मानव जीवन में प्रमुख रूप से तीन अंग देखे जाते हैं-विचार, साधना और कर्म। फलस्वरूप मनुष्य विचारक, साधक और कर्मठ कहा जाता है। साधना और कर्म में अंतर है। जीवन के समस्त कार्य-व्यापार को अच्छे और खराब कर्म में समाहित किया गया है। जब मनुष्य कर्मधारा को विशेष सद्दिशा में दृढ़ता से मोड़कर उसमें एकाग्रचित रहकर ध्यान जमाता है, तब वहां उसका साधक स्वरूप दिखाई देता है। साधना के क्षेत्र में मन का बड़ा महत्व है। इसके चलते विचरण करते मन को स्थिर करके ही साधना में रत हुआ जाता है। एक मनुष्य में यह तीनों स्वरूप मिल सकते हैं। कोई अधिक विचारक हो सकता है तो कोई अधिक साधक या अधिक कर्मठ। अधिक विचारक को दार्शनिक भी कहा जाता है। शंकराचार्य का अद्वैत विचारवाला रूप दार्शनिक का है। गोविंद भक्ति स्वरूप साधक का है। पानी में डूबते समय माता से धर्म प्रसार की आज्ञा मांगनेवाला रूप कर्मशील पुरुष का है। तुलसीदास कृत विनयपत्रिका में माया और मानस में नाम और राम का विमोचन करने वाले तुलसी जी विचारक हैं। बिंदुमाधव की छवि निहारने वाल, सत्संग निरत व एकाग्रमन से विनयपत्रिका लिखने वाले तुलसीदास साधक स्वरूप हैं। दुखों से संघर्ष करने वाले, शैवों की उपेक्षा को हंसकर टालने वाले और मित्र टोडरमल के स्वर्गधाम गमन के बाद उसके पुत्रों को प्रबोध प्रदान करने वाले तुलसीदास कर्मठ स्वरूप ही हैं।

मनुष्य की भांति राष्ट्र, साहित्य और धर्म के भी तीन स्वरूप होते हैं। प्रत्येक संप्रदाय, मत, जाति और समाज में यह तीन अंग-दर्शन, साधना व व्यवहार रूप में देखे जा सकते हैं। कोई मत या धर्म दर्शन प्रधान हो जाता है, तो कोई साधना या व्यवहार प्रधान। हिंदू धर्म दर्शन-प्रधान है। इसमें साधना को महत्व दिया गया, लेकिन अब न साधना है और न व्यवहार। मात्र अपने दर्शन के गौरव का स्मरण करके हम फूल जाते हैं। इसी साधना के नाम पर कभी-कभी राम स्मरण कर लेते हैं। दूसरे के हित के समान विश्व में कोई धर्म ही नहीं है और दूसरे को पीड़ा देने के समान अधर्म या पाप नहीं है। धर्म की ऐसी कल्याणकारी और संपन्न परिभाषा विरलता से प्राप्त होती है। धारण करने वाला गुण ही तो धर्म है। परहित से बढ़कर कौन गुण होगा, जो समाज को धारण करेगा। धर्म की कसौटी है कि मनुष्य से परहित हो। जो स्वार्थी बनकर केवल अपने सुख के लिए सब कुछ करता है, वह अधर्मी ही कहा जाएगा।

[ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]