[ शंकर शरण ]: नई शिक्षा नीति की सबसे विशिष्ट बात भारतीय भाषाओं को भी महत्व देने की है। अच्छा है कि इसे अनिवार्य न करके यथासंभव वाले भाव में रखा गया है। इससे राजनीतिक गिद्धों को मौका नहीं मिला। हालांकि वे मौके की ताक में हैं, इसका पता डीएमके नेता कनिमोझी की ओर से हिंदी के प्रति दिखाए गए दुराग्रह से चलता है। ऐसे दुराग्रह के बाद भी यदि सरकार और समाज गंभीरता दिखाएं तो यह ऐतिहासिक मोड़ हो सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि शिक्षा, संस्कृति और वैश्विक प्रतिष्ठा की दृष्टि से भी अपनी भाषाओं का महत्व समझा जाए। कवि और चिंतक सच्चिदानंद वात्सयायन अज्ञेय जी का कहना था कि भाषा कल्पवृक्ष है। श्रद्धापूर्वक जो उससे मांगो, वह देती है।

यदि कुछ मांगा ही न जाए तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता

यदि उससे कुछ मांगा ही न जाए तो कल्पवृक्ष भी कुछ नहीं देता। दुर्भाग्यवश अतीत में भाषा का प्रश्न झूठी समझ और राजनीति में फंस कर उपेक्षित रहा। हम भूल गए कि भाषा के साथ मनुष्य का संबंध क्या है? याद रहे पहले भाषा ही हमें बनाती है। जिस भाषा को हम जन्म से ही सुनते, जानते हैं और जिस परिवेश में रहते हैं उसी से हम गढ़े जाते हैं। यदि उसी की उपेक्षा कर बचपन से अन्य भाषा की आराधना हो तो बच्चे प्राय: किसी भाषा पर अधिकार नहीं कर पाते। उनका व्यक्तित्व अधूरा रह जाता है।

बच्चों को अपनी भाषा अच्छी तरह सीखनी चाहिए

विश्व के सभी शिक्षा चिंतकों ने माना है कि बच्चों को अपनी भाषा पहले अच्छी तरह सीखनी चाहिए। इसके लिए भाषा का श्रेष्ठतम साहित्य पढ़ना ही एक मात्र साधन है। अभी यहां ऐसा नहीं हो रहा। लगभग सारा ध्यान विज्ञान और अंग्रेजी पर रहता है। यह बच्चों के संपूर्ण विकास की दृष्टि से घोर हानिकारक है। इससे बच्चों की अभिव्यक्ति क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। मन में उठने वाले हर मनोभाव को सटीक शब्दों और वाक्यों में बोलने, लिखने की क्षमता एक बहुत बड़ी शक्ति है। यह न होने से जीवन में काम भले चल जाए, पर इससे व्यक्तित्व दुर्बल होता है। अपनी भाषा पर पूर्ण अधिकार करने की प्रेरणा देना बच्चों की सबसे बड़ी भलाई है। भाषा अस्मिता से जुड़ी होती है।

भाषा संपूर्ण शिक्षा की नींव है

अज्ञेय जी कहते थे कि हमें सदैव प्रश्न पूछना चाहिए। आपकी अस्मिता, आपकी पहचान की भाषा क्या है? इसके बाद ही दूसरी बातों को साफ समझना संभव होगा। तभी विदेशी भाषाएं भी सही पकड़ में आएंगी। अपनी भाषा ही संपूर्ण शिक्षा की नींव है। बच्चों के भविष्य की चिंता इसी प्रकाश में करनी चाहिए। यदि बच्चा अपने समाज की भाषा गंभीरता पूर्वक नहीं सीखता तो वह और जो कुछ बने, उसके आत्मवान मनुष्य बनने में संदेह है। अपवाद और बात है।

भाषा और संस्कृति बच्चों की शिक्षा के केंद्रीय अंग होने चाहिए

मनुष्य की आत्मनिर्भरता आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक और मानसिक भी होती है। केवल धनी बनने या कोई लाभकारी पद प्राप्त कर लेने मात्र से यह नहीं होती। इसी में यूरोपीय, अमेरिकी, रूसी, कोरियाई आदि लोगों के आत्माभिमान और आत्मविश्वास का रहस्य है। वे तमाम विज्ञान-तकनीक और आर्थिकी के साथ अपनी भाषा-संस्कृति के संग जीवंत रूप से गौरवशाली खड़े दिखते हैं। हमारे साथ ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि हमने अस्मिता का महत्व नहीं समझा, जबकि यही चीज हमें पशु जगत से अलग करती है। मनुष्य मूल्यों की सृष्टि करते हैं-ऐसे मूल्य जिनके लिए प्राणों तक के बलिदान को भी उचित समझते हैं। यही मनुष्यत्व है। भाषा और संस्कृति बच्चों की शिक्षा के केंद्रीय अंग होने चाहिए।

