विवेक शुक्ला। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते समय इमरान खान किस तरह कई शब्दों का सही उच्चारण करने में नाकाम रहे उसे सबने देखा और महसूस भी किया। मीडिया और सोशल मीडिया ने इसका संज्ञान भी लिया। यह तो अच्छा हुआ कि इसे अधिक तूल नहीं दिया गया, लेकिन यह जानना जरूरी है कि इमरान खान अपनी राष्ट्रभाषा उर्दू पढ़ने-बोलने में असहज क्यों दिखे? उर्दू में शपथ पढ़ते समय इमरान खान का लड़खड़ाना पाकिस्तान के संस्थापकों और उसके बाद के शासकों की भाषा के सवाल पर संकुचित नीति का उदाहरण है। पाकिस्तान जब बना तब वहां सात-आठ फीसद लोग ही उर्दू जानते थे, लेकिन उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया गया। एक तरह से उसे उर्दू न जानने वालों पर थोप दी गई।

बांग्ला बोलने वाले पूर्वी पाकिस्तान के लोगों पर भी जब उर्दू थोपी गई तो उन्होंने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह ही पाकिस्तान के विभाजन और बांग्लादेश के उदय का कारण बना, लेकिन पाकिस्तान के शासकों ने कोई सबक नहीं सीखा। आबादी की दृष्टि से पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत पंजाब है। पाकिस्तान की कुल आबादी का 65 फीसद पंजाब में बसता है। वहां पर पंजाबी हर स्तर पर बोली-समझी जाती है परंतु इस भाषा को स्कूलों-कॉलेजों में नहीं पढ़ाया जाता। पंजाबी समाज को न चाहते हुए भी उर्दू को पढ़ना पढ़ता है, क्योंकि वह अनिवार्य विषय है। उर्दू को सरकारी स्तर पर मिलने वाले महत्व के कारण पंजाबी की अनदेखी होती रही है। इसके खिलाफ जब-तब विरोध की आवाज भी उठती है।

पंजाब में जो स्थिति पंजाबी भाषा की है वही सिंधी और अन्य दूसरी भाषाओं की भी है। पाकिस्तान में जब पिछले साल जनगणना शुरू हुई तो पंजाब में पंजाबी और उर्दू बोलने वाले आमने-सामने खड़े हो गए। यहां उर्दू जानने वाले तमाम लोगों की मातृभाषा पंजाबी ही है, लेकिन जनगणना अधिकारी उनसे अपनी मातृभाषा पंजाबी के बजाय उर्दू लिखवा रहे थे। इसके चलते पंजाबी भाषा के समर्थक सड़कों पर उतर आए। लाहौर, बहावलपुर, स्यालकोट में ‘पंजाबी प्रचार’ नाम की एक संस्था के बैनर तले सेमिनार हुए। सबकी चाहत थी कि पंजाब में बची रहे पंजाबी।

पंजाब में पंजाबी की स्थिति यह है कि वहां की असेंबली में पंजाबी का इस्तेमाल निषेध है यानी जिस भाषा को वहां पर लोग बोलते-समझते हैं उसे असेंबली में बोलने की मनाही है। पाकिस्तान के वरिष्ठ पंजाबी लेखक तारिक जटाला कहते हैं, शायद ही कहीं लोग अपनी मातृभाषा के साथ इतना दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं जितना पंजाब में करते हैं। कभी-कभी इस पर हैरानी होती है कि इकबाल, फैज अहमद और साहिर लुधियानवी जैसे शायरों ने अपनी मातृभाषा यानी पंजाबी में क्यों नहीं लिखा? पंजाब में पंजाबी की बेकदरी का इतिहास पुराना है। इमरान खान जैसे लोग तो उर्दू सांकेतिक रूप से ही पढ़े हैं। वह वहां के अभिजात्य समाज से हैं और अंग्रेजी में पढ़े-लिखे हैं। चूंकि उनका उर्दू से कोई खास सरोकार नहीं इसलिए उन्हें फारसी और अरबी के शब्दों से लबरेज उर्दू को पढ़ने में दिक्कत होना स्वाभाविक है।

