न्यायालय से उच्चतम न्यायालय पहुंच गया। अब प्रतीक्षा है उच्च न्यायालय के फैसले की। उसका फैसला कुछ भी हो, उचित यह होगा कि उच्चतर न्यायपालिका दलबदल कानून की असंवैधानिकता पर भी ध्यान दे, क्योंकि संविधान की व्याख्या और संरक्षण करना उसका ही दायित्व है। यह किसी एक दल का मामला नहीं। सभी दलों ने अपने सांसदों, विधायकों को भेड़-बकरी की तरह हांकने की परंपरा बना ली है। यह न संविधान की भावना के अनुरूप है, न किसी अन्य प्रतिष्ठित लोकतंत्र में ऐसा है।

राजनीतिक दल स्वैच्छिक संगठन हैं जिसे चार लोग मिल कर बना सकते हैं और कभी भी खत्म कर सकते हैं। ऐसे संगठन मनमाने तरीके से चलें, यह सरासर विवेकहीन, असंवैधानिक है। याद करें कि अपने को सूचना अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने की दलील में राजनीतिक दलों ने कहा था कि वे स्वैच्छिक संगठन हैं, सरकारी संस्था नहीं। संसद और विधानसभाएं संवैधानिक सत्ता हैं। वहां किसी सांसद, विधायक के लिए पार्टी का ध्यान रखना स्वैच्छिक होना चाहिए, बाध्यकारी नहीं। यूरोप, अमेरिका में संसद सदस्य स्वतंत्रता पूर्वक बातें रखते हैं। पार्टियों का निर्णय वहां सांसदों पर सदन से बाहर भी बाध्यकारी नहीं है। इंग्लैंड में ब्रेक्जिट जैसे गंभीर मुद्दे पर सांसदों ने अपने-अपने विवेक से समर्थन या विरोध किया। इंग्लैंड का ही संसदीय मॉडल हमारे संविधान ने भी अपनाया है। तब यहां सांसदों या विधायकों को बंधुआ कैसे बना लिया गया है?

न्यायाधीशों को करना चाहिए पुन: विचार

भारतीय संविधान ने राजनीतिक दलों को कोई भूमिका नहीं दी थी। सांसद, विधायक का निर्वाचन एवं विधायिका का काम बिना किसी राजनीतिक दल के भी चल सकता है। किसी चुनाव में अधिकांश निर्दलीय भी जीत कर आ सकते हैं। विधानसभा फिर भी गठित होगी। सरकार फिर भी बनेगी। शासन चलेगा। तब किसी सांसद की जिम्मेदारी संसद के प्रति न होकर, उस राजनीतिक दल के प्रति कैसे, जिसका वह सदस्य है? न्यायाधीशों को इस पर पुन: विचार करना ही चाहिए। सांसद, विधायक संविधान-पालन की शपथ लेते हैं, पार्टी विधान की नहीं। तब उन्हें पार्टी-निर्देशों से कैसे बांधा जा सकता है? जिसे स्वेच्छा से कुछ बोलने का ही अधिकार न हो, वह देश के लिए क्या खाक सोचेगा? 

दल बड़ी मामूली और स्वैच्छिक चीज

किसी दलीय टिकट के बावजूद पर्याप्त वोट न मिलने पर कोई विधायिका के लिए निर्वाचित नहीं हो सकता, किंतु बिना दलीय टिकट के भी कोई जीत कर आ सकता है। विधायिका के लिए उम्मीदवार यानी व्यक्ति और मतदाता यानी जनता ही अनिवार्य है। दल अनिवार्य नहीं हैं। इसीलिए संविधान में उसका उल्लेख न था। दल बड़ी मामूली और स्वैच्छिक चीज है। उससे बहुत ऊपर मानवीय विवेक है। कई बार दल की नीतियां बदल जाने से दल छोड़ देना एक नैतिक काम भी बन जाता है।

