[चंदन कर्ण]। Jharkhand Election Result 2019: झारखंड के विधानसभा चुनाव के नतीजों की कई तरह से व्याख्या की जा रही है। कुछ जानकार इस सवाल का जवाब ढूंढ़ रहे हैं कि जिस भाजपा को अभी कुछ महीने पहले ही आम चुनाव में झोली भर-भर के वोट मिले थे, उसकी ऐसी निर्णायक हार कैसे हुई। इसके कुछ कारण गिनाए जा रहे हैं तथा कुछ गढ़े भी जा रहे हैं, जैसे कि नागरिकता संशोधन कानून को झारखंड की जनता ने नकार दिया अथवा एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री का भाजपा का दांव उल्टा पड़ गया आदि।

बताया यह भी जा रहा है कि झारखंड बेशक छोटा राज्य है, लेकिन इस जनादेश का राष्ट्रीय संकेत काफी महत्वपूर्ण है। यह भी कहा जा रहा है कि बीते पौने दो साल में देश का राजनीतिक नक्शा जिस तरह से बदला है और जिस तरह से एक-एक कर पांच महत्वपूर्ण राज्य भाजपा के हाथ से फिसल गए हैं, वह उसके सिकुड़ते जनाधार को दर्शाता है।

सीएनटी-एसपीटी संशोधन कानून

मेरा मानना है कि सत्य सदैव सहज होता है और उसे ढूंढ़ने के लिए बहुत माथापच्ची करने की जरूरत नहीं पड़ती। यह संभव है कि नागरिकता कानून के बाद एक वर्ग विशेष में कुछ हद तक गोलबंदी हुई हो तथा विपक्ष विशेषकर झारखंड मुक्ति मोर्चा के आदिवासी कार्ड का भी कुछ असर रहा हो, लेकिन झारखंड की राजनीति को जानने वाले इस तथ्य से अवगत हैं कि ये वे तबके हैं जो कभी भाजपा के जनाधार वाले वर्गों में शामिल नहीं रहे।

हालांकि यह भी सत्य है कि पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने आदिवासी बहुल क्षेत्रों में अपना जनाधार बढ़ाया है और उसने आदिवासियों की एकमात्र पार्टी की छवि रखने वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा के वोटों में सफलतापूर्वक सेंध लगाई है। इससे चिंतित झामुमो तथा अन्य क्षेत्रीय पार्टियों ने सूबे की कुल आबादी में 26 प्रतिशत का हिस्सा रखने वाले आदिवासियों को प्रस्तावित सीएनटी-एसपीटी संशोधन कानून की आड़ में खूब भड़काया। कहा गया कि भाजपा की सरकार आदिवासियों की जमीन छिनना चाहती है, एक गैर-आदिवासी मुख्यमंत्री रहते आदिवासी समाज का कभी भला नहीं हो सकता आदि-आदि।

आदिवासी कार्ड का दुष्प्रचार 

यह सही है कि राज्य सरकार ने राज्य में निवेश को बढ़ाने तथा इसके द्वारा रोजगार के नए अवसरों के सृजन के उद्देश्य से सीएनटी-एसपीटी एक्ट में कुछ संशोधन का प्रस्ताव किया था, लेकिन इस पर आदिवासी समाज की आपत्ति को देखते हुए उसने अपने कदम पीछे भी खींच लिए थे। तब भी विपक्ष द्वारा आदिवासी कार्ड का दुष्प्रचार जारी रहा, जो चुनाव के परिणामों के आधार पर कहा जा सकता है कि सफल भी रहा। दूसरी तरफ एक सच यह भी है कि भाजपा सरकार ने अपने शासन में आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन तथा सभ्यतासंस्कृति की रक्षा के उद्देश्य से कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण कदम उठाए। जैसे कि आदिवासी युवतियों को बहकाकर और उनसे शादी कर उनकी जमीनों पर कब्जा करने वालों को हतोत्साहित करने के लिए विशेष कानून लाया गया। कोई भी आदिवासी बहुल गांवों का भ्रमण कर इस स्थिति से भली-भांति अवगत हो सकता है कि उनकी जमीनों पर कितनी बड़ी मात्रा में इस तरीके से कब्जा किया गया है।

