[ डॉ. विनोद कुमार तिवारी ]: तीर्थ नगरी हरिद्वार में पवित्र कुंभ और संवत्सर संक्रांति की मांगलिक परिवेला बड़ी निराली है। भला कुंभ और संवत्सर के विज्ञान को समझने का इससे शुभ अवसर और क्या हो सकता है? सनातन हिंदू धर्म में कुंभ मेले का आयोजन एक पूर्णत: खगोलीय परिघटना है। 12 वर्षों के अंतराल पर प्रयागराज, नासिक, उज्जैन और हरिद्वार में क्रमश: आयोजित होने वाला कुंभ सौरमंडल में बृहस्पति की परिक्रमाकाल का समानुपातिक होता है। जब बृहस्पति, वृष और सूर्य मकर राशि में होते हैं, तब प्रयागराज में कुंभ का आयोजन होता है। बृहस्पति और सूर्य की इन राशियों में पुन: उपस्थिति अगले 12 वर्ष के सुदीर्घ अंतराल के पश्चात होती है। अत: प्रयागराज में अगला कुंभ इतने ही वर्षों के पश्चात आयोजित होगा। इसी प्रकार जब बृहस्पति और सूर्य दोनों सिंह राशि में स्थित होते हैं तो नासिक में सिंहस्थ कुंभ का आयोजन होता है। यह परिघटना अगले 12 वर्षों के पश्चात पुन: आवृत्त होती है। इसी तरह बृहस्पति जब सिंहस्थ तथा सूर्य मेष राशि में स्थित होते हैं तो उज्जैन में कुंभ का आयोजन होता है। इसी प्रकार कुंभ राशि में बृहस्पति तथा मेष राशि में सूर्य की उपस्थिति होने पर हरिद्वार में कुंभ का आयोजन संपन्न होता है।

भारतीय इतिहास में कुंभ का आयोजन हजारों वर्षों से प्रमाणित है 

भारतीय इतिहास में कुंभ का आयोजन हजारों वर्षों से प्रमाणित है। इससे यह सिद्ध होता है कि हजारों वर्ष पूर्व हमें पृथ्वी के साथ-साथ सौरमंडल के सभी ग्रहों के सूर्य के परित: परिक्रमा करने का तथ्य पता था। इसके विपरीत आधुनिक यूरोप कैथोलिक चर्च से प्राप्त मिथ्या ज्ञान के आधार पर 16वीं सदी तक यह विश्वास करता रहा था कि यह पृथ्वी चपटी है और यह इस सौरमंडल का केंद्र है।

पृथ्वी गोल की घोषणा करने पर गैलीलियो को मिली थी ताउम्र कैद

गैलीलियो ने जब यह घोषणा की कि यह पृथ्वी गोल है तथा सूर्य के परित: घूमती है तो उन्हें भीषण प्रताड़ना तथा आजीवन कारावास की सजा दी गई। इसके विपरीत भारतवर्ष में भाष्कराचार्य महाराज ने शताब्दियों पूर्व यह स्थापित किया कि इस ब्रह्मांड में करोड़ों तारे हैं, हमारा सूर्य भी एक तारा है तथा यह हमारे सौरमंडल का केंद्र है। हमारी पृथ्वी हमारे सूर्य की परिक्रमा करती है।

भारतवर्ष ने विश्व को गणित पढ़ाया

भारतवर्ष ने विश्व को गणित पढ़ाया, जो सभी विज्ञानों का हृदय है। संख्याओं की गिनती, शून्य और दशमलव का ज्ञान, जोड़, घटाव, गुणा, भाग की प्रक्रिया, प्रतिशतता, वर्गमूल, पाई का मूल्य, ज्यामिति, त्रिकोणमिति इत्यादि सभी विश्व को भारत से मिले हैं। यह हर्ष का विषय है कि आधुनिक विश्व के प्रतिष्ठित विज्ञानियों ने वैदिक गणित के इस योगदान को मुक्त कंठ से स्वीकार किया है।

महान विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था- हम भारतवर्ष के प्रति कृतज्ञ हैं

महान विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था ‘हम भारतवर्ष के प्रति कृतज्ञ हैं, जिसने हमें संख्याओं की गिनती सिखाई, जिसके बिना कोई भी वैज्ञानिक आविष्कार संभव नहीं था।’ दुनिया के अन्य मनीषियों ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं, लेकिन हम उनसे सुपरिचित नहीं। यह अवसर हमें इस सबसे परिचित होने का अवसर प्रदान करता है। इसी हेतु नव संवत्सर पर कई अनुष्ठान आरंभ होते हैं।

