[ एनके सिंह ]: दहेज प्रताड़ना के एक मामले में 18 साल पहले एक विवाहिता ने शिकायत की। तारीख पर तारीख और अदालत दर अदालत होते हुए छह साल बाद जब मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो देश की सर्वोच्च अदालत ने भी 12 साल लगाए और जब इसी 20 जुलाई को उसने फैसला दिया तो देर हो चुकी थी। पीड़िता मर चुकी थी। इस खबर या ऐसी ही और खबरों का देश में निर्बाध रूप से जारी भीड़ के न्याय यानी भीड़ की हिंसा अर्थात मॉब लिंचिंग से एक गहरा रिश्ता है।

राजस्थान के अलवर जिले में भीड़ के हाथों गो-तस्कर के संदेह में अकबर खान को उस दिन मारा गया जिस दिन संसद में अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भीड़ की हिंसा का मामला उठा था और उसके चंद दिन पहले सुप्रीम कोर्ट ने इस पर एक अलग कानून बनाने को कहा था। अकबर की जान बचाई जा सकती थी, यदि अलवर पुलिस ने तत्परता और साथ ही संवेदनशीलता का परिचय दिया होता। पुलिस ने अकबर के पास से मिली गाय को पहले गोशाला पहुंचाया। इसके बाद उसे अस्पताल ले गई। तब तक देर हो चुकी थी।

अकबर की हत्या की प्रारंभिक छानबीन में यह जानकारी सामने आई कि जब उसकी पिटाई हो रही थी तो पीटने वाले यह भी कह रहे थे कि विधायक जी हमारे साथ हैैं। हमारा कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। पता नहीं यह कितना सच है और हो सकता है कि इसमें विधायक जी की कोई गलती न हो, लेकिन यह मानने के पर्याप्त कारण हैैं कि कानून हाथ में लेने अर्थात अकबर खान की जान लेने वाली भीड़ को यह पता था कि इस कृत्य की कोई सजा नहीं मिलने वाली।

आखिर उग्र भीड़ को कहीं से तो यह भरोसा रहा होगा कि उसकी गुंडागर्दी का कुछ लोग सीधे या फिर दबे-छिपे समर्थन करेंगे। अगर किसी नेता के संरक्षण-समर्थन का दावा करके सिस्टम को ठेंगा दिखाया जा सकता है तो यह जंगलराज की निशानी है। इस सिस्टम में पुलिस के साथ कानूनी प्रक्रिया भी शामिल है। बहुत दिन नहीं हुए जब उत्तर प्रदेश में उन्नाव के एक विधायक ने न केवल एक युवती से दुष्कर्म किया, बल्कि शिकायत करने पर युवती के पिता को सरे आम पिटवाया भी। पीटने वालों में विधायक के भाई भी शामिल थे।

यह तो मीडिया के दबाव का नतीजा रहा कि मामले की जांच सीबीआइ को सौंपी गई और उसने अपनी जांच में विधायक को दोषी पाया। विधायक सत्ताधारी दल के थे और यह किसी से छिपा नहीं कि सत्ता की कैसी धमक होती है? सत्ता की धमक के आगे कानून दास बन जाता है और बड़े-बड़े अधिकारी भी झुक जाते हैैं। अगर अलवर में दरोगा ने घायल अकबर को चंद किलोमीटर दूरी पर स्थित अस्पताल पहुंचाने में करीब तीन घंटे लगा दिए तो इसे महज फैसला लेने में चूक नहीं कहा जा सकता। शायद पुलिस को पता था कि हत्यारी भीड़ की नाराजगी महंगी पड़ सकती है।

राजस्थान पुलिस का हिस्सा होने के नाते दरोगा को यह भी मालूम होगा कि आज के दौर में गो-रक्षा सबसे जरूरी हो गया है। ध्यान रहे कि कथित गो रक्षकों के उत्पात के लिए राजस्थान कुख्यात हो रहा है। एक साल पहले अलवर में ही पहलू खान नामक पशु व्यापारी की तथाकथित गो-रक्षकों ने हत्या कर दी थी।