कानून बनाने वालों को अनैतिकता का था आभास

दलबदल राजनीतिक दलों का मामला है। चूंकि वह संसद, विधानसभा का विषय ही नहीं है इसलिए सांसद-विधायक को दलीय निर्देश से बांधना विधायिका के स्वतंत्र काम और शक्ति को खत्म करने जैसा है। शायद दलबदल कानून बनाने वालों को उसकी अनैतिकता का आभास था। इसीलिए संबंधित संविधान संशोधन को अलग अनुसूची में डालकर उसके 7वें पैराग्राफ में लिखा गया कि सदन की सदस्यता खत्म करने वाले इन प्रावधानों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकेगी, किंतु सौभाग्यवश सर्वोच्च न्यायालय ने 1992 में इस पैराग्राफ को निरस्त घोषित किया।

संविधान निर्माता राजनीतिक दलों के अस्तित्व से थे परिचित

याद करें कि संविधान में संसद सदस्य, विधानसभा सदस्य, मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति आदि पदों से संबंधित विवरणों में कोई व्यक्ति, कोई सदस्य आदि शब्दों का ही प्रयोग है। हमारे संविधान निर्माता दुनिया में राजनीतिक दलों के अस्तित्व से परिचित थे। इसके बाद भी उनके द्वारा भारतीय राज्यतंत्र का निर्माण करते हुए कहीं दल को स्थान न देना स्पष्ट बताता है कि वे हरेक पद पर व्यक्ति की जिम्मेदारी महत्वपूर्ण मानते थे। उपरोक्त तमाम पदों के संदर्भ में पदधारी व्यक्तियों के रंग-रूप, शिक्षा-दीक्षा, क्षेत्र, रिलीजन, जाति आदि की तरह उनकी दलीय स्थिति भी संविधान निर्माताओं के लिए नितांत अप्रासंगिक थी। न्यायाधीशों को इसे पुन: बहाल करने पर विचार करना चाहिए।

52वां संशोधन अनैतिक असंवैधानिक 

दलबदल कानून के बहाने स्वैच्छिक संस्थाओं यानी राजनीतिक दलों को संसदीय कार्रवाई में निर्णायक शक्ति देकर एक तरह से संविधान का तख्तापलट किया गया और सांसदों, विधायकों को संविधान द्वारा मिला हुआ अधिकार राजनीतिक दलों ने छीन लिया। वास्तव में दलबदल कानून संबंधी 52वां संशोधन अनैतिक, असंवैधानिक है। इसने राजनीतिक दलों को संविधान से भी ऊपर, अनुत्तरदायी, अबाध शक्ति दे दी है। इसका औचित्य नहीं कि जो सांसद-विधायक अपने दल के आदेश की उपेक्षा करे वह विधायिका की सदस्यता से जाता रहे। यह न केवल विवेकहीन है, व्यवहार में भी हानिकारक है। यह कार्यपालिका, विधायिका को अनुचित बाधाओं में उलझाता है।

यह कितना विचित्र है कि अपने बुद्धि, विवेक से बोलने, अपनी अंतरात्मा के अनुसार काम करने का जो अधिकार सामान्य नागरिक को है वह हमारे विधायकों, सांसदों को नहीं है। वे अपनी-अपनी पार्टी के सुप्रीमो, साहबों, मैडमों के गुलाम होकर रह गए हैं। जब हमारे न्यायाधीश विधायिका को दलीय शिकंजे से मुक्त करने पर विचार करेंगे तभी संविधान में निहित वैयक्तिक जिम्मेदारी की फिर से प्रतिष्ठा हो सकेगी। तभी शासकों, प्रशासकों में गंभीरता, जबावदेही, पारदर्शिता और गतिशीलता भी आएगी। तभी राजनीतिक दलों की उच्छृंखलता पर लगाम लगेगी। अभी तो हमारी हालत कम्युनिस्ट देशों जैसी यानी पार्टी-गुलामी वाली होकर रह गई है।

(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं)