[ ब्रिगेडियर आरपी सिंह ]: लंदन में 12 अगस्त को खालिस्तान के समर्थन में हुई रैली में ‘खालिस्तान रेफरेंडम 2020’ को सिरे चढ़ाने का एलान हुआ। इसे ‘लंदन घोषणापत्र’ भी कहा गया जिसका लक्ष्य सिखों के लिए एक अलग देश की स्थापना करना है। इसका आयोजन अमेरिका के सिख फॉर जस्टिस (एसएफजे) नामक संगठन ने किया, जिसे पाकिस्तान की कुख्यात एजेंसी आइएसआइ का पूरा सहयोग मिला। इसमें लॉर्ड नाजिर अहमद वक्ता के तौर पर शामिल हुए। वह इससे पहले इस साल गणतंत्र दिवस के अवसर पर भी भारतीय उच्चायोग पर भारत विरोधी रैली कर चुके हैं। ग्रीन पार्टी की नेता कौरोलिन लुकास और लेबर सांसद मैट वेस्टर्न ने भी एसएफजे की मांग का समर्थन किया। खालिस्तान समर्थक इस रैली में करीब 2,000 लोगों ने ही हिस्सा लिया।

ब्रिटेन में सिखों की लगभग साढे़ चार लाख की आबादी को देखते हुए यह संख्या बेहद मामूली है, फिर भी इसे हल्के में लेकर खारिज नहीं किया जा सकता। एसएफजे को आइएसआइ का समर्थन यही दर्शाता है कि पाकिस्तान में सरकार बदलने के बावजूद उसकी भारत विरोध की नीति में कोई बदलाव नहीं आने वाला। इस नीति के पीछे पाकिस्तानी फौज है। आइएसआइ के लेफ्टिनेंट कर्नल शाहिद महमूद मलाही को यह जिम्मा सौंपा गया है कि वह अमेरिका, कनाडा और यूरोपीय देशों में फैले सिखों को लामबंद कर खालिस्तान की मांग को फिर से धार दें।

खालिस्तान की मांग कोई नई नहीं है। अंग्र्रेजों ने 1931 में पहले गोलमेज सम्मेलन के दौरान सिखों को इसके लिए उकसाया। जिन्ना ने भी सिखों को अपने लिए अलग देश की मांग के लिए लुभाने की कोशिश की, लेकिन उनकी दाल नहीं गली। वे पाकिस्तान भी नहीं गए। 1940 में वीर सिंह भट्टी ने खालिस्तान शब्द को गढ़ा था। हालांकि बहुसंख्यक सिखों ने इस विचार को ही खारिज कर दिया। यहां तक कि 1950 और 1960 के दशक में ‘पंजाबी सूबे’ की मांग कर रहे सिख नेताओं ने उस दौर में भी कभी अलग देश की मांग नहीं की। सोवियत संघ की ओर इंदिरा गांधी के झुकाव और 1971 में भारत की मदद से बांग्लादेश निर्माण से झल्लाए अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने सीआइए को निर्देश दिया कि वह आइएसआइ के साथ मिलकर पंजाब में अलगाववाद की आग भड़काए। भारत के घरेलू हालात के चलते आइएसआइ को खालिस्तान को लेकर माहौल भड़काने में खासी मदद मिली। 1972 में पंजाब में चुनाव हारने के बाद शिरोमणि अकाली दल यानी शिअद ने पार्टी के सिख रुझान को और मजबूत बनाने की ठानी।

इसी कड़ी में 1973 में आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया गया। उसमें सिखों को एक कौम यानी मुल्क के तौर पर परिभाषित किया गया। साथ ही कुछ विशेष राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक मुद्दों के संदर्भ में केंद्र से और अधिकार भी मांगे गए। 1970 का दशक जरनैल सिंह भिंडरावाले के उदय का भी साक्षी बना। सिखों के वोट हासिल करने और अकाली दल को कमजोर करने के लिए कांग्रेस ने भिंडरावाले को समर्थन दिया। भिंडरावाले के दल खालसा के शुरुआती आयोजनों को संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह ने सभी तरह की मदद मुहैया कराई। इसका नतीजा यह हुआ कि भिंडरावाले का कद कुछ ज्यादा ही बढ़ गया।

कुछ समय बाद भिंडरावाले ने आतंकी दस्ते बना लिए जो सुरक्षा बलों को चुनौती देने लगे। इंदिरा गांधी ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव को विभाजनकारी दस्तावेज मानते हुए उसे पंजाब को भारतीय संघ से अलग करने की साजिश के तौर पर देखा। उन्होंने शिअद को अलगाववादी पार्टी माना जबकि शिअद ने आधिकारिक रूप से कहा कि सिख पूरी तरह भारतीय हैं और आनंदपुर साहिब प्रस्ताव का अलग खालिस्तान देश से कोई लेना-देना नहीं।

