[कुलदीप नैयर]। राष्ट्र के इतिहास में कई तिथियां इतनी महत्वपूर्ण होती हैं कि उन्हें भुलाया नहीं जा सकता है। ऐसी ही एक तारीख 25 जून 1975 है, जब कांग्रेस की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने लोकतंत्र की रोशनी बुझा दी थी। चुनाव में अवैध तरीके अपनाने के मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला अपने खिलाफ आने पर उन्होंने संविधान स्थगित कर दिया और इसके बाद तमाम ज्यादतियां कीं। एक लाख से अधिक लोगों को बिना सुनवाई के हिरासत में रखा गया और कई लोग मार दिए गए या फिर गायब कर दिए गए, क्योंकि वे इंदिरा गांधी के कट्टर विरोधी थे। काफी देर बाद कांगे्रस पार्टी जिसका नेतृत्व इंदिरा गांधी किया करती थीं, ने उस काले आपातकाल को थोपने के लिए खेद व्यक्त किया जिसमें कोई व्यक्तिगत आजादी नहीं थी और

पे्रस को भी खामोश कर दिया गया था।

कायदे से पार्टी को काफी पहले ही माफी मांगनी चाहिए थी। कांगे्रस अध्यक्ष राहुल गांधी 43 साल पहले जो हुआ उसे ठीक तो नहीं कर सकते, लेकिन कम से कम राष्ट्र से यह कह सकते हैं कि उनकी दादी इंदिरा गांधी और पार्टी, दोनों गलत थे। जब मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार सत्ता में आई तो देश के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस जेसी शाह ने आपातकाल की ज्यादतियों की जांच की और इंदिरा गांधी के विरोधियों समेत अन्य लोगों पर की गई ज्यादतियों को उजागर किया।

शाह कमीशन की रिपोर्ट एक ऐसा मूल्यवान दस्तावेज है जिससे कई सबक सीखे जा सकते हैं। इसे स्कूल और कॉलेज की पाठ्यपुस्तकों का हिस्सा बनाना चाहिए कि आपातकाल के 21 महीनों में देश को किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, लेकिन अभी भारत की किताबों में मुस्लिम शासकों को लेकर इतने पूर्वाग्रह हैं कि इतिहासकारों ने उनकी आलोचना की है। वास्तव र्में हिंदुत्व की सनक ने देश के हर राज्य को अपनी गिरफ्त में ले लिया है। लगता है कि नौकरशाही का भी भगवाकरण हो गया है। संविधान अभी भी एक पवित्र ग्रंथ है, लेकिन मुझे डर है कि 2019 के चुनावों में भारतीय जनता पार्टी तिहाई बहुमत पाने का प्रयास करेगी और अगर उसे यह बहुमत मिल जाता है तो वह संविधान को बदल देगी। जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाली धारा 370 और अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान करने वाली विविधता की भावना उसके निशाने पर होगी। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राजनीतिक शाखा के रूप में भारतीय जनता पार्टी सेक्युलरिज्म की सोच को कमजोर करने की कोशिश करेगी।

आपातकाल में जो हुआ वह संविधान के बुनियादी ढांचे को संशोधन के दायरे से बाहर मानने वाले आजादी के योद्घाओं और साथ ही संविधान निर्माताओं का अपमान था, लेकिन राष्ट्रपति के एक आदेश के सहारे इंदिरा गांधी ने चुनाव और नागरिक अधिकारों को स्थगित कर दिया। उस अवधि में गिरफ्तार किए गए उनके राजनीतिक विरोधियों को जेल में यातना दी गई और हजारों को प्रताड़ित किया गया। अन्य अत्याचार भी हुए जिसमें उनके बेटे संजय गांधी के नेतृत्व में चले लाखों लोगों की सामूहिक नसबंदी भी शामिल है।

