कुलदीप नैयर। जम्मू-कश्मीर में सेना के कैंपों और अस्पतालों आदि पर आतंकवादी हमले की ये घटनाएं पहली बार नहीं हैं, लेकिन परेशान करने वाली बात यह है कि ये घटनाएं नियमित हो रही हैं। हिंसा रोकने में नई दिल्ली सफल नहीं हो सकी है। शायद केंद्र की मोदी सरकार कारण को पकड़ नहीं पा रही है। अगर हिंसा रोकनी है तो कारण से निपटना पड़ेगा। अभी गत दिनों ही जेल में बंद लश्कर-ए-तैयबा के पाकिस्तान से आए आतंकवादी को छुड़ाने के लिए कम से कम दो आतंकवादियों का अस्पताल परिसर में छिप कर घुस आना एक चिंता की बात है। इसका मतलब है कि घाटी में कोई सुरक्षित स्थान नहीं है। वास्तव में श्रीनगर में किसी बाहरी के आने की जानकारी देने के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों के पास कोई न कोई आदमी रहता है। आतंकवादी खतरे के अनुसार प्रतिरोध का इंतजाम करते हैं। आतंकवादियों का खुफिया तंत्र छेद्दार है। महबूबा मुफ्ती सरकार अपनी गलती मानती है। जाहिराना तौर पर सद्भावना दिखाने के लिए सभी पत्थरबाजों को रिहा कर दिया गया है, पर उन्हें रिहा करने के पीछे असली कारण उन्हें मिलने वाला जनसमर्थन है।

फारुख अब्दुल्ला ने ने धर्म घुसा दिया

परिस्थिति ऐसी हो गई है कि यासीन मलिक या शब्बीर शाह जैसे पुराने उग्रवादी आज अप्रासंगिक हो गए हैं। नेतृत्व नौजवान कर रहे हैं। और वे इस बात को छिपाते नहीं हैं कि वे अपना एक अलग इस्लामी देश चाहते हैं। वे न तो पाकिस्तान समर्थक हैं और न ही भारत समर्थक, वे खुद के समर्थक हैं और उन्होंने इस्लामाबाद को यह साफ बता दिया है कि उनका आंदोलन अपना वजूद तैयार करने के लिए है। नई दिल्ली को यह मालूम है कि उन्हें देने के लिए उनके पास कुछ नहीं है। उसे लगता है इसका जवाब सुरक्षा बल ही हैं, जिन्हें ज्यादा से ज्यादा जान गंवानी पड़ रही है। हैरत की बात है कि पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला ने यह कहकर कि नौजवान इस्लाम की नई पहचान हैं, इसमें धर्म को घुसा दिया है। मगर भगवान का शुक्र है कि वह श्रीनगर के भारत में विलय को चुनौती नहीं देते हैं।

न भारत, न पाकिस्तान; अलग राष्ट्र की है मांग

पाकिस्तान यह समझता है कि अगर वह वजूद वाले कारण को रेखांकित करेगा तो पूरे बंटवारे पर सवालिया निशान खड़े होने लगेंगे। इसलिए वह इस बात पर जोर देता है कि आमने-सामने बैठकर दोनों को स्वीकार होने लायक समाधान ढूंढे। वास्तव में इस्लामाबाद सच्चाई स्वीकार नहीं करना चाहता है। वास्तविकता यही है कि पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर अलग इस्लामी राष्ट्र बनने की मांग करता है। नई दिल्ली ने यह साफ कर दिया है कि वह बातचीत नहीं करेगा, जब तक वह यह पक्का नहीं कर लेता है कि पाकिस्तान आतंकवादियों को पनाह नहीं देगा, और न ही वह उग्रवाद का पक्षधर रहेगा, लेकिन यह सिर्फ एक कोरी कल्पना है। सच है कि भाड़े के सैनिकों के रूप में छद्म युद्घ ने सालों से कश्मीर में सामान्य हालत नहीं आने दी है।

आइएसआइ के भाड़े के सैनिक और यहां तक कि सशस्त्र सेना, जिनका जिक्र पाकिस्तान यह कह कर करता है कि यह उग्रवादियों को उसका ‘नैतिक तथा कूटनीतिक समर्थन’ है। पिछले एक दशक में सरहद पार से भारी दखलंदाजी की गई है। फिर भी साफ कहा जाए तो भारत के पास कोई कश्मीर नीति नहीं है और इसने एक के बाद एक नई गलतियां की हैं।

पाकिस्तान ने किया 40 साल इंतजार

कश्मीर के एकमात्र नेता शेख अब्दुल्ला के दौर में जाएं तो पता लगता है कि 1952 में उन्हें इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया, क्योंकि वह चाहते थे कि स्वायत्तता को लेकर अपने वायदे पर भारत खरा उतरे। इसका मतलब था विदेश, रक्षा और संचार छोड़कर सभी अधिकार श्रीनगर को सौंपना या हम 1989 के दौर में जाएं जब विधानसभा चुनावों में धांधली हुई, जिसने युवकों को यह सोचने पर मजबूर किया कि मतपेटियां उन्हें सत्ता नहीं दे सकती हैं, शायद गोली से यह मिल सकती है। पाकिस्तान सिर्फ इस ताक में था कि गुस्साए युवक हथियार और प्रशिक्षण पाने के लिए सरहद पार करें। यह स्वाभाविक ही था कि वह उनके मार्गदर्शन के लिए अपने कुछ हथियारबंद लोगों की घुसपैठ भी कराता क्योंकि घाटी में विद्रोह खड़ा करने के लिए उसने लगभग चालीस साल तक इंतजार किया। इसके बाद उग्रवाद और राज्य की ओर से आए जवाब में बहुत सारे कश्मीरियों तथा सुरक्षा बलों की जानें गईं।

अगले साल युवाओं के पास है मौका

कश्मीर के नेताओं, खासकर इसकी नौजवान पीढ़ी को असलियत का सामना करना पड़ेगा। अगले साल के लोकसभा चुनाव के रूप में एक मौका उनके पास आ रहा है। अगर एक ही सदन में होते हैं तो वे राष्ट्र से वह मांग सकते हैं जो 1952 के दिल्ली समझौते यानी विशेष दर्जा के बावजूद उन्हें नहीं दिया गया, लेकिन इस मौके को खोना उनके लिए उपयोगी नहीं होगा।

दिल्ली ने कश्मीर को लेकर की गलतियां

चुनकर संसद आने से कश्मीर के नेताओं को यह मौका मिलेगा कि वह इस आरोप को गलत साबित कर दें कि मुख्य तौर पर, उन्हें डर और उनकी ओर से फैलाए गए कट्टरपंथ के कारण घाटी में समर्थन मिलता है। उन्हें यह समझना चाहिए कि कश्मीर में अनिश्चय की स्थिति के कारण ही नई दिल्ली वह उदार आर्थिक सहायता देने से मना कर पाया है, जिसका राज्य हकदार है। अतीत में, कई पैकेज घोषित हुए थे। राजीव गांधी पहले आदमी थे जिन्होंने दो हजार करोड़ रुपये के आवंटन का वायदा किया। उनके बाद आए प्रधानमंत्री इस राशि को बढ़ाते रहे हैं, लेकिन कभी भी इसका एक हिस्सा भी नहीं देते। दिल्ली ने भी लोगों की नाराजगी को पहचानने में कुछ हद तक गलती की। अगर राज्य में आर्थिक विकास हुआ होता तो कश्मीरी नौजवानों का फोकस ही कुछ और होता। यह भी देखना चाहिए जब लोग सिर्फ पर्यटकों के आने का इंतजार करते थे। हिंसा के बीच गुजरने के बाद कश्मीरियों को यह अहसास हो गया है कि बड़ी संख्या में आने और पैसा खर्च करने वाले पर्यटकों से दूर भागा नहीं जा सकता।

हिंसा से तंग आ चुके हैं लोग

आज लोग हिंसा से तंग आ गए हैं। सुरक्षा बल और सरहद पार से आने वाले आतंकवादियों ने उन्हें बस किसी तरह जीने को मजबूर कर दिया है। जीवन का खराब स्तर और भी गिर गया है। वे विकास चाहते हैं, राजनीति नहीं। इसे महबूबा सरकार जोर-शोर से लोगों के पास ले जा रही है। राज्य में एक जवाबदेह, साफ-सुथरी तथा उद्देश्य वाले प्रशासन ने उनका और दिल्ली के सिरदर्द को कम कर दिया होता।

(लेखक जाने माने स्तंभकार हैं)