पंजाब में हालात तब और बिगड़ने शुरू हुए जब भिंडरावाले ने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ही अपना मुख्यालय बना लिया। अलगाववादी मंदिर परिसर में हथियार जमा करते रहे जिस पर इंदिरा गांधी ने शुरुआत में कुछ नहीं किया। बाद में 4 से 6 जून, 1984 को उन्होंने ऑपरेशन ब्लू स्टार को मंजूरी दी जिसका मकसद 1985 में होने वाले चुनाव जीतना था, क्योंकि कुप्रशासन के कारण उनकी छवि खराब होती जा रही थी। आतंकियों को बाहर निकालने के जब तमाम अन्य विकल्प भी आजमाए जा सकते थे तब यह आत्मघाती और अनुत्पादक ही था। ब्लू स्टार उनकी हत्या और फिर सिखों के नरसंहार की वजह बना। हजारों सिख दंगों की भेंट चढ़ गए और पीड़ितों को आज तक इंसाफ का इंतजार है।

बहरहाल 1990 के दशक के मध्य में खालिस्तान की मांग ने भी दम तोड़ दिया। इसमें सुरक्षा बलों के प्रयासों और सुपरकॉप के नाम से मशहूर केपीएस गिल ने अहम भूमिका निभाई। कनाडा और यूरोपीय देशों में खालिस्तान की मांग अभी भी कुछ सांसें ले रही है। खालिस्तानियों को लेकर कनाडा सरकार का रवैया नरम है। ब्रिटेन में उन्हें वामपंथी दलों का समर्थन हासिल है।

रेफरेंडम 2020 पर आइएसआइ मोटी रकम खर्च कर रही है जिसे 6 जून, 2020 को लांच किया जाएगा। यह तारीख इसलिए चुनी गई, क्योंकि यह ऑपरेशन ब्लू स्टार की तीसवीं बरसी होगी। कांग्रेस राज में 1984 के दंगा पीड़ितों के साथ इंसाफ न होना भी अलगाववादियों के जुटाव की एक बड़ी वजह है। सरकारें दंगा पीड़ितों के घावों पर मरहम लगाने में नाकाम रही हैं। इससे पहले कि सिख अलगाववाद का दानव फिर से सिर उठाकर भारत को परेशान करना शुरू करे, उससे निपटने के लिए भारत को घरेलू, कूटनीतिक और सामरिक स्तर पर कड़े और त्वरित कदम उठाने होंगे।

घरेलू स्तर पर सरकार सिखों की समस्याओं का समाधान करे जिनमें 1984 के नरसंहार के दोषियों को सजा और पीड़ितों को इंसाफ दिलाया जाए। चंडीगढ़ के साथ ही हिमाचल, हरियाणा और राजस्थान के पंजाबी भाषी क्षेत्र पंजाब को दिए जाएं। नदी जल विवाद का भी हल निकालना होगा। राजनीति में सक्रिय खालिस्तान समर्थकों से भी कड़ाई से निपटा जाना चाहिए। कूटनीतिक स्तर पर मोदी ब्रिटेन, कनाडा और अन्य देशों के साथ मिलकर अलगाववादियों के मंसूबों को नाकाम करें। उन्हें चेतावनी दें कि ऐसा न होने पर परस्पर संबंधों पर इसका नकारात्मक असर होगा।

पाकिस्तान को अलग-थलग करने में उन्हें अपनी कोशिशों को दोगुनी रफ्तार देनी होगी। बलूचिस्तान, गिलगित-बाल्टिस्तान और खैबर पख्तूनवा में भारत असंतोष को हवा दे जहां पाक सेना दमनचक्र चला रही है। मोदी को लालकिले से किया अपना वादा अवश्य पूरा करना चाहिए जिसमें उन्होंने बलोचों को आजादी का सपना दिखाया था। यदि भारत उनकी आजादी की मुहिम में मदद कर रहा है तो यह बहुत गैर-पेशेवराना है, क्योंकि जमीनी स्तर पर कोई सफलता मिलती नहीं दिख रही है।

यदि भारत वहां अलगाववाद को हवा नहीं देता तो उसे तुरंत ऐसा करना चाहिए, क्योंकि पाक को यही जुबान समझ में आती है। चूंकि गुरुनानक देव की 550वीं जयंती पर ननकाना साहिब दर्शन हेतु सिखों के लिए सीमा खोलने की पेशकश खालिस्तानी आंदोलन को हवा देने के लिए हो सकती है इसलिए सरकार को सतर्क रहना चाहिए।

[ लेखक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी हैं ]