अमरजीत कुमार। पिछले कुछ वर्षो की तरह पराली जलाने को लेकर इस वर्ष भी कई राज्यों में किसानों और राज्य सरकारों के बीच गतिरोध देखा जा रहा है। ऐसे में यह समझना जरूरी हो जाता है कि क्यों पिछले कुछ वर्षो से पंजाब और हरियाणा की सरकारें इस समस्या पर कोई कारगर कदम उठाने में विफल रही हैं? अगर हालिया स्थिति की बात करें तो बीते साल उच्चतम न्यायालय ने पंजाब और हरियाणा सरकार को निर्देश दिया था कि वे छोटे किसानों को पराली के निपटान के लिए प्रति क्विंटल सौ रुपये दें, परंतु ज्यादातर छोटे किसानों को सहायता राशि मुहैया करवाने में राज्य सरकारें कमोबेश असफल रही हैं। वहीं दूसरी ओर छोटे किसान पराली के निपटान में अधिक लागत के कारण असमर्थता जाहिर करते हैं और पराली को जलाना ही उनके सामने एकमात्र विकल्प रह जाता है। दरअसल यह समस्या कई पक्षों से जुड़ी है और यही कारण है कि अब तक इस समस्या का कोई कारगर उपाय नहीं निकाला जा सका है।

इसके कारणों की बात करें तो हरियाणा और पंजाब प्रिजर्वेशन ऑफ सबसॉइल वाटर एक्ट 2009 का जिक्र करना महत्वपूर्ण है। भूजल संरक्षण के लिए उपरोक्त कानून के तहत पंजाब में धान की बोआई 13 जून से पहले और हरियाणा में 15 जून से पहले प्रतिबंधित है। ऐसे में धान की कटाई अक्टूबर मध्य में होती है, जिस कारण किसान के पास रबी की फसल की बोआई की तैयारी के लिए बहुत कम समय बचता है। यहां यह पक्ष भी महत्वपूर्ण है कि किसान खरीफ फसल की कटाई के लिए ऐसे उपकरणों को प्रयोग में लाते हैं जिससे फसल कटाई के बाद उसके अधिकांश अवशेष खेतों में ही रह जाते हैं। ऐसे में किसान कम समय में पराली हटाने की लागत से बचने के लिए इसे जला देते हैं।

यहां यह महत्वपूर्ण प्रश्न है कि भूजल संरक्षण की चुनौती से बहुत से राज्य जूझ रहे हैं। भारतीय केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के अनुसार देश के कई राज्यों के जलाशयों के जलस्तर में काफी गिरावट पाई गई। भूजल संरक्षण की चुनौती का प्रश्न कितना अहम है, इस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की सिंचाई का करीब 70 प्रतिशत और घरेलू जल खपत का 80 प्रतिशत हिस्सा भूजल से पूरा होता है। यह बात अस्पष्ट है कि आने वाले समय में कई राज्यों को भूजल संरक्षण से जुड़े कई फैसले लेने पड़ सकते हैं। ऐसे में इस पक्ष को नकारा नहीं जा सकता कि जिस तरह पंजाब और हरियाणा राज्य रबी फसलों की बोआई की समय सीमा तय कर रहे हैं, इस विकल्प पर अन्य राज्यों को भी सोचने पर विवश न होना पड़े।

भारत के संदर्भ में कृषि क्षेत्र में तकनीक और पर्यावरण संरक्षण की चुनौती का प्रश्न नई बात नहीं है। हरित क्रांति के बाद किसानों में अत्यधिक रासायनिक उर्वरकों का उपयोग करने की प्रवृत्ति देखी गई, जिससे फसलों में पानी की जरूरत भी बढ़ी है। वर्तमान में पराली की समस्या के लिए किसानों द्वारा प्रयोग में लाए जा रहे फसल की कटाई के संयंत्र भी जिम्मेदार हैं, जिसमें फसल कटाई के उपरांत उसके अवशेष खेतों में ही रह जाते हैं। हैरान करने वाली बात यह है कि इस तकनीक के प्रयोग की प्रवृत्ति अन्य राज्यों में भी बढ़ी है जो आने वाले समय में पराली से जुड़ी समस्या को और गंभीर बना सकती है।

उच्चतम न्यायालय के दिशानिर्देशों के अनुसार पराली जलाने पर रोक के लिए पंजाब और हरियाणा सरकार ने पर्यवेक्षकों की नियुक्ति जरूर की है, लेकिन वह पर्याप्त नहीं है। यही कारण है कि किसानों और पर्यवेक्षकों के बीच गतिरोध देखे जा रहे हैं। इस समस्या से निजात पाने के लिए सरकार को एक कार्यनीति बनानी होगी जिसके तहत भूजल संरक्षण और धारणीय कृषि तकनीक को चरणबद्ध तरीके से लागू करना आवश्यक है।

(लेखक वीर कुंवर सिंह विश्वविद्यालय, आरा, बिहार के शोधार्थी हैं)