[ शंकर शरण ]: अल्पसंख्यक मुद्दे पर वही हुआ जो दशकों से होता आया है। सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका में अल्पसंख्यक अवधारणा को स्पष्ट करने की गुहार लगाई गई थी ताकि सरकारी कामकाज में विभिन्न स्तरों पर इसकी आड़ में हो रही मनमानी और अन्याय पर विराम लगाया जा सके। परंतु जैसा अब तक का अनुभव है कि यहां एक खास मतवाद या समुदाय से संबंधित कोई उचित काम करने में भी तंत्र के सभी अंग हीलाहवाली ही करते हैं। इसमें भी वही हुआ और सुप्रीम कोर्ट ने इसे परिभाषित करने का काम अल्पसंख्यक आयोग को सौंप दिया मानो वही संविधान का व्याख्याता हो!

जबकि संविधान में मौजूद ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को केवल संसद या सुप्रीम कोर्ट ही परिभाषित कर सकते हैं। यह भी कितनी दु:खद स्थिति है कि जो कोर्ट मामूली से मामूली मुद्दे पर भी खुद निर्णय करता है, वह एक संवैधानिक उपबंध से जुड़ी और दशकों से चली आ रही गड़बड़ी पर फैसला सुनाने से कन्नी काटता है। वस्तुत: यह भी इस समस्या की गंभीरता का ही संकेत है।

भारत में यह ऐसी समस्या है जिससे तमाम अन्य समस्याएं जुड़ी हैं। उपनिषद की भाषा में कहें तो इसके समाधान में हमारी कई जटिल समस्याओं के समाधान की कुंजी है। पर सत्ता के सभी अंग इस पर खुलकर सोचने से बचते हैं जबकि देश का जनमत चाहता है कि ‘अल्पसंख्यक’ और ‘बहुसंख्यक’ की परिभाषा तथा विकृति से जुड़ी कानूनी विषमता दूर होनी चाहिए, क्योंकि इसी अस्पष्टता की आड़ में यहां विभिन्न दल, देसी-विदेशी संगठन और एक्टिविस्ट भारी गड़बड़ करते रहे हैं। ऐसा न तो दुनिया में अन्य किसी देश में है, न ही यह हमारे मूल संविधान में था।

समकालीन विमर्श में अल्पसंख्यक शब्द का आशय संकीर्ण हो चला है। जस्टिस राजेंद्र सच्चर की अध्यक्षता वाली समिति ने सरकारी दस्तावेज में ‘अल्पसंख्यक’ और ‘मुसलमान’ शब्दों को एक दूसरे के पर्याय के रूप में इस्तेमाल किया था। ऐसी समझ मूल संविधान की नहीं थी। फिर भी पिछली संप्रग सरकार ने इसकी अनदेखी कर सच्चर समिति की अनुशंसाएं लागू करने का फैसला किया। ऐसे नजरिये ने देश में दो प्रकार के नागरिक बना दिए हैं जिससे ‘कानून के समक्ष समानता’ का संवैधानिक पहलू गौण हो गया है। कुछ वर्ष पहले पश्चिम बंगाल के शीर्ष पुलिस अधिकारी ने बेधड़क कहा था कि वह समुदाय को देखकर ही हिंसा संबंधी घटनाओं पर कार्रवाई करते या नहीं करते हैं।

राजनीतिक बिरादरी की भी यही स्थिति है। इससे नागरिक समानता का मखौल उड़ता है। यह सब ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को कानूनी तौर पर अस्पष्ट छोड़ देने से ही हुआ। यह भी अभूतपूर्व स्थिति है कि किसी देश में अल्पसंख्यक को वह अधिकार मिलें जो बहुसंख्यक को नहीं हैं। पश्चिमी लोकतंत्रों में ‘माइनॉरिटी प्रोटेक्शन’ का लक्ष्य होता है कि किसी के अल्पसंख्यक होने के कारण उसे किसी अधिकार से वंचित न रहना पड़े जो दूसरों को सहज प्राप्त है। भारत में इस अवधारणा को ही उलट दिया गया है जहां अल्पसंख्यकों के लिए विशेषाधिकारों की बात होती है। यह विकृति भारत में नागरिकों को दो किस्मों में बांट देती है। एक वे जिसके पास दोहरे अधिकार हैं और दूसरे वे जिन्हें एक ही तरह के अधिकार हैं जो पहले के पास भी हैं। यह हमारे देश और समाज के लिए घातक साबित हुआ है जो समाज के कई वर्गों में जहर घोल रहा है।