यह भी एक हकीकत है कि पाकिस्तान ने पहले उर्दू को अपनी राष्ट्रभाषा बनाकर अन्य भाषाओं को हाशिये पर ठेला और फिर उर्दू में अरबी भाषा का मिश्रण तेज किया। यह काम जनरल जियाउल हक के समय किया गया, जो आज भी जारी है। इसका मकसद पाकिस्तान को अरब जगत के ज्यादा करीब दिखाना था। पाकिस्तान में न केवल अरबी भाषा के शब्दों का प्रचलन बढ़ा है, बल्कि वहां के पहनावे और खान-पान को भी तवज्जो देने का सिलसिला तेज हुआ है। यह इसलिए है ताकि पाकिस्तान समाज अपनी मूल संस्कृति यानी भारतीय संस्कृति से अलग हो सके। बावजूद इसके उर्दू को हिंदी से अलग नहीं किया जा सका है। अभी हाल में पाकिस्तान के एक टीवी चैनल के एंकर से एक दर्शक ने शिकायत की कि आप हिंदी के शब्दों का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। एंकर ने जवाब दिया कि हिंदी के बिना तो उर्दू बोली ही नहीं जा सकती।

पाकिस्तान में उर्दू को राष्ट्रभाषा बनाकर अन्य भाषाओं के साथ जो अन्याय किया गया उसके लिए मोहम्मद अली जिन्ना जिम्मेदार हैं, जिन्हें इमरान खान अपना नायक मानते हैं। दिलचस्प यह है कि खुद जिन्ना भी गुजराती होने और ब्रिटेन में पढ़े होने के कारण ढंग से उर्दू नहीं जानते थे। एक तरह से पाकिस्तान बनाने की सनक में उन्होंने खुद पर भी उर्दू थोपी। पाकिस्तान का इतिहास खंगालने पर साफ हो जाएगा कि मुस्लिम लीग के भीतर प्रस्तावित इस्लामिक राष्ट्र में भाषा के मसले पर खींचतान शुरू हो गई थी। मुस्लिम लीग के 1937 में हुए सम्मेलन में पार्टी के बांग्लाभाषी प्रतिनिधियों ने पृथक मुस्लिम राष्ट्र में गैर-उर्दू भाषियों पर उर्दू थोपे जाने की किसी भी चेष्टा का विरोध किया था। जाहिर तौर पर तब किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि भाषा को थोपना पाकिस्तान के दोफाड़ का एक बड़ा कारण बनेगा।

देश के विभाजन के पहले लाहौर और आसपास हिंदी ने भी अपने लिए अच्छी-खासी जगह बना ली थी। वहां हिंदी पढ़ी-लिखी जा रही थी और वहां हिंदी के कई प्रकाशन भी थे। इनमें राजपाल प्रकाशन खास था। हिंदी के प्रसार-प्रचार के लिए कई संस्थाएं प्रतिबद्धता के साथ जुटी हुई थीं। इनमें धर्मपुरा स्थित हिंदी प्रचारिणी सभा का योगदान उल्लेखनीय है, जिसके संस्थापक अध्यक्ष रूपलाल शर्मा थे। हिंदी प्रचारणी सभा स्कूलों-कॉलेजों में हिंदी की वाद-विवाद प्रतियोगिताएं आयोजित करवाती थी। लाहौर के गवर्मेंट कॉलेज, फोरमेन क्रिश्चियन कॉलेज, खालसा कॉलेज, दयाल सिंह कॉलेज, डीएवी वगैरह में हिंदी की स्नातकोत्तर स्तर तक की पढ़ाई की व्यवस्था थी। लाहौर की तरह रावलपिंडी में डीएवी कॉलेज, गॉर्डन कॉलेज, इस्लामिया कॉलेज में भी हिंदी पढ़ी और पढ़ाई जा रही थी। इतना ही नहीं, लाहौर से ‘आर्य गजट’ और ‘प्रकाश’ और अमर भारत नाम से हिंदी के अखबार प्रकाशित हो रहे थे। इनकी प्रसार संख्या हजारों थी। विभाजन ने पाकिस्तान में हिंदी की एक तरह से हत्या कर दी। विभाजन से पहले भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, देवेंद्र सत्यार्थी, उपेंद्र नाथ अश्क समेत दर्जनों हिंदी के लेखक अपना रचनाकर्म जारी रखे हुए थे।

रावलपिंडी में रहकर ही बलराज साहनी, भीष्म साहनी और गीतकार शैलेंद्र तथा आनंद बख्शी ने हिंदी जानी-समझी थी। विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए हिंदी के रचनाकारों की भाषा में उर्दू और पंजाबी का मिश्रण होता था। इन्होंने ‘किंतु-परंतु’ के स्थान पर ‘अगर-मगर’ लिखने से परहेज नहीं किया। आज हालत यह है कि पाकिस्तान में उर्दू को लेकर किंतु-परंतु होता ही रहता है।

(लेखक नई दिल्ली स्थित यूएई दूतावास में सूचना अधिकारी रहे हैं)