स्वामी अग्निवेश की पिटाई करने वाले या फिर अखलाक को मारने वाले यह जानते रहे होंगे कि कुछ नहीं होगा और गाय अथवा धर्म की रक्षा के नाम पर तमाम लोग उनका साथ देने को तैयार होंगे। आजकल ऐसे लोगों में विधायक, सांसद और मंत्री भी होने लगे हैैं। जब कानून का शासन पंगु हो, जब दंड का भय न हो और जब यह यकीन हो कि हिंसक व्यवहार को सराहा जाएगा तो फिर किसी अकबर को पीट-पीटकर मार देने में कथित लक्ष्य की त्वरित प्राप्ति दिखाई देने लगती है। नेताओं का दंगे में आरोपित लोगों के घर या जेल जाकर सहानुभूति दिखाना भी इसी कड़ी का हिस्सा जान पड़ता है।

संविधान की प्रस्तावना में कहा गया है, हम भारत के लोग...संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैैं। इस प्रस्तावना में न तो भीड़ के न्याय के लिए कोई जगह है और न ही उसका परोक्ष या प्रत्यक्ष समर्थन करने वाले नेताओं के लिए। इस प्रस्तावना में गाय के नाम पर मनमानी करने और कानून हाथ में लेने वालों के लिए भी कोई जगह नहीं। भारत के लोगों को यह फैसला करने का अधिकार नहीं कि कौन गो तस्कर है और कौन नहीं? उन्हें यह भी अधिकार नहीं कि वे किसी को महज शक के आधार पर घेर कर मारें, लेकिन ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैैं और अब तो उनमें वृद्धि भी देखी जा रही है। दरअसल जब कानून बनाने वाले और उसका अनुपालन करने और कराने वाले एक भाव-भूमि में हों तो संविधान पुनर्परिभाषित होने लगता है। ऐसी हालत में यदि अदालतें भी अपना काम सही ढंग से न करें तो स्थितियां और खराब हो जाती हैैं। दुर्भाग्य से वर्तमान में ऐसी ही स्थिति नजर आती है।

यह सुनना-पढ़ना शर्मनाक है कि लोग गोमांस खाना छोड़ दें तो भीड़ की हिंसा बंद हो जाएगी। यह सलाह कम, धमकी ज्यादा लगती है। एक ऐसी धमकी जो संविधान के लिए खतरा बनती जा रही है। यह बयान तो सीधे-सीधे धमकी ही है कि अगर गोहत्या जारी रहेगी तो गाय के नाम पर हत्याएं होती रहेंगी। ऐसे बयान देने वाले यह नहीं कहते कि संसद गोहत्या के खिलाफ सख्त कानून बनाए। आम तौर पर ऐसे बयान देने वालों का कुछ नहीं बिगड़ता। बहुत होता है तो यह कह दिया जाता है कि अमुक बयान से पार्टी का कोई लेना-देना नहीं।

भीड़ की हिंसा के बढ़ते मामले दुनिया में देश की बदनामी कराने वाले ही नहीं, आदिम युग की झलक पेश करने वाले हैैं। कानून का लचर और निष्प्रभावी शासन देश को उस आदिम सभ्यता में ले जाने वाला है जिससे निकलने में हजारों साल लगे। दरअसल जब कानून प्रत्यक्ष रूप से काम नहीं करता और न्यायपालिका भी फैसले करने में जरूरत से ज्यादा समय लगा देती है तो न्याय मूकदर्शक बनने लग जाता है।

पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायलय ने भीड़ की हिंसा के खिलाफ सख्त रुख तो दिखाया, लेकिन भीड़ की हिंसा के बढ़ते मामले बता रहे हैैं कि उसके सख्त रुख का जमीन पर कोई असर नहीं। उसकी ओर से तो ऐसी कोई चेतावनी दी जानी चाहिए थी कि अगर भीड़ की हिंसा के मामले सामने आते हैैं तो यह मानकर कि प्रशासन असफल रहा, एसपी और डीएम को अगले कुछ साल प्रोन्नति नहीं मिलेगी तो शायद सही संदेश जाता और लोग कानून हाथ में लेने से बचते। अभी तो ऐसा कुछ नहीं दिखाई दे रहा है। जहां तक भीड़ की हिंसा रोकने के मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिए गए दिशानिर्देशों की बात है, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पुलिस सुधार पर 2006 में दिए गए उसके दिशानिर्देशों पर अब तक अमल नहीं हो सका है।

[ लेखक ब्रॉडकास्ट एडीटर्स एसोसिएशन के सदस्य एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैैं ]