कुलदीप नैयर। मेरे मन में हमेशा यह सवाल आता था कि हमने कहां गलती की। सेक्युलर संविधान को अक्षरश: अपनाने के बाद हम ऐसी जमीन पर भटकते रहे, जिसमें पत्थर का हर टुकड़ा विविधता के रास्ते में बाधा है। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 14-15 अगस्त, 1947 की रात संसद को संबोधित किया, जिस भाषण को ‘नियति से साक्षात्कार’ का नाम दिया गया। उसमें उन्होंने कहा था, ‘भविष्य इशारा कर रहा है..हमें आगे कठिन परिश्रम करना है। हममें से हर एक को तब तक आराम नहीं करना है जब तक हम अपनी प्रतिज्ञा संपूर्ण रूप से पूरी नहीं कर लेते, जब तक हम भारत के सभी लोगों को वैसा नहीं बना देते जैसा नियति उन्हें बनाना चाहती है। हम ऐसे महान देश के नागरिक हैं जो एक साहसिक अभियान पर जाने वाला है और हमें उस ऊंचे स्तर के हिसाब से काम करना है। हममें से हर आदमी, जिस किसी भी धर्म का हो, बराबर रूप से भारत की संतान है और उसे बराबर अधिकार, सुविधा है और उसकी बराबर की जिम्मेदारी है। हम सांप्रदायिकता या संकीर्ण मानसिकता को बढ़ावा नहीं दे सकते, क्योंकि कोई भी राष्ट्र महान नहीं बन सकता, अगर उसके लोग सोच या काम में संकीर्ण हों।’

नेहरू के बाद भाषण देने वाले मुसलमान नेता इतने भावुक हो गए थे कि उन्होंने तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल के नौकरियों तथा शिक्षण संस्थानों में आरक्षण जैसी चर्चा संविधान सभा में की गई थी, की पेशकश को ठुकरा दिया। मुस्लिम नेताओं ने दोनों सदनों में कहा कि उन्हें कुछ भी अलग या विशेष नहीं चाहिए। उन्होंने इस पर खेद जाहिर किया कि वे गुमराह हो गए और उन्होंने अनजाने ही विभाजन के बीज बो दिए।

जिन्ना मुसलमानों के लिए ज्यादा सहूलियत चाहते थे

कहा जाता है कि जिन्ना मुसलमानों के लिए ज्यादा से ज्यादा सहूलियत चाहते थे अलगाव नहीं, लेकिन इसी में कहीं से पाकिस्तान की मांग उठाई जाने लगी। मुसलमान इन्हीं भावनाओं में बह गए। लार्ड माउंटबेटन, जिनका मैंने लंदन के समीप ब्रॉडलैंड्स के उनके आवास में एक लंबा साक्षात्कार किया था, ने मुझे बताया कि तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लेंमेंट एटली ने उनसे भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ साझा रखने की संभावना तलाशने की बात कही थी, लेकिन इस सुझाव को जिन्ना ने साफ तौर पर खारिज कर दिया। जिन्ना ने कहा कि वह कांग्रेस नेताओं पर भरोसा नहीं करते, क्योंकि कैबिनेट मिशन योजना को स्वीकार करने के बाद वे राज्यों के समूह वाली उस व्यवस्था पर चले गए, जिसका हिस्सा हिंदू बहुल असम था। बाद में, वे योजना को स्वीकार करने को आए, लेकिन जिन्ना का भरोसा खत्म हो चुका था।

हमसे कहां गलती हुई...?

प्रेस गैलरी में बैठा मैं उन भाग्यशाली लोगों में से था जो उस समय संसद में मौजूद थे और नेहरू का नियति से साक्षात्कार भाषण सुन रहे थे। यह 70 साल पहले की बात है। आज, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख राज्यों में विधानसभा चुनाव और 2019 में हो रहे लोकसभा चुनावों में हिंदू मतों को लामबंद करने की कोशिश कर रहा है तो मैं खुद से पूछता हूं कि हमसे कहां गलती हुई?

RSS प्रमुख का वो भाषण

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में करीब एक पखवाड़ा बिताया और लोगों से संवाद किया। दोनों ही राज्यों में जातियों के बीच खाई गहरी है और जाति तथा धर्म का गणित उम्मीदवारों का भाग्य तय करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो केंद्र का राजनीतिक परिणाम इन दो राज्यों के विशाल हिंदू वोटों पर निर्भर है। हाल में एक भारी भीड़ को संबोधित करते समय आरएसएस प्रमुख एकदम स्पष्ट थे, जब उन्होंने हिंदुओं से जाति के मतभेदों को मिटाने का आह्वान किया। उनकी टिप्पणी तीखी और राजनीतिक थी कि हिंदुओं को एक होना चाहिए। जाति को लेकर समाज में विभाजन तथा इन मुद्दों पर हिंसा एकता के लिए सबसे बड़ी बाधा है और कुछ ताकतें हैं जो इसका लाभ उठाती हैं।

पिछड़ों को भाजपा से जोड़ने की कवायद

अपने भाषण के दौरान भागवत ने किसानों, छोटे और मध्यम उद्योगों को प्रभावित करने वाली केंद्र सरकार की हाल की आर्थिक नीतियों से हो रहे नुकसान को रोकने की कोशिश की जो भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के खिलाफ जा रहा है। हालांकि यह कह कर कि आरएसएस प्रमुख का उद्देश्य संगठन के पदाधिकारियों से मिलना था, आरएसएस प्रवक्ता ने मजबूती दिखाने की कोशिश की। कहा जाता है कि यह वोटरों को लामबंद करने के लिए ही था, क्योंकि संघ परिवार को चिंता है कि जातियों की गुटबंदी केंद्र में भाजपा के आने की उम्मीदों पर पानी फेर सकती है। दलित-मुसलमान गठजोड़ को लेकर इसकी गहरी चिंता को समझा जा सकता है, क्योंकि यह एक मजबूत विरोध तैयार कर सकता है जो भाजपा को मंच के पीछे भेज सकता है। इसलिए आरएसएस को आर्थिक रूप से पिछड़े समूहों, खासकर कुर्मी तथा कोइरी, जो इसे वोट नहीं देते, से संबंध जोड़ते तथा उन तक पहुंचते देखा जा रहा है। हर गांव में आरएसएस की उपस्थिति की योजना के अलावा भागवत की बिहार तथा उत्तर प्रदेश की यात्रओं का उद्देश्य भाजपा को केंद्र में दोबारा वापस लाने के लिए समर्थन जुटाना था। हिंदुओं का समर्थन हासिल करने की आरएसएस की लगातार कोशिश भाजपा की पकड़ बनाए रखने के लिए है।

नीतीश की आलोचना

यहां बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की भूमिका की आलोचना की जा सकती है। अपनी सरकार बचाने के लिए उन्होंने विभाजनकारी शक्तियों से समझौता कर लिया, जिसके खिलाफ वह उम्र भर लड़ते रहे। उन्होंने भाजपा को साथ लाने के अपने कदम को उचित ठहराने की कोशिश की है। उनकी स्पष्ट सेक्युलर पहचान की प्रशंसा वामपंथी तक करते थे, लेकिन उन्होंने सत्ता के लिए अपने विचारों से समझौता कर लिया। वास्तविकता यही है कि सेक्युलर ताकतें हिंदुत्व के उफान को रोकने में सक्षम साबित नहीं हुई हैं। कांग्रेस इतनी कमजोर है कि वह लोगों को भारत की सोच एक सेक्युलर और लोकतांत्रिक देश के प्रति फिर से समर्पित करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती है। प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के कारण भाजपा अपराजेय मालूम पड़ती है, क्योंकि मोदी का जादू अभी भी कम नहीं हुआ है। शायद, 2019 का चुनाव उनके पक्ष में जाएगा। मैं सिर्फ यही उम्मीद करता हूं कि राष्ट्र सेक्युलरिज्म की राह पर फिर से वापस आ जाएगा।

(लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं)