नई दिल्ली [ गिरीश्वर मिश्र ]। पिछले वर्षों में कौशल संपन्न और बहुपठित लोग जिस तरह आर्थिक दुराचार के मामलों में शामिल होते दिखाई पड़ रहे हैं उनसे समाज और शिक्षा के रिश्ते प्रश्नों के घेरे में आ रहे हैं। शिक्षा से मिलने वाला ज्ञान मनुष्य को क्लेश से मुक्त करने वाला सोचा गया था। यही नहीं स्वयं में ‘शिक्षा’ शब्द मनुष्य के चरित्र या स्वभाव में निहित ऐसे मूल्य-बोध के निर्माण का परिचय कराता है जो व्यक्ति को सकारात्मक किस्म के परिवर्तन की दिशा में संचालित करता है। आम तौर पर यह सबकी आशा होती है कि शिक्षित होकर व्यक्ति सामाजिक जीवन की गुणवत्ता को बढ़ाएगा, लेकिन अब ऐसे ही व्यक्ति सामाजिक मूल्यों से विरत होते दिख रहे हैं।

बचपन में गांवों और छोटे शहरों में पढ़े-लिखे लोग कम ही होते थे और डॉक्टर, अफसर और वकील की कौन कहे मुंशी, मुख्तार, पंडित, मौलवी आदि की भी सामाजिक उपस्थिति बड़ा मायने रखती थी और उनकी बड़ी इच्जत हुआ करती थी। ये रसूख वाले होते थे। इन सबसे यह सामान्य अपेक्षा होती थी कि ये अपने व्यवहार से सबके सामने आचरण के आदर्श सामने रखेगें। अपवादों को छोड़ दें तो वे अक्सर ऐसे होते थे जिन पर भरोसा किया जाता था और वे भी भरसक निर्वाह करते थे। वे मूल्यबद्ध होते थे और झूठ-फरेब से बचते थे। इसका प्रतिफल देश का सफल स्वतंत्रता संग्राम था जिसमें बहुतों ने अपने जान-माल की कोई परवाह न करते हुए एक बड़े और सामाजिक उद्देश्य के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया।

कहना मुश्किल है कि यह उत्कट किस्म की सामाजिक भागीदारी उनकी शिक्षा की देन थी या उस समय के सामाजिक सांस्कृतिक परिवेश का असर था। देश के इतिहास में ऐसे महानुभावों की एक बड़ी तादाद है जो पढ़-लिखकर वकालत आदि के व्यवसाय से खूब पैसा कमा रहे थे तिस पर भी देशहित में सब कुछ त्याग कर स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़े और ऐसा देश के कोने-कोने में हुआ। यह सब अनायास नहीं हुआ था। बहुत सारे आकर्षण को छोड़ इन लोगों ने खुशी-खुशी जान बूझ कर कठिन, अस्पष्ट और किंचित असुरक्षित जीवन का वरण किया। औपचारिक शिक्षा और जीवन की शिक्षा शायद दोनों ने मिल कर इन व्यक्तियों में वह विवेक जगाया था जिसके आगे निजी लक्ष्य कमजोर पड़ गए और समाज के सरोकार जीत गए। स्वतंत्र होने के बाद के घटनाक्रम जिस तरह बदले उनमें मूल्यों के साथ समझौते और उनमें क्रमश: क्षरण की कहानी के हम सभी लोग गवाह हैं।

शिक्षा से बड़ी आशा थी कि वह मानव मूल्यों के लिए प्रतिरक्षा तंत्र का कार्य करेगी। इसलिए उसमें एक स्तर की शुचिता और गुणवत्ता का बना रहना बेहद जरूरी था, पर हमारी कोताही के कारण ऐसा हो न सका। नवाचार, सृजनशीलता और मौलिकता आदि के लिए अवकाश ही नहीं बचा। शिक्षा की व्यवस्था प्रवेश और परीक्षा के मकड़जाल में फंसती चली गई और उसकी प्रामाणिकता घटती गई।

ऐसी स्थिति में सरकारी तंत्र ने शिकंजा कसना शुरू किया और उसकी स्वायत्तता जो गिरवी रखी गई आज तक नहीं वापस मिल सकी। यह जरूर हुआ कि सरकारी तंत्र जो अंतत: राजनीतिक पसंद और नापसंद की चौहद्दी में फरमान चलाता है, हावी होता चला गया। यह स्वाभाविक होता है, क्योंकि राजनीतिक हस्तक्षेप अराजक भाव से कार्य करता है। आज सारे अच्छे सरकारी संकल्पों के बावजूद शिक्षा जगत की छीछालेदर कम नहीं हो पा रही है। क्या पढ़ाया जाए? कैसे पढ़ाया जाए? किसलिए पढ़ाया जाए? ये प्रश्न गौण होते गए। विज्ञान, प्रौद्योगिकी और प्रबंधन जैसे भारी भरकम विषयों के लिए बड़े उदार भाव से सुविधाओं को जुटाने का क्रम अटूट भाव से चल रहा है।

पगार की बड़ी थैली या ‘पे पैकेज’ की लालसा लिए विद्यार्थी और अभिभावक इन विषयों की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हालांकि सफलता का प्रतिशत उत्साहवर्धक नहीं है, पर जिन्हें अवसर मिल रहा है उनमें से कई उसका नाजायज फायदा उठाने से भी नहीं चूकते। फलत: कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जब आर्थिक दुराचरण का कोई मामला सामने न आता हो। यह सही है कि शिक्षा की प्रक्रिया समाज द्वारा पोषित होती है पर उससे यह अपेक्षित नहीं कि वह शिक्षित व्यक्ति के रूप में रोबोट जैसे लोग तैयार करे जो सामाजिक यथार्थ की प्रतिलिपि के हिसाब से काम करें। उससे यह भी अपेक्षित नहीं है कि वह अपने परिवेश के साथ सिर्फ अनुकूलित करने की योग्यता विकसित करे। यह तो उसका रुटीन सा कार्य या धर्म है।

प्रचलित व्यवस्था को बनाए रखने और उसका काम चलाने के लिए व्यवस्था का अनुशासन एक सीमा तक ही ठीक है, क्योंकि यदि वह ठीक नहीं है तो समस्या बढ़ती जाएगी और शिक्षा मुक्ति न देकर बंधन का ब्याज बन जाएगी। इसीलिए उपनिषद् के गुरु ने साहस के साथ दीक्षांत के समय अपने शिष्य से कहा था कि ‘जो हमारे अच्छे आचरण हैं केवल उन्हीं को अपनाओ, अन्य को नहीं।’ यहां गुरु एक शिष्य के लिए एक तरह परिपक्व विवेक के विकास की ओर संकेत कर रहा है। यह विवेक शिक्षा का उपहार होता है जो समाज को प्रभावित करता है। यदि ऐसा न होता तो समाज पूरी तरह स्थिर रहता और उसमें कोई बदलाव न होता।

शिक्षा का यह प्रमुख प्रयोजन है कि वह विवेक को विकसित करे। आज के दौर में इस विवेक के चार प्रमुख आयाम या पक्ष हैं-ज्ञान और कौशल, सदाशयता, व्यावसायिक दायित्व और सामजिक दायित्व। ज्ञान और कौशल आज की शिक्षा के प्रमुख अंग के रूप में सर्वत्र स्वीकार किए गए हैं और प्रशिक्षण का सारा बल इसी पर होता है। निश्चय ही यह शैक्षिक अनुभव की सहज परिणति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

आज दुर्भाग्य से ज्ञान और कौशल के विकास को लेकर हम सतर्क नहीं हैं और गुणवत्ता की दृष्टि से विभिन्न संस्थाओं में बड़े अंतर मिलते हैं। ज्ञान के क्षेत्र में उत्कृष्टता का कोई विकल्प नहीं होता। यह भी गौरतलब है कि ज्ञान और कौशल शून्य में प्रयुक्त नहीं होते। इन्हें सामाजिक परिवेश में प्रयोग में लाया जाता है। यह परिवेश अन्य व्यक्तियों के साथ संबंधों से निर्मित होता है। संबंधों का आधार भावनात्मक लगाव होता है जो पारस्परिकता पर टिका होता है। यह पारस्परिकता दूसरे व्यक्ति की गरिमा को स्वीकारने और उसका समादर करने से ही आती है। इन सबके मूल में समता, मैत्री, क्षमा, विनम्रता, विश्वसनीयता जैसी भावनाएं होती हैं। इन भावनाओं की उपस्थिति सिर्फ व्यक्ति पर ही निर्भर नहीं करती। उसका परिवेश भी इन सद्भावनाओं से भरा होना चाहिए।

दूसरे शब्दों में शिक्षा के परिवेश में इन भावनाओं को जीवंत करना होगा। इन्हें देख कर, सुन कर और अनुभव कर ही पारस्परिकता पनप सकेगी। आज जब शैक्षिक परिवेश में नाना प्रकार के भेदभाव को प्रश्रय दिया जाता है तो स्थिति लक्ष्य के विपरीत चली जाती है। ज्ञान सिर्फ ज्ञान के लिए नहीं होता, उससे लोक-कल्याण भी होना चाहिए। दूसरे शब्दों में ज्ञान को समाजोपयोगी होना चाहिए। उसे समाज की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक अपेक्षाओं के अनुरूप होना चाहिए। इसी में ज्ञान और कौशल की सफलता है, पर यही पर्याप्त नहीं है, क्योंकि ज्ञान समाज के लिए मार्गदर्शक का भी कार्य करता है, अन्यथा सिर्फ यथास्थितिवाद ही बना रहेगा।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)