प्रो. गोविंद सिंह। हिंदी दिवस के अवसर पर गृह मंत्री अमित शाह ने अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी को भी अपनाने की बात क्या कही, ऐसा लगा जैसे उन्होने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया। दक्षिण में स्टालिन और कुमारस्वामी से लेकर पूर्व में ममता बनर्जी और इस्लाम के नाम पर राजनीति करने वाले नेता असदुद्दीन ओवैसी तक सभी केंद्र सरकार को कोसने लगे। उन्हें लगा कि सस्ते में अपनी राजनीति की रोटियां सेंकने का वक्त आ गया है। पता नहीं कि अमित शाह की ओर से अपनी बात स्पष्ट करने के बाद हिंदी विरोध की राजनीति थमती है या नहीं, लेकिन इसे हिंदी का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि हिंदी दिवस पर हिंदी के हित में की गई बात भी लोगों को स्वीकार नहीं। 

राजनीति का शिकार हिंदी 

वास्तव में हिंदी को जब-जब बढ़ाने के प्रयास होते हैं वह राजनीति की शिकार हो जाती है। विरोध के स्वरों में से इस बार दो बातें प्रमुखता से उभर कर आईं। पहली तो यह कि हिंदी जैसे हिंदुओं की भाषा है। ओवैसी ने कहा कि देश हिंदी, हिंदू और हिंदूत्व से ऊपर है। शायद वह भारतीय जनसंघ के उस पुराने नारे को याद करना चाह रहे थे, जिसमें हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान की बात की जाती थी। हालांकि गृहमंत्री के हिंदी दिवस के भाषण से ऐसी कोई भी ध्वनि नहीं निकल रही थी, लेकिन फिर भी ओवैसी जैसे नेताओं को टीवी चैनलों की फुटेज तो मिल ही गई। ओवैसी जिस हिंदी को सिर्फ हिंदुओं की भाषा बता रहे हैं उसका नामकरण अमीर खुसरो ने किया था। रसखान, रहीम और जायसी जैसे महान कवियों की हिंदू सेवा को वह कैसे भुला सकते हैं?

मजहब के बजाय भूगोल की द्योतक हिंदी

हिंदी मजहब के बजाय भूगोल की द्योतक ज्यादा रही है। उसे हं हिंदुस्तानी लोगों की भाषा कहना ज्यादा प्रासंगिक है। दुर्भाग्य से ओवैसी उन अंग्रेजों की बोली बोल रहे हैं, जिन्होंने हिंदी और उर्दू को मजहबी आधार पर बांटकर फूट डालने का काम किया था। 1842 से पहले संयुक्त प्रांत की राजभाषा फारसी हुआ करती थी। अंग्रेजों ने पहले हिंदी और उर्दू, दोनों को राजभाषा का दर्जा दिया। फिर कुछ ही वर्षो बाद दोनों के बीच फूट डालने के मकसद से सिर्फ उर्दू को राजभाषा बना दिया। इससे दोनों के बीच झगड़ा बढ़ गया। धीरे-धीरे उन्होने यह स्थापित कर दिया कि हिंदी और उर्दू का रिश्ता हिंदू और मुस्लिम समुदायों से है। राष्ट्रभाषा को लेकर 1928 में कांग्रेस पार्टी की तरफ से मोतीलाल नेहरू समिति ने जो रिपोर्ट दी उसमें भी हिंदुस्तानी को राष्ट्रभाषा बनाने की पैरवी की गई थी, जिसका मुस्लिम लीग ने कड़ा विरोध किया।

 बाद के वर्षो में मुस्लिम लीग ने अपना विरोध और तीखा कर दिया। जब पाकिस्तान बना तो वहां पंजाबी, सिंधी, पश्तो, बलोची और सराइकी के ऊपर उर्दू थोप दी गई। यही काम शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में किया। डोगरी, कश्मीरी, लदाखी और बलती पर उर्दू को थोप दिया, लेकिन इस तरह के फैसले बहुत दूर तक नहीं चलते। सच बात यह है कि हिंदी और उर्दू के बीच कोई झगड़ा है ही नहीं। झगड़ा है तो देवनागरी और नशतालिक (अरबी) लिपियों के बीच। ओवैसी जैसे लोगों को कौन समझाए कि लिपियां भाषा नहीं होतीं। वे भाषा को व्यक्त करने का जरिया भर होती हैं। इसलिए तमाम पश्चिमी देशों में हिंदूी और उर्दू को दो लिपियों में लिखी जाने वाली एक भाषा कहा जाता है। अमेरिका के एक विश्वविद्यालय में इस संबंध में एक प्रोजेक्ट भी चल रहा है-हिंदी-उर्दू फ्लैगशिप।

हिंदी को लेकर उठी चिंता

दुर्भाग्य से हमारे पास ऐसे नेता हैं जो एकता की हर डाल को काट डालना चाहते हैं। हिंदी विरोध के स्वरों के बीच एक चिंता यह उठी कि हिंदी अन्य भाषाओं को खा जाएगी। दक्षिण भारत के नेताओं को यही चिंता सताती रहती है। 1965 में भी जब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री हिंदू को राजभाषा के तौर पर देश भर में लागू करना चाहते थे तब भी इसी चिंता के सहारे हिंदी को ठंडे बस्ते में डाल देना पड़ा था। दरअसल जब संविधान में हिंदी को राजभाषा बना दिया गया तब यह दुमछल्ला भी साथ में जोड़ दिया गया कि 15 वर्ष तक अंग्रेजी जारी रहेगी। 26 जनवरी 1965 को 15 वर्ष पूरे हो गए।

लाल बहादुर शास्त्री संविधान के उक्त फैसले को लागू करना चाहते थे, लेकिन जैसे ही दक्षिण के नेताओं को इसकी भनक लगी तो उन्हें लगा कि राजनीति चमकाने का सही वक्त आ गया है। द्रविड़ आंदोलन के सबसे बड़े नेता अन्नादुरई ने हिंदी विरोधी आंदोलन को हवा दी और वह भड़क गया। दक्षिण और पूर्वी प्रांतों के जिन कांग्रेसी नेताओं ने 1949 में हिंदी को राजभाषा बनाने की वकालत की थी वे भी इसके विरोध में आ गए। तब मोरारजी देसाई ने कहा था, हिंदी ही भारत में संपर्क भाषा का काम कर सकती है, क्योंकि अंग्रेजी हमारी अपनी भाषा नहीं है। मोरारजी ने इस पर जोर दिया था कि राष्ट्रीय एकता को मजबूत करने वाले इस कदम के रास्ते में कोई भी क्षेत्रीय भावना नहीं आनी चाहिए।

दरअसल, भाषा पर राजनीति करने वाले नेता और अंग्रेजीदां बुद्धिजीवी लगातार यह भ्रम फैलाते रहे हैं कि हिंदी आ जाएगी तो अन्य क्षेत्रीय भाषाएं विलुप्त हो जाएंगी, जबकि हिंदी का झगड़ा इन भाषाओं से है ही नहीं। उसका झगड़ा तो अंग्रेजी की अवैध सत्ता से है, जो सात दशकों से कब्जा जमाए हुए है। आश्चर्य यह है कि किसान-मजदूर की बात करने वाले वामपंथी भी हिंदी विरोध की हवा बनाने में पीछे नहीं रहते, जबकि हिंदी की बात तो राष्ट्रीय स्तर पर होती है। प्रादेशिक स्तर पर आप अपनी भाषा को बढ़ाते रहिए, किसने रोका है? मातृभाषा तो वैसे भी सबसे अहम है।

आखिर उसे कैसे नकारा जा सकता है? उद्यमी एवं तकनीकी विशेषज्ञ संक्रांत सानु ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि ज्ञान-विज्ञान और आर्थिक तरक्की में वे ही देश आगे हैं जिनकी शिक्षा अपनी मातृभाषा में है। क्या वजह है कि अंग्रेजी के पीछे इतना भागते हुए भी हमारा एक भी विश्वविद्यालय दुनिया के टॉप 300 विश्वविद्यालयों में जगह नहीं बना पाया? यह जरूरी है कि राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी बढ़े और प्रांतीय स्तर पर क्षेत्रीय भाषाएं बढ़ें। इसके बिना गुजारा नहीं है।

[ लेखक जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं]