[डॉ. मनमोहन वैद्य]। मेरे परिचित परिवार की एक छात्र जयपुर में पढ़ती है। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में वह वॉलंटियर के नाते जुड़ी थी। उसने अपना अनुभव बताया कि सभी सत्रों में वक्ताओं में और प्रबंधकों में भी ‘लेफ्ट’ का साफ प्रभाव और वर्चस्व दिखा। मुझे यह जानकर आश्चर्य नहीं हुआ, अपेक्षित था। उसने एक और अनुभव बताया कि उनकी टीम लीडर जो एक वामपंथी एक्टिविस्ट है, ने बातचीत में कहा कि इस बार हमने प्रसिद्ध गीतकार प्रसून जोशी को फेस्टिवल में नहीं बुलाया, क्योंकि वह ‘राइटविंगर’ हो गए हैं।

छात्र ने जब पूछा कि क्या ‘राइटविंगर’ इतना बुरा या खराब है? इस पर टीम लीडर ने कहा कि जब प्रसून जी ने ‘रंग दे बसंती’ फिल्म के लिए गीत लिखे तब तो ठीक था, कारण उसमें क्रांति की बात थी, पर अब उन्होंने ‘मणिकर्णिका’ के लिए गीत लिखे हैं। उस छात्र ने पूछा कि इसमें आपत्तिजनक क्या है? वामपंथी एक्टिविस्ट का जवाब था, इस देश में फिल्म, लिटरेचर, ड्रामा, गीत इन सब की शुरुआत ‘लेफ्ट’ से ही हुई है। अन्य किसी का ये काम नहीं है। अब लिट-फेस्ट में किसको बुलाना और किसको नहीं, यह आयोजकों का अधिकार है।

दो वर्ष पूर्व मेरा और दत्तात्रेय होसबाले जी का जेएलएफ के लिए निमंत्रण वामपंथियों के घोर विरोध के बावजूद भी कायम रखना या इस वर्ष रमेश पतंगे जी को आमंत्रित करना, यह आयोजकों का निर्णय है। इस वर्ष भी आयोजकों ने प्रसून जोशी जी को वाम विरोध के बावजूद निमंत्रित किया, पर स्वास्थ्य कारणों से उन्हें अपने आने का कार्यक्रम रद करना पड़ा, किंतु वामपंथी सोच यदि यह है कि अब प्रसून जोशी जी को इस कारण नहीं बुलाना चाहिए, क्योंकि ‘मणिकर्णिका’ के लिए गीत लिखकर वे ‘राइटविंगर’ हो गए हैं तो यह वैचारिक संकुचितता अभारतीय है।

यह विसंगति ध्यान देने योग्य है कि अहंकार और अनुदार वृत्ति वामपंथ का स्थाई चरित्र है, किंतु ये लोग अपने आप को उदार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के रक्षण कर्ता आदि कहते नहीं अघाते। अधिकतर वामपंथी दूसरों के पक्ष को सुनना भी निषिद्ध या पाप मानते हैं। इसलिए जयपुर लिट फेस्ट में जब दो वर्ष संघ के पदाधिकारियों को बुलाया गया था तो इन वामपंथियों का ग़ुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था।

जिस संघ का जनसमर्थन और जनसहभाग अनेक विरोध और अवरोधों के बावजूद अपने कार्यकर्ताओं के बलबूते लगातार बढ़ रहा है उस संघ को अपनी बात रखने का मौका देने का विरोध ऐसे असहिष्णु वामपंथी नेता कर रहे थे जिनका जनाधार लगातार घट रहा है। दूसरों की बात सुनना या समझने का प्रयास करना उसे स्वीकार करना नहीं होता, परंतु इन अलोकतांत्रिक विचारों के असहिष्णु लोगों की दुनिया में वामपंथी विचारों के सिवाय अन्य विचार के लिए स्थान ही नहीं दिखता। इसीलिए सीताराम येचुरी और उनके कुछ वामपंथी नेताओं ने जयपुर लिटफेस्ट का इसलिए बहिष्कार कर दिया था कि आयोजकों ने संघ के लोगों को बुलाया।

फिल्मकार एवं लेखक विवेक अग्निहोत्री ने ‘अर्बन नक्सल्स’ नामक पुस्तक में लिखा है कि ‘बुद्धा इन ट्रैफिक जाम’ फिल्म की स्क्रीनिंग के लिए जब वह जादवपुर यूनिवर्सिटी गए तो वहां उनका विरोध हुआ, उनकी कार में तोड़-फोड़ हुई, उन पर भी शारीरिक हमला हुआ। यह हिंसक विरोध करने वाली सभी वामपंथी छात्रएं थीं। उनका नारा था ‘ब्लडी फासिस्ट ब्राह्मण वापस जाओ’। विवेक अग्निहोत्री जब तक साम्यवाद का विरोध नहीं कर रहे थे तब तक वे एक प्रतिष्ठित फिल्म निर्माता थे, कलाकार थे, लेकिन नक्सलियों का पर्दाफाश करते ही वे ‘ब्लडी, फासिस्ट और ब्राह्मण’ हो गए।