सच तो यह है कि भारत में इस अवधारणा की जरूरत ही नहीं थी जो यूरोपीय समाजों में नस्लवादी या सामुदायिक उत्पीड़न के इतिहास से पैदा हुई है। जबकि भारत में अंग्र्रेजी राज के दौरान भी ऐसा नहीं था। यहां तो गोरे अंग्रेजों, यानी अल्पसंख्यकों को ही अति-विशिष्ट अधिकार हासिल थे! उससे पहले, मुगल शासन में भी अगर कोई वंचित समुदाय था तो वह बहुसंख्यक हिंदू ही थे जिन्हें जजिया जैसा धार्मिक कर देना पड़ता था। ऐसे में अव्वल तो ‘अल्पसंख्यक संरक्षण’ की अवधारणा ही भारत में मतिहीन होकर अपना ली गई, जिसका कोई संदर्भ यहां नहीं था। फिर भी, जब इसे पश्चिम से ले ही लिया गया तो वहां भी इसका यह अर्थ कतई नहीं कि अल्पसंख्यकों को ऐसे विशेषाधिकार दे दिए जाएं तो कथित बहुसंख्यक के पास न हों। इससे जुड़ी तीसरी गड़बड़ी यह है कि संविधान या कानून में ‘बहुसंख्यक’ का कहीं उल्लेख नहीं है। इस कारण उसका कानूनी तौर पर अस्तित्व ही नहीं है! यह विचित्र विडंबना है, क्योंकि कानून में कोई चीज स्वत: स्पष्ट नहीं होती।

जब लिखित धाराओं के अर्थ पर ही भारी मतभेद होते हैं तब जो अलिखित है उस मोर्चे पर दुर्गति का अनुमान ही लगाया जा सकता है। इसीलिए ‘बहुसंख्यक’ के रूप में कोई कुछ भी समझे, वह हमारे संविधान में कहीं नहीं है। यहां अनेक राजनीतिक, कानूनी गड़बड़ियां इसी कारण पनप रही हैं।

यहां कोई मुस्लिम या ईसाई व्यक्ति भारतीय नागरिक और अल्पसंख्यक, दोनों रूपों में अधिकार रखता है, किंतु एक हिंदू केवल नागरिक के रूप में। बतौर हिंदू वह अदालत से कुछ नहीं मांग सकता, क्योंकि संविधान में हिंदू या बहुसंख्यक जैसी कोई मान्यता ही नहीं है। नि:संदेह, हमारे संविधान निर्माताओं का यह आशय नहीं था, किंतु कुछ बिंदुओं पर ऐसी रिक्तता और अंतर्विरोध के कारण आज यह दुष्परिणाम देखना पड़ रहा है। जैसे, संविधान की धारा 29 अल्पसंख्यक के संदर्भ में धर्म, नस्ल, जाति और भाषा, यह चार आधार देती है। जबकि धारा 30 में केवल धर्म और भाषा का उल्लेख है। तब अल्पसंख्यक की पहचान किन आधारों पर हो? यह अनुत्तरित है। अत: जब तक इसे स्पष्ट न किया जाए, तब तक ‘अल्पसंख्यक’ नाम पर होने वाले सारे कृत्य अनुचित हैं। यह न केवल सामान्य बुद्धि, विवेक एवं न्यायिक दृष्टिकोण, बल्कि संवैधानिक भावना से भी अनुचित हैं।

आज अल्पसंख्यकों के नाम पर जारी मनमानियां संविधान निर्माताओं के लिए अकल्पनीय थीं। वे सभी के लिए समान अधिकारों के हिमायती थे। चूंकि संविधान में अल्पसंख्यकों की परिभाषा अधूरी रह गई जिसका दुरुपयोग कर नेताओं ने अपने हित साधने शुरू कर दिए। यह अन्याय मूलत: सत्ता की ताकत और लोगों की अज्ञानता के कारण होता रहा। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि एक मूल प्रश्न पूरी तरह और आरंभ से ही उपेक्षित है कि बहुसंख्यक कौन है? ऐसे में अल्पसंख्यक की धारणा ही असंभव हो जाती है, क्योंकि ‘अल्प’ और ‘बहु’ तुलनात्मक अवधारणाएं हैं। एक के बिना दूसरा नहीं हो सकता।

इसका सबसे सरल और निर्विवाद समाधान यह है कि संसद में एक विधेयक पारित कर वैधानिक अस्पष्टता दूर कर दी जाए। यह घोषित किया जाए कि संविधान की धारा 25 से 30 में वर्णित अधिकार सभी समुदायों के लिए समान रूप से सुनिश्चित करने के लिए दिए गए थे। यही उनका आशय है। ऐसी कानूनी व्यवस्था से किसी अल्पसंख्यक का कुछ नहीं छिनेगा, बल्कि दूसरों को उनका वह हक मिल जाएगा जो उनसे सियासी छल करके छीन लिया गया। यदि हमारी संसद, सुप्रीम कोर्ट या केंद्रीय मंत्रिपरिषद इसे समाप्त कर दें तो तमाम सामुदायिक भेद-भाव, सांप्रदायिकता और देशघाती, वोट-बैंक राजनीति के खत्म होने का मार्ग खुल जाएगा।

( लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं स्तंभकार हैं )