[ शंकर शरण ]: हाल में जम्मू-कश्मीर सरकार ने स्कूलों के लिए खरीदी जाने वाली किताबों में गीता और रामायण को भी जोड़ा था। परंतु इसकी आलोचना होते ही आदेश वापस ले लिया गया। पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपनी आलोचना में कहा था कि यदि धार्मिक किताबें खरीदी जा रही हैं तो सभी धर्मों की खरीदनी चाहिए। सच पूछिए, तो यह बहुत अच्छा सुझाव है! सभी राज्य सरकारों और केंद्र सरकार को भी धर्मों के अध्ययन को एक विषय के रूप में हाईस्कूल से लेकर कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में शामिल करना चाहिए। स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर बनी सबसे पहली डॉ. राधाकृष्णन समिति (1948) ने भी अपनी अनुशंसा में धर्म अध्ययन को शिक्षा में महत्वपूर्ण स्थान देने की सिफारिश की थी। उसका तब कोई विरोध भी नही हुआ था, पर उसे लागू नहीं किया गया। वह एक बहुत बड़ी भूल थी।

पश्चिमी शिक्षा संस्थानों और विश्वविद्यालयों में ‘रिलीजियस स्टडीज’ एवं ‘कंपैरेटिव रिलीजन’ स्वतंत्र विषय हैं। जिसमें किसी या विभिन्न धर्मों का अध्ययन-अध्यापन-शोध आदि होता है। भारत की औपचारिक शिक्षा में यह न होने के कारण अंतरराष्ट्रीय शैक्षिक मंचों पर इस विषय पर न भारतीय विद्वान होते हैं, न आमंत्रित किए जाते हैं। यहां के ज्ञानी संतों, योगियों को वहां इसलिए नहीं बुलाया जाता, क्योंकि इन्हें धर्म प्रचारक समझा जाता है। जबकि विश्वविद्यालयी कुर्सियों पर आसीन व्यक्ति इस्लाम या ईसाइयत का प्रचारक मात्र भी हो तो उसे आमंत्रण मिलता है। इस वैश्विक अकादमिक चलन के कारण भी आवश्यक है कि भारत में धर्म संबंधी अध्ययन को वही स्थान मिले जो अन्य विषयों का है ताकि धर्मों पर भारत के अपने विद्वान और शोधार्थी हों। इससे हिंदू धर्म-दर्शन पर विदेशियों का दबदबा भी कम होगा, अन्यथा हमारे बारे में विदेशों में एकांगी, दुराग्रही विचारों का बोलबाला बना रहेगा।

भारतीय शिक्षा में धर्म-संबंधी अध्ययन विषय की कमी इसलिए और भी विचित्र है, क्योंकि भारत विश्व के उन अनूठे देशों में से एक है जहां अनेक धर्मों के लोग सदियों से रह रहे हैं। यहां के मूल निवासियों हिंदुओं ने कभी किसी का धार्मिक उत्पीड़न नहीं किया। ऐसे देश में जहां प्राचीन काल से अक्षुण्ण ज्ञान परंपरा भी है, धर्म अध्ययन का शिक्षण-प्रशिक्षण न होना शर्मसार करता है। फिर, आज दुनिया में धर्म-मत पर आधारित राजनीति, कानून, नीति-निर्माण और खुला संघर्ष भी चल रहा है। इसमें भारत का निरपेक्ष या उदासीन रहना आत्मघाती भी है। इसमें आज भी तमाम लोग मर रहे हैं। इसलिए भी जरूरी है कि धर्म, धार्मिक मतवाद, समूह, रीतियां आदि संबधी अध्ययन को गंभीरता से लिया जाए। इसके प्रति अज्ञान और अनभिज्ञता अपने ही देश के प्रति अक्षम्य अपराध है।

आज के युवा ही कल के नीति-निर्माता, प्रशासक और शिक्षक बनेंगे। तब जिन विषयों के बारे में वे जानेंगे ही नहीं, तो उनसे संबंधित निर्णय कैसे ले पाएंगे? यदि हम धर्मों का औपचारिक अध्ययन नहीं करते तो पश्चिमी शक्तियों से पिटते भी रहेंगे। जैसा वेंडी डोनीजर प्रसंग ने दिखाया था, रिलीजन इन साउथ एशिया (रीसा) जैसी प्रभावशाली संस्थाओं में पश्चिमी ईसाइयों, यहूदियों का एकाधिकार है। वे विद्वान जाने-अनजाने और अहंकारवश भी भारतीयों को केवल याचक, पावक समझते हैं जिन्हें कोई ‘ज्ञान दिया जा सकता है’ मगर जिनसे कोई ज्ञान लेने का सवाल ही नहीं। अर्थात धर्म संबंधी शिक्षा, शोध ही नहीं उससे संबंधित हर तरह के राजनीतिक, रणनीतिक, अंतरराष्ट्रीय, कूटनीतिक मामलों में भी हमें उनके द्वारा ‘दी गई’ जानकारियों पर ही निर्भर रहना होगा। यह कितना हास्यास्पद और चिंताजनक है और होगा, इस पर भी ध्यान देना चाहिए। उनके प्रभाव से भारतीय धर्म, समाज, रीति-रिवाज और परंपराओं के विषय में विकृत जानकारियां फैली, जमी हैं। फलत: अमेरिका-भारत संबंध, यूरोप-भारत संबंध तथा अरब-भारत संबंध भी तरह-तरह की गलतफहमियों के शिकार रहे हैं।