उन आंदोलनकारियों से अग्निहोत्री ने कहा कि ‘मैं अपनी फिल्म दिखाने आया हूं। आपको नहीं देखनी है तो मत देखिए।’ इस पर कहा गया, ‘आप यहां कोई फिल्म कभी भी नहीं दिखा सकते, यहां किसी दूसरे विचार के लिए स्थान ही नहीं है।’ यह प्रसंग मार्च 2016 का है। वापस टीम लीडर के बयान पर लौटते हैं। ध्यान दीजिए कि प्रसून जोशी ने ‘मणिकर्णिका’ फिल्म के लिए कौन-सा गीत लिखा है? उस गीत के शब्द हैं, ‘मैं रहूं या ना रहूं, भारत ये रहना चाहिए।’

यह इतना सुंदर गीत है कि हर भारतीय के मन में देशभक्ति की भावनाओं का उभार आए बिना नहीं रहेगा। इसमें किसी को भी आपत्ति क्यों होनी चाहिए, किंतु वामपंथियों को आपत्ति है? उन्हें ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह इंशा अल्लाह’ या ‘भारत की बर्बादी तक जंग चलेगी, जंग चलेगी’ जैसे नारों पर आपत्ति नहीं होती। जाहिर है वामपंथियों को ‘भारत माता की जय’ का नारा भी फासिस्ट विचारों की अभिव्यक्ति ही लगता है।

सेमिटिक मूल के सभी रिलिजन या विचार प्रवाहों की यह विशेषता है कि मेरा ही ‘सच’ सच है। बाकी सब झूठ है। वे हमारे ‘सच’ के साथ आते हैं तो ठीक है, वरना उन्हें सोचने का, बोलने का, अभिव्यक्ति का, यहां तक कि जीने का भी अधिकार नहीं है। यह असहिष्णुता, अनुदारता पूर्णत: अभारतीय है। भारत का विचार अध्यात्म आधारित होने के कारण ही सर्वसमावेशी और उदार है।

1897 में स्वामी विवेकानंद जब भारत और हिंदुत्व का अमेरिका और यूरोप में डंका बजाकर, गौरव बढ़ाकर भारत वापस आ रहे थे तब इंग्लैंड से प्रस्थान के पूर्व एक अंग्रेज मित्र ने पूछा था, ‘विकासमान, ऐश्वर्यशाली और शक्तिमान पाश्चात्य देशों में चार वर्षो का अनुभव लेने के बाद अब आपको अपनी मातृभूमि कैसे लगेगी?’ इस पर उनका उत्तर बड़ा ही मार्मिक था, ‘स्वदेश छोड़कर आने के पूर्व मैं भारत से केवल प्रेम ही करता था, परंतु अब मेरे लिए भारत की वायु, यहां तक कि भारत का प्रत्येक धूलिकण स्वर्ग से भी अधिक पवित्र है। भारत-भूमि पवित्र भूमि है। वह मेरी मां है। भारत मेरा तीर्थ है।’

..जैसे ही दूर से भारत का समुद्र-तट दिखाई पड़ा, उनके नयनों से अश्रु की धारा बह चली। हाथ जोड़कर वह उस तट की ओर देखते रहे, मानो साक्षात भारत मां का दर्शन कर रहे हों। जहाज किनारे पर लगते ही स्वामी जी डेक से नीचे उतरे और भारत भूमि पर पैर रखते ही साष्टांग प्रणाम कर उस धूल में इस प्रकार लोटने लगे मानो वर्षो बाद कोई बच्चा अपनी मां की गोद में पहुंचा हो। बार-बार वह भूमि को नमन करते और उसकी जय-जयकार करते जाते। जन-समुदाय इस दृश्य को देखकर आत्म-विभोर हो उठा।

प्रश्न उठता है कि भारत में जन्म लेकर, भारत की ही भूमि का अन्न, जल, वायु भक्षण कर, भारत के कर दाता द्वारा पोषित उच्च शैक्षिक संस्था में पढ़कर ऐसी एक जमात फल-फूल क्यों रही है जिसे भारत तेरे टुकड़े होंगे या भारत की बर्बादी जैसा नारा तो मंजूर है, पर ‘मैं रहूं या ना रहूं, भारत ये रहना चाहिए’ से चिढ़ है? भारत के देशभक्त लोगों के लिए सोचने का समय आया है।

इस ‘अभारतीय’ सोच को अपने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए प्रोत्साहन या संरक्षण देने या वामपंथी विचारकों को अपनी दलीय बौद्धिक गतिविधि ‘आउटसोर्स’ करने वाले राजनीतिक दल समय रहते यह धोखा समझ लें नहीं तो भारत की देशभक्त जनता को ऐसे दलों के बारे में सोचने हेतु बाध्य होना पड़ेगा।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह हैं)