राज्य के शीर्ष नेतृत्व में असुरक्षा की भावना 

आरोप है कि इस तरह कब्जा करने वालों में बड़ी संख्या अवैध घुसपैठियों की है। इसके अलावा आदिवासियों को लोभ-लालच देकर उनका धर्मांतरण करने वालों के खिलाफ कानून बनाया गया, ताकि उनकी सभ्यतागत विशिष्टताओं की रक्षा की जा सके। अफसोस कि आदिवासियों के हित में उठाए गए इन महत्वपूर्ण कदमों के संदेश उस समाज तक ठीक तरह से नहीं पहुंचाए जा सके। ऐसा भी नहीं है कि भाजपा के पास आदिवासी नेताओं का अभाव है, लेकिन कहा जा रहा है कि राज्य के शीर्ष नेतृत्व में असुरक्षा की भावना थी और इस वजह से ही इन महत्वपूर्ण चेहरों का सहयोग लेना उचित नहीं समझा गया। इसका खामियाजा भी भाजपा को भुगतना पड़ा।

इस चुनाव में जिन बातों ने भाजपा की संभावनाओं पर सबसे बुरा असर डाला, उनमें से पहला तो यह है कि गठबंधन के इस दौर में भाजपा लगभग अकेले चुनाव लड़ रही थी और विरोधी लगभग एकजुट थे। दूसरी बात यह कि भाजपा के भीतर का असंतोष और बगावत भी बहुत स्पष्ट था। चुनाव में पड़े मतों की समीक्षा करें तो पाएंगे कि करीब 20 सीटों के नतीजे बदल सकते थे, यदि केवल उक्त दोनों समस्याओं का समाधान कर लिया गया होता।

भाजपा के लिए आगे की राह क्या हो?

उदाहरण के लिए सिर्फ आजसू पार्टी से यदि गठबंधन को बरकरार रख लिया जाता तो डुमरी, जुगसलाई, ईचागढ़, लोहरदग्गा, नाला, जामा, रामगढ़, बड़कागांव, खिजरी, चक्रधरपुर, मधुपुर, घाटशिला जैसी सीटें आसानी से इस गठबंधन की झोली में आ सकती थीं। इनके अलावा सरायकेला, जरमुंडी, मनोहरपुर तथा सिमडेगा जैसी सीटों पर भी दोनों पार्टियों ने एक-दूसरे को निर्णायक रूप से नुकसान पहुंचाने का काम किया। भाजपा ने जमशेदपुर पूर्व और पश्चिम की दो सीटें केवल सरयू राय की बगावत की वजह से गंवा दी। इस स्थिति को टाला जाना चाहिए था। सवाल यह है कि इस चुनाव के नतीजों के बाद भाजपा के लिए आगे की राह क्या हो?

नि:संदेह यह उसके मनोबल को कुछ समय के लिए कमजोर कर सकता है, लेकिन नतीजों में उसके लिए कुछ सबक भी हैं। पहली बात तो यह कि जिन तात्कालिक कारकों जैसे-सहयोगी दलों से गठबंधन न हो पाना अथवा पार्टी के अंदर की बगावत ने पार्टी की संभावनाओं पर सबसे ज्यादा असर डाला, उसे सकारात्मक कदम उठाकर आसानी से दुरुस्त किया जा सकता है। दूसरी बात यह है कि भले ही उसे संथाल क्षेत्र की 18 सीटों पर आशानुरूप सफलता न मिली हो, किंतु हारी हुई कई सीटों पर उसने हार का अंतर पिछले विधानसभा चुनाव से कम किया है। जाहिर है कि जिस तरह से वह पिछले कुछ समय से झामुमो के आदिवासियों की एकमात्र पार्टी होने के दावों को चुनौती देती आई है, वह चुनौती तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद आज भी कायम है। यही वह जगह है, जहां से भाजपा को अब आगे बढ़ना है।

यह सही है कि भाजपा की सरकार ने झारखंड में निवेश को बढ़ाने तथा इसके द्वारा रोजगार के नए अवसरों के सृजन के उद्देश्य से सीएनटीएसपीटी एक्ट में कुछ संशोधन का प्रस्ताव किया था, लेकिन इस पर आदिवासी समाज की आपत्ति को देखते हुए उसने अपने कदम पीछे भी खींच लिए थे। इसके बाद भी विपक्ष ने इस मुद्दे पर आदिवासियों को भड़काने का काम जारी रखा, जो विधानसभा चुनाव के परिणामों के आधार पर कहा जा सकता है कि सफल भी रहा।

[राजकीय अनुसूचित जनजाति उच्च विद्यालय, गोपीकांदर, झारखंड]

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