इस संदर्भ में सैमुअल हटिंग्टन की विश्वविख्यात पुस्तक ‘क्लैश ऑफ सिविलाइजेशंस’ का भी स्मरण करना चाहिए। उसमें हिंदू सभ्यता, हिंदू धर्म तथा भारतीय चिंताओं का आकलन नहीं किया और कारण भी बताया कि उन्हें समकालीन संदर्भ में इन बिंदुओं पर भारतीय पक्ष, प्रस्तुति या अकादमिक चर्चा की जानकारी नहीं मिली! यानी जो विदेशी विद्वान सभ्यताओं के वर्तमान संघर्ष में हिंदू दृष्टि का वास्तविक आकलन जोड़ना भी चाहते हैं तो वह नहीं मिलता, क्योंकि हमारी अकादमियों, विश्वविद्यालयों में ऐसा कोई अध्ययन ही नहीं होता! यह स्थिति बहुत आत्मघाती है।

भारतीय दृष्टि से तुलनात्मक धर्म दर्शन और व्यवहार पर सुसंगत व्याख्याओं तथा मांगों का विश्वपटल पर न होना अन्य कारणों से भी चिंता की बात है। जहां ईसाइयत तथा इस्लाम जैसे महत्वपूर्ण धर्मों के मानने वाले दर्जनों देशों में शासन करते हैं, वहीं हिंदू धर्म का व्यवहारत: भारत ही एक ही देश है। यहां भी एक विचित्र ‘सेक्युलरिज्म’ के नाम पर यहां गैर हिंदुओं को कानूनी तौर पर अधिक अधिकार हैं। ऐसे में हिंदू धर्म के एकमात्र आश्रय स्थल में भी हिंदू धर्म के औपचारिक, गंभीर अध्ययन-अध्यापन तथा विविध धर्म-मतों के तुलनात्मक अध्ययन की कमी बहुत गंभीर स्थिति है।

जो देश, समाज अपने बारे में, अपनी राय को ही मानक मानने का प्रबल आग्रह रखते हैं, उनके प्रति बाहरी दुनिया संवेदनशील रहती है। जैसे, इस्लाम के संदर्भ में मानवाधिकार की व्याख्या को लेकर अरब देशों के आग्र्रहों के कारण संयुक्त राष्ट्र तथा पश्चिमी अकादमिक जगत में उनके प्रति आदरपूर्ण रुख है। फलत: संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार घोषणापत्र की कई धाराओं को अरब देशों पर लागू ही नहीं किया जाता। पश्चिमी जगत मानवाधिकार-उल्लंघन के जो पैमाने भारत, रूस या म्यांमार पर लागू करता है, उन्हें ईरान, सऊदी अरब या अल्जीरिया में लागू नहीं करता, क्योंकि ये देश अपने धर्म के बारे में दूसरों को मनमानी व्याख्या को स्वीकार नहीं करते।

भारत में ठीक उलटा हो गया है। हिंदुओं के लिए स्वयं अपने महान ग्रंथों को पढ़ने का आग्रह करना भी लांछित किया जाता है! इस तरह, हिंदू ज्ञान के साथ स्वयं भारत में ही दोहरा अन्याय होता रहा है। एक ओर रामायण, महाभारत, योग-वशिष्ठ, आदि कालजयी ग्र्रंथों को औपचारिक शिक्षा प्रणाली से बाहर रखा गया है। दूसरी ओर, उन्हीं ग्रंथों के विवरणों के मनमाने ‘अल्टरनेटिव’ पाठ करने और फ्रॉयडीय मनोविश्लेषण के नाम पर हिंदू प्रतीकों की खिल्ली उड़ाई जाती है। स्वंतत्र भारत में होने वाला यह दोहरा अन्याय विदेशी, औपनिवेशिक शासनकाल से भी बदतर है। क्या इसे बंद नहीं होना चाहिए? भारत में धर्म संबंधी अध्ययन एक स्वतंत्र विषय के रूप में सभी स्तरों पर स्थापित किया जाना चाहिए। यह न केवल हमारे देश के लिए, अपितु संपूर्ण मानवता के हित में होगा।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्राध्यापक एवं स्तंभकार हैं)