आपातकाल में हुई ज्यादतियों की जांच के लिए बने शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट तीन भागों में दी। अंतिम भाग वाली रिपोर्ट अगस्त 1978 में सौंपी गई। अगर इस रिपोर्ट के सिर्फ आकार को ही लिया जाए तो इसके छह अध्याय, 530 पेजों में दिए गए तीन अनुबंध लोकतांत्रिक संस्थाओं और नैतिक मूल्यों के साथ हुर्ई हिेंसा की तीव्रता को दर्शाते हैं। यह रिपोर्ट शासन व्यवस्था के साथ की गई छेड़छाड़ और उसे पहुंचाए गए नुकसान पर चिंता भी व्यक्त करती है। जस्टिस शाह ने दिल्ली के तुर्कमान गेट की घटना जिसमें मकान गिराने की कार्रवाई के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन करने वाली भीड़ पर पुलिस ने गोली चलाई थी, में पुलिस की कार्रवाई और संजय गांधी की भूमिका पर भी चर्चा की थी, लेकिन 1980 में सत्ता में वापस आने पर इंदिरा गांधी ने जहां-जहां से भी संभव हुआ वहां-वहां से यह रिपोर्ट हटवा ली। यह रिपोर्ट उन्हें इतना नुकसान पहुंचाने वाली थी कि उन्होंने उसे दबाने के लिए अपने हर दांव का इस्तेमाल किया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। डीएमके के संस्थापक सदस्यों में से एक और उस समय के सांसद इरा सेझियन ने उस रिपोर्ट की प्रति किताब की शक्ल में फिर से प्रकाशित की, जिसका नाम था-खोई और ढूंढ़ निकाली गई शाह कमीशन रिपोर्ट। इसमें उन्होंने यह ठीक ही कहा था कि यह सिर्फ एक जांच रिपोर्ट नहीं है। यह एक शानदार ऐतिहासिक दस्तावेज है जो भविष्य में सत्ता में आने वालों को सावधान करता है कि वे एक गतिशील लोकतंत्र के बुनियादी ढांचे से छेड़छाड़ न करें।

यह रिपोर्ट निरंकुश शासन से दबे लोगों को भी आजादी वापस पाने के लिए दिलो-जान से संघर्ष करने की आशा भरी राह भी दिखाती है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है कि आपातकाल में सबसे ज्यादा तकलीफें सहने वाली भारतीय जनता पार्टी ने वह सबक सीखा है जो उसे सीखना चाहिए था। इंदिरा गांधी पर एक व्यक्ति के शासन की सनक सवार थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के निर्देश पर उसी घोड़े पर सवार हैं और राष्ट्र को एक खास मायने देने वाले विविधता से भरे समाज को बदलना चाहते हैं। वास्तव में लोग नरेंद्र मोदी के शासन की तुलना श्रीमती गांधी के शासन से करने लगे हैं। यह इस हद तक है कि ज्यादातर अखबार और टेलीविजन चैनलों ने सोच में न सही, अपनी कार्यशैली में उनके हिसाब से अपने को बदल लिया है जैसा उन्होंने इंदिरा गांधी के शासन में किया था। वयोवृद्ध भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कुछ समय पहले कहा था कि आपातकाल को दोहराए जाने की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता। उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के शासन के तरीके की हंसी उड़ाते हुए कहा था कि नेताओं का अहंकार तानाशाही की ओर ले जाता है। दुर्योग देखिए कि आडवाणी को झिड़की देने के लिए भाजपा ने उन्हें उस कार्यक्रम में आमंत्रित नहीं किया जिसमें आपातकाल के दौरान जेल जाने वालों

को सम्मानित किया गया था।

भाजपा ने जम्मू कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती को जिस तरह झटका दिया वह यही साबित करता है कि इस पार्टी के अगले कदम के बारे में कुछ भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। पार्टी ने उन्हें बताए बगैर समर्थन वापस ले लिया। इसके चलते राज्य में राष्ट्रपति शासन अनिवार्य हो गया। नेशनल कांफ्रेंस के नेता एवं पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने वर्तमान परिस्थितियों के लिए उचित ही भाजपा और पीडीपी, दोनों को जिम्मेदार बताया है। वास्तव में ज्यादातर विपक्षी नेताओं की भावना यही थी कि यह गठबंधन होना ही नहीं चाहिए था। उम्मीद करें कि 2019 के लोकसभा चुनावों में किसी एक पार्टी को बहुमत मिले, लेकिन सतह पर ऐसा दिखाई नहीं देता। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के साथ समझ से बाहर आने वाली खींचतान की जा सकती है। ऐसी हालत को टाला जाना चाहिए।

(आपातकाल के खिलाफ मुखर रहे लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)