जगमोहन सिंह राजपूत। जब भी कोई सतर्क और सजग नागरिक बिना किसी पूर्वाग्रह के देश की वर्तमान सामाजिक, राजनीतिक और प्रशासनिक परिस्थितियों पर विश्लेषण करता है तो कुछ चिंताएं स्वत: ही उभरती हैं। नैतिकता का वह दौर चला गया, जब केशव देव मालवीय, लालबहादुर शास्त्री जैसे लोगों ने केंद्रीय मंत्रिमंडल से नैतिक आधार पर इस्तीफा दे दिया था। अब ऐसा आचरण केवल इतिहास बनकर रह गया है। मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए एक ने अध्यापकों की अपनी सूची बनाकर नियुक्तियां कर दीं तो एक ने विदेश में खदानें खरीद लीं। चारा घोटाला अपने-आप में अनोखा ही था। हालांकि इन तीनों में जनप्रतिनिधियों को सजा मिली, लेकिन अनगिनत ऐसे प्रकरण हैं जिनमें संलिप्त लोगों के चेहरे पर शिकन भी दिखाई नहीं देती। वे अभी भी सम्माननीय नेता बने हुए हैं।

ताजा उदाहरण महाराष्ट्र का है, जहां के दो नामी-गिरामी मंत्रियों को भ्रष्टाचार के आरोप में जेल जाना पड़ा। इनमें से एक प्रदेश के गृह मंत्री थे। पिछले छह दशकों पर दृष्टि डाली जाए तो देश में ‘चोरी और सीनाजोरी’ के अनेक ऐसे प्रकरण उद्घाटित होंगे। अपेक्षा तो यही थी कि चयनित प्रतिनिधि जनसेवक होंगे, जनता की समस्याओं के समाधान को जीवन का लक्ष्य बनाएंगे और न्यायालय के निर्णय का अक्षरश: पालन करेंगे एवं कराएंगे, लेकिन असल में हो क्या रहा है? उत्तर प्रदेश में न्यायालय के निर्देशों पर लाउडस्पीकर विवाद का हल सहमति से व्यावहारिक रूप में निकाल लिया गया। महाराष्ट्र और राजस्थान में राज्य सरकारें इसका समाधान निकालने में कोई रुचि नहीं दिखा रही हैं। जन प्रतिनिधियों से यह अपेक्षा तो की ही जा सकती है कि उनकी बौद्धिक क्षमता स्वार्थ रहित और इतनी समर्थ होगी कि वे संविधान और उसके आत्मा को समझ सकें तथा न्यायालय के निर्णय का सम्मान कर सकें।

सड़कों पर उतरे नवाब मलिक के समर्थक। प्रेट्र

यह जानकर आज की युवा पीढ़ी को आश्चर्य होगा कि स्वतंत्रता संग्राम के तपे हुए सेनानियों ने अपनी दूरदृष्टि से इस सबका अनुमान लगा लिया था। संविधान सभा में हुईं बहसें इसे साबित करती हैं। सभी जानते हैं कि बाबा साहब भीमराव आंबेडकर भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति से भलीभांति परिचित थे। उन्होंने इसका अध्ययन अत्यंत लगन और कर्मठता से किया। वह सामाजिक कुरीतियों के स्वयं भुक्तभोगी रहे थे। 26 नवंबर, 1949 को संविधान निर्माण का कार्य पूर्ण हुआ। डा. आंबेडकर का उस दिन का भाषण अनेक अवसरों पर याद किया जाता है। उन्होंने कहा था, ‘यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे, देश का कल्याण उस रीति पर निर्भर करेगा, जिसके अनुसार देश का प्रशासन संचालित किया जाएगा। एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है, उसे वैसी ही सरकार प्राप्त होती है। आज के बाद देश का कार्य स्वतंत्रता प्राप्त करने के अद्भुत और अद्वितीय कार्य से भी कठिन होगा। मैं यही आशा करूंगा कि वे सब लोग जिन्हें भविष्य में इस संविधान को कार्यान्वित करने का सौभाग्य प्राप्त होगा, वे याद रखेंगे कि ..इसकी रक्षा करना, इसको बनाए रखना और जनसाधारण के लिए इसको उपयोगी बनाना उन पर ही निर्भर करता है।’

जब निर्वाचित जनसेवक ही संविधान के मूल तत्वों से किनारा कर लें, तब प्रशासनिक अधिकारियों से नैतिकता और चरित्र बल की कितनी अपेक्षा की जा सकती है। क्या यह अत्यंत कष्टकर स्थिति नहीं है कि झारखंड में एक आइएएस अधिकारी के करीबी के घर से 17.79 करोड़ की नकदी बरामद की गई। इस प्रकार के अनेक मामले निरंतरता के साथ उद्घाटित होते रहते हैं। भोपाल गैस त्रसदी में निराश्रित बच्चों के लिए आवंटित धनराशि के दुरुपयोग में दो आइएएस अधिकारियों की संलिप्तता सिद्ध हुई थी। आय से अधिक संपत्ति से जुड़े प्रकरण अनेक अवसरों पर उभरते तो हैं, लेकिन बाद में कहीं खो जाते हैं। ऐसी स्थिति कैसे बन रही है? इसका उत्तर सहज नहीं है। इसे समझने में संविधान सभा की बहसें अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती हैं। उन्हें आज के समय में पढ़ने पर लगता है कि अधिकांश सदस्यों की दूरदृष्टि कितनी सटीक और निर्मल थी। स्वतंत्रता सेनानी महावीर त्यागी के उस भाषण को याद करना समीचीन होगा, जो उन्होंने संविधान सभा के सदस्य के रूप में 25 नवंबर, 1949 को दिया था। संविधान निर्माण की पूर्णता पर पहुंचने की तुलना एक साकार चित्र से करते हुए उन्होंने कहा था, ‘हम सबने इसे मिलकर बनाया है। इसे सदिच्छा से भावी पीढ़ी को समर्पित कर देना चाहिए।’

त्यागी जी के शब्दों में, मैं इसकी प्रशंसा करता हूं, फिर भी एक बात है जिसका मुङो बड़ा भय है और वह यह कि इस संविधान में वृत्ति भोगी राजनीतिज्ञों का एक वर्ग उत्पन्न करने की प्रवृत्ति दिखती है।’ त्यागी जी चाहते थे कि संविधान में एक सर्वोच्च उपबंध या रक्षा कवच परंतुक के रूप में लगा दिया जाए। उनके अनुसार, ‘इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी भारत का कोई भी नागरिक लोक निधि या गैर सरकारी उद्यम से अपने स्वयं के प्रयोग के लिए इतना वेतन लाभ या भत्ता नहीं लेगा, जो एक औसत श्रमभोगी की आय से अधिक हो।’ भारत की संस्कृति के जीवंत चरित्र पर विश्वास रखकर यह कहा जा सकता है कि युवा पीढ़ी के लिए ऐसे लक्ष्य प्राप्त करना असंभव नहीं होगा।

(लेखक सामाजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षाविद् हैं)