नई शिक्षा नीति के पालन में भारतीय भाषा-साहित्य के प्रति लगाव पैदा किया जाना चाहिए

यदि नई शिक्षा नीति के पालन में भारतीय भाषा-साहित्य के प्रति लगाव पैदा किया जा सके तो एक महान कार्य हो सकता है। अन्यथा हम पश्चिम के पिछलग्गू रहेंगे, बल्कि पिछड़ते भी जाएंगे। अंग्रेजी केंद्रित होने से ही भारतीय युवा विज्ञान-तकनीक में मौलिक खोज करने में पिछड़े हुए हैं। तमाम नई खोजें उन्हीं देशों के युवा कर रहे हैं जो अपनी-अपनी भाषाओं की बुनियाद पर खड़े हैं। उनका व्यक्तित्व सांस्कृतिक रूप से खंडित, दुर्बल नहीं है। भारत में मौलिक चिंतन की संभावना कम से कमतर होती गई है। मुख्यत: विदेशी भाषाओं के चिंतन का अंग्रेजी में अनुचिंतन होता है, फिर उसी का घटिया अंग्रेजी में अनुलेखन होता है। फिर उसका जैसा-तैसा अनुवाद भारतीय भाषाओं में आता है। इसी जूठी सामग्री पर हमारी संपूर्ण बौद्धिकता और शोध पल रहा है। इसी से हमारे शिक्षक, कर्णधार, प्रशासक आदि बन रहे हैं।

सांस्कृतिक शक्ति से संपन्न होने के लिए अपनी भाषा पर अधिकार करना अनिवार्य है

जब हम विश्व रंगमंच पर अपना वास्तविक आकलन करते हैं तो हमारी सांस्कृतिक भीरुता दिखती है। इसका सीधा संबंध अपनी भाषा, साहित्य, महान ज्ञान परंपरा से हमारी दूरी है। हमारे युवाओं में वह भीतरी आत्मिक शक्ति कमजोर है जो संस्कृति से आती है। संस्कृति भाषा में निवास करती है और कहीं नहीं। अपनी सांस्कृतिक शक्ति से संपन्न होने के लिए अपनी भाषा पर अधिकार करना अनिवार्य है। उन्नत, आधुनिक, धनी बनने की चाह में अंग्रेजी का एकाधिकार बढ़ाने से हम अपनी सांस्कृतिक अस्मिता और दृष्टि खोते गए हैं। आत्महीन, दृष्टिहीन होकर कोई बहुत आगे नहीं जा सकता। अज्ञेय जी ने कहा था कि हमारे जीवन में अंग्रेजी का बढ़ता प्रभाव किस्तों में आत्मघात है। यदि देश की सांस्कृतिक एकता और हमारा अस्मिता बोध कमजोर हुआ तो आर्थिक प्रगति के बावजूद देश वेध्य बना रहेगा। यह सत्य खतरनाक रूप से हमारे सामने है।

देश में हिंदी का विरोध बड़ा या गहरा नहीं है

विजातीय विचारधाराएं और भारत विरोधी ताकतें तरह-तरह से हम पर चोट कर रही हैं, क्योंकि हमारा अस्मिता-बोध दुर्बल हुआ है। हमारी सांस्कृतिक एकता कुछ अर्थों में कमजोर हुई है। हिंदी की उपेक्षा का भी मूल कारण राष्ट्रीय चेतना पर चोट ही है, अन्यथा देश में हिंदी का विरोध बड़ा या गहरा नहीं है। जहां है वह भी वहीं तक जिस हद तक भारतीयता का भी विरोध या उपेक्षा है।

यदि हम देवनागरी लिपि अपना लें तो विभिन्न भाषाओं की एकता साफ दिखने लगेगी 

भारत में विभिन्न भाषाओं की सशक्त उपस्थिति कोई समस्या नहीं है। यदि हम एक लिपि देवनागरी अपना लें तो विभिन्न भाषाओं की आंतरिक एकता साफ दिखने लगेगी। तब हरेक भारतीय अनेक स्वदेशी भाषाएं बिना विशेष प्रयत्न के समझ सकेगा। वैसे भी विभिन्न भाषाओं की कोई ठोस सीमारेखा नहीं है। मुख्य बात सांस्कृतिक दृष्टि की है। यदि उसका महत्व ध्यान में रहे तो विभिन्नता की समस्या कोई बाधा नहीं रहेगी, जैसे वह अंग्रेजों के आने से पहले नहीं थी। संस्कृत एवं लौकिक भाषाएं देश की भावनात्मक, बौद्धिक और व्यापारिक जरूरतों की पूर्ति करती थीं। यदि नई शिक्षा नीति उस भावना को पुनर्जीवित कर सके तो हमारा कल्पवृक्ष पुन: हरा-भरा हो सकता है।

( लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर हैं )