राज कुमार सिंह: भाजपा सत्ता की लड़ाई तो हिमाचल प्रदेश में भी हारी थी, लेकिन दक्षिण भारत में अपना एकमात्र दुर्ग कर्नाटक गंवाने का राजनीतिक झटका उसके लिए ज्यादा बड़ा है-वह भी अगले लोकसभा चुनाव से बमुश्किल साल भर पहले। कोई और दल होता तो उसकी उलटी गिनती शुरू हो जाती और वह हताशा के गहरे सागर में डूब जाता। यह मानना सच से मुंह फेरना ही होगा कि कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के हाथों मिली करारी शिकस्त से भाजपा चिंतित नहीं है। कुछ लोगों ने उसकी उलटी गिनती का गणित भी समझाना शुरू कर दिया है, पर भाजपा और उसकी राजनीति अन्य दलों से इसलिए भी अलग है कि न तो एक जीत पर वह आत्ममुग्ध होकर हवा में उड़ने लगती है और न ही एक हार से हताशा के गहरे सागर में डूब जाती है।

जीत हो या हार, भाजपा अगले चुनावी रण के लिए उठ खड़े होने में समय नहीं गंवाती। इसे संयोग भी कह सकते हैं कि कर्नाटक में करारी हार के बावजूद नरेन्द्र मोदी सरकार की नौवीं वर्षगांठ ने भाजपा को जश्न का अवसर भी उपलब्ध करा दिया है। ऐसे अवसरों के सही उपयोग में तो भाजपा सिद्धहस्त है ही। इसलिए हार की हताशा को उतार फेंक भाजपा जश्न में जुट गई है। जाहिर है इस जश्न के बीच इस साल के आखिर में होने वाले विधानसभा और फिर अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की हुंकार भी सुनाई देगी ही। मोदी सरकार की आठवीं वर्षगांठ पर पिछले साल भाजपा ने सेवा, समर्पण और सुशासन पखवाड़ा मनाया था। सरकार की उपलब्धियों के बखान का वह सिलसिला 15 दिन तक चला था।

अगले लोकसभा चुनाव से पहले वर्तमान सरकार की यह आखिरी वर्षगांठ है। इसलिए भाजपा ने इसे सुनियोजित ढंग से एक महीने तक मनाने की रणनीति बनाई है। कोरोना काल में हताशा के घने कोहरे के बीच प्रधानमंत्री मोदी ने आपदा को अवसर में बदलने का आह्वान किया था। दरअसल वह जानते हैं कि सफल वही होता है, जो आपदा में भी अवसर तलाशने का सोच और सामर्थ्य रखता है।

पिछले साल हिमाचल प्रदेश की सत्ता फिसलकर कांग्रेस के हाथ में चली जाने के बाद इसी महीने कर्नाटक में मिली करारी हार का राजनीतिक संदेश और सबक समझने में भाजपा और उसका सिद्धहस्त चुनावी रणनीतिकार नेतृत्व तो कोई गलती नहीं कर सकता। हिमाचल और कर्नाटक ने अभी तक सफल रही आक्रामक भाजपाई चुनावी रणनीति की सीमाएं उजागर कर दी हैं तो कांग्रेस को एकजुट होकर स्थानीय मुद्दों और नेतृत्व पर मुफ्त के वादों के साथ चुनाव लड़ने का त्रिसूत्रीय विजयी-फार्मूला भी सुझा दिया है। इससे न सिर्फ खस्ताहाल कांग्रेस फिर से उठ खड़ी होने को प्रेरित हुई है, बल्कि विपक्षी एकता की कवायद को भी पंख लग गए हैं।

कांग्रेस के साथ तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, बीआरएस और सपा जैसे क्षेत्रीय दलों के अंतर्विरोध बरकरार हैं। दलगत हितों का परस्पर टकराव भी है ही, लेकिन विपक्ष को लगता है कि अगर वह एकजुट हो कर अगला लोकसभा चुनाव लड़े तो मोदी के विजय रथ को रोका जा सकता है। एक नहीं, कई बार भाजपा से दोस्ती रखने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार विपक्षी एकता के लिए कांग्रेस के दूत बनकर राज्य-राज्य घूम रहे हैं।

स्पष्ट अंतर्विरोधों तथा ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्र के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी की तटस्थ राजनीति के चलते विपक्षी एकता का ऊंट किस करवट बैठ पाएगा, यह तो समय ही बताएगा। हालांकि, उससे पहले ही भाजपा ने इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों सहित अगले लोकसभा चुनाव के लिए अभी से रणनीति बना ली है। मोदी सरकार की नौवीं वर्षगांठ के अवसर को इसके लिए चुना गया है। एक महीने तक चलने वाले इस जश्न में भाजपा न तो मोदी सरकार की उपलब्धियां गिनाने में कोई कसर छोड़ेगी और न ही अपनी चुनावी रणनीति को अंतिम रूप देने में।

इससे पहले भी केंद्र अथवा राज्यों में सरकारें वर्षगांठ मनाती रही हैं, लेकिन प्रेस कांफ्रेंस अथवा रैली के जरिये अपनी उपलब्धियों का बखान करके। यह मोदी सरकार और भाजपा की ही शैली है कि वह हर अवसर को इतने लंबे उपलब्धिपूर्ण समारोह में बदल देती है कि उसका शोर चहुंओर सुनाई दे। इसलिए मोदी सरकार की नौवीं वर्षगांठ पर केंद्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य ही नहीं, बल्कि भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री, जहां भाजपा विपक्ष में है वहां नेता प्रतिपक्ष और अन्य वरिष्ठ नेता एक साथ प्रेस कांफ्रेंस करेंगे।

स्वयं मोदी किसी राज्य में बड़ी रैली कर एक माह तक चलने वाले मेगा जनसंपर्क अभियान की शुरुआत करेंगे। इसके साथ वह देश में 10 लाख से ज्यादा बूथों पर कार्यकर्ताओं को वीडियो कांफ्रेंसिंग के माध्यम से संबोधित भी करेंगे। भाजपा की रणनीति करीब 400 लोकसभा क्षेत्रों में अभी से मतदाताओं से संपर्क-संवाद बनाना है। ये वे सीटें हैं, जहां भाजपा का अच्छा-खासा जनाधार है। ध्यान रहे कि पिछले चुनाव में भाजपा अकेले दम पर 303 सीटें जीतने में सफल रही थी। कहना नहीं होगा कि विपक्षी एकता की कवायद के बीच ही ऐसी सघन चुनावी रणनीति का लाभ भाजपा को इस बीच होने वाले विधानसभा चुनावों में भी मिल सकता है।

अगले साल लोकसभा चुनाव से पहले इसी साल पांच महत्वपूर्ण राज्यों में विधानसभा चुनाव भी होने हैं। इनमें से तीन राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा-कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होगा। चौथे राज्य तेलंगाना में के. चंद्रशेखर राव की सरकार है, जहां कांग्रेस-भाजपा किसी बड़े उलटफेर की स्थिति में फिलहाल तो नजर नहीं आतीं। लोकतंत्र में अंतिम फैसला तो जनता जनार्दन का ही होता है, लेकिन ऐसी निरंतर सक्रियता और लक्षित चुनावी रणनीति भाजपा को निश्चय ही अन्य दलों से अलग पहचान देती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)