भारतीय पंचांग सर्वाधिक परिपूर्ण एवं वैज्ञानिक है 

भारतीय पंचांग यानी हमारा कैलेंडर सर्वाधिक परिपूर्ण एवं वैज्ञानिक है। सप्ताह के दिनों और वर्ष के महीनों के नाम, काल-गणना तथा नए संवत्सर के प्रारंभ एवं ऋतु-संक्रमण में पर्व-उत्सवों की इसमें सटीक गणना है। चूंकि नव संवत्सर पर धरा स्वयं पल्लवित-पुष्पित होते पेड़-पौधों से सुसज्जित हो जाती है इसलिए नव वर्ष के आगमन का संदेश स्वत: मिल जाता है। नव संवत्सर का आगमन हमें अपनी परंपराओं का स्मरण करने और अपनी जड़ों से जुड़ने का स्मरण कराता है। हिंदू पंचांग के विपरीत आजकल पूरे विश्व में प्रयोग हो रहा ग्रेगेरियन कैलेंडर अपनी त्रुटियों के कारण हास्य का विषय बनता रहा है। बहुत कम लोगों को यह पता है कि पहले इस कैलेंडर में मार्च से प्रारंभ कर दस महीने ही थे। इस प्रकार सितंबर, अक्टूबर, नवंबर तथा दिसंबर जैसा कि अर्थ से ही स्पष्ट है वर्ष के क्रमश: सातवें, आठवें, नौवें तथा दसवें माह हुआ करते थे। जब इस सत्य की अनुभूति हुई कि यह तो बड़ी भारी त्रुटि है तो जनवरी और फरवरी वर्षांत में जोड़े गए। फिर वर्ष का प्रारंभ क्रिसमस के निकट करने के उद्देश्य से ये वर्ष के प्रारंभिक महीने बना दिए गए। ग्रेगेरियन कैलेंडर के निर्माताओं की इस तिकड़म से वर्ष के महीनों के नाम अर्थहीन हो गए। इस प्रकार सितंबर, अक्टूबर, नवंबर तथा दिसंबर महीने जिन्हें अर्थ के अनुसार सातवां, आठवां, नौवां और दसवां महीना होना चाहिए क्रमश: नौवां, दसवां, ग्यारहवां तथा बारहवां महीना बन गए। कालांतर में सातवें तथा आठवें महीनों का स्थान जूलियस सीजर और उसके उत्तराधिकारी अगस्टस के नाम पर रखे गए जुलाई और अगस्त ने ले लिया।

ग्रेगेरियन कैलेंडर में विसंगतियां 

ग्रेगेरियन कैलेंडर की सबसे बड़ी विसंगति यह थी कि इसमें सप्ताह में छह दिन तथा वर्ष में दस महीने ही थे। स्वाभाविक है चारों सप्ताह के मात्र 24 दिनों में न तो महीने की, न ही दस महीने के कुल 240 दिनों में पूरे वर्ष की कल्पना की जा सकती थी। इस विसंगति को दूर करने के लिए 64 दिनों की एक कालअवधि वर्ष में जोड़ दी गई। इसे ‘नन-मंथ’ कहा गया। यूरोपियन साहित्य में इस काल अवधि को र्‘ंवटर पीरियड’ अर्थात शीतकाल के रूप में चित्रित किया गया है, जो कठिन समय का परिचायक है। ‘नन मंथ’ की यह अवधारणा ग्रेगेरियन कैलेंडर में आज भी यथार्थ है, क्योंकि फरवरी महीना एक लघु ‘नन मंथ’ ही तो है, जो 28 दिनों का ही है तथा प्रत्येक चौथे वर्ष में 29 दिनों का होता है। वैदिक भारतीय कालगणना इन विसंगतियों से सर्वथा मुक्त है।

6000 वर्ष पूर्व भी हिंदू ऋषिगण खगोलशास्त्र में पारंगत थे

खगोलविद् एम्मेलीन प्लूनरेट कहते हैं, ‘वेदों में पृथ्वी, सूर्य, चंद्रमा, ग्रहों, नक्षत्रों, आकाशगंगा इत्यादि के विषद् वर्णन हैं। इससे यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि कम से कम 6000 वर्ष पूर्व भी हिंदू ऋषिगण खगोलशास्त्र में कितने पारंगत हो चुके थे।’ इसी तरह हमारे योगशास्त्र और आयुर्वेद ने सदियों तक मानवता को स्वस्थ रखा है।

( लेखक प्राच्यविद्या के आचार्य हैं )