डॉ. रमेश ठाकुर। कोङिाकोड विमान हादसे ने विमानन क्षेत्र को अपने ढांचे में सुधार करने के संकेत दिए हैं। यह सच है कि विमानन क्षेत्र में पिछले एक दशक में काफी सुधार हुआ है। फिर भी अनेक विकसित देशों के मुकाबले हमारा विमानन क्षेत्र अभी भी विश्वस्तरीय मानकों के अनुरूप नहीं हो पाया है। देश में दिल्ली और मुंबई जैसे गिनती के अंतरराष्ट्रीय स्तर के हवाईअड्डों को छोड़ दें, तो शेष की हालत दयनीय है। एविएशन सेक्टर में भारी संभावनाएं हैं।

इंटरनेशनल एयर ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन की ओर से जारी साल 2018 की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत के घरेलू उड्डयन बाजार ने लगातार चौथे साल 18.6 प्रतिशत की सबसे तेज वृद्धि दर हासिल की है। फिर भी हमारा एविएशन सेक्टर अविश्वसनीय है। आखिर क्यों? बीते एक दशक से देश में हवाई यात्रियों में भारी वृद्धि होने के बाद भी टियर-2 और टियर-3 श्रेणी के बहुत से शहरों को हवाई रूटों से नहीं जोड़ा गया।

विमानन क्षेत्र आधुनिक तकनीकों से लैस होने के बावजूद व्यापक कमियों का शिकार होता नजर आ रहा है। कोङिाकोड जैसे हादसे उसी का परिणाम हैं। इससे भारतीय विमानन नेटवर्क को सतर्क हो जाना चाहिए। घटना के संभावित पहलुओं की पहचान कर उन्हें दुरुस्त करना चाहिए। इस हादसे की शुरुआती रिपोर्ट बताती है कि रनवे छोटा होने के कारण हादसा हुआ। एयरपोर्ट का रनवे अगर लंबा होता, तो हादसा नहीं होता। हालांकि कई वर्षो से रनवे को लंबा करने की मांग हो भी रही है।

मालूम हो कि कोङिाकोड एयरपोर्ट का रनवे 8,800 फुट लंबा है। विमानन क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि छोटे रनवे पर बारिश में हवाई जहाज की लैंडिंग कराना बहुत जोखिम भरा काम होता है। बारिश में रनवे पर पानी जमा होने या उसके भीग जाने पर हवाई जहाज के पहियों के फिसलने की आशंका बढ़ जाती है। करीब एक दशक पहले ही मंगलुरु के एयरपोर्ट पर भी कुछ ऐसा ही हादसा हुआ था। एयर इंडिया का एक विमान दुबई से आते वक्त रनवे को पार करते हुए पास की पहाड़ियों में जा गिरा था, जिसमें 158 लोगों की मौत हुई थी। उस हादसे से भी एयरपोर्ट अथॉरिटी ने कोई सबक नहीं सीखा।

मंगलुरु और कोङिाकोड के हादसों के बाद भी अगर कोई सतर्कता नहीं दिखाई गई, तो ऐसे दर्दनाक हादसों की पुनरावृत्ति होती रहेगी और हवाई यात्री असमय मारे जाते रहेंगे। केंद्र सरकार ने हाल ही में देश भर के एयरपोर्ट की सुरक्षा की समीक्षा की थी। रिपोर्ट में सामने आया था कि कई ऐसे रनवे हैं जो बोईंग विमानों का भार ङोलने के लायक नहीं हैं। बोईंग विमानों का वजन 70 से 100 टन तक होता है। लैंडिंग के समय तेजी से इतना भार जमीन पर पड़ता है जिस कारण रनवे बेहद मजबूत बनाए रखना होता है। बारिश में छोटे रनवे बड़ी परेशानी का सबब बनते हैं। खराब मौसम में जब ये विमान लैंड करते हैं, तो रनवे पर उनके टायरों की रबड़ उतर जाती हैं, जिससे ब्रेक लगाते समय विमानों के फिसलने की आशंका बढ़ जाती है। यदि रनवे की लंबाई पर्याप्त हो तो पायलट वायुयान पर अपना नियंत्रण कायम रखने में कामयाब रहता है।

कोङिाकोड एयरपोर्ट के आसपास बहुत ज्यादा हरियाली है, इसलिए वहां अन्य हवाईअड्डों के मुकाबले दृश्यता कुछ कम रहती है। ऐसे में हादसे की आशंका हमेशा बनी रहती है। इतना सबकुछ जानने के बाद एयरपोर्ट प्रबंधन आंख मूंद कर बैठा रहता है, अगले हादसे का इंतजार करता रहता है और देखते-देखते हादसा हो भी जाता है। ऐसे में हमें उन हवाईअड्डों से सीखना चाहिए जिनका निर्माण व्यापक निवेश करके किया तो गया, लेकिन तकनीकी मानकों पर खरा नहीं उतरने के कारण वहां से हवाई सेवाओं पर रोक लगा दी गई। सिक्किम में पाक्योंग एयरपोर्ट का 2018 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उद्घाटन किया, लेकिन कुछ माह के बाद ही इसमें कई तकनीकी खामियां सामने आईं, जिसके बाद यहां से उड़ानों के संचालन को सीमित कर दिया गया। ऐसे में होना तो यह चाहिए था कि कम से कम इसी बहाने देश के अन्य सभी जोखिम वाले हवाईअड्डों की पहचान की जाती और उनकी कमियों को दूर किया जाता।

संबंधित विशेषज्ञों द्वारा अक्सर ही यह कहा जाता है कि भारत में विमानन सेवाओं के अभी व्यापक विस्तार की संभावनाएं हैं। खासकर गोरखपुर, वाराणसी, प्रयागराज, आगरा, रांची, दरभंगा, पिथौरागढ़, पंतनगर, बरेली और जबलपुर समेत देश के पूवरेत्तर राज्यों के टीयर-2 और टीयर-3 के अनेक शहरों में इसके विस्तार की असीम संभावनाएं हैं। लेकिन यदि इस क्षेत्र में तकनीकी मानकों को दरकिनार किया गया और इस तरह से हादसे होते रहे जिसमें यह स्पष्ट हो कि हादसे की वजह रनवे के डिजाइन में ही खामी है, तो फिर हवाई यात्रियों के मन भी अनेक आशंकाएं पैदा हो सकती हैं। हवाई हादसे अब रेल हादसों की तरह आम होते जा रहे हैं। वैसे देखा जाए तो पिछले दो-तीन वर्षो में रेलवे ने इस दिशा में पर्याप्त प्रगति की है और हादसों की संख्या में बेहद कमी आई है।

विमान दुर्घटनाओं के बाद जब जिम्मेदारी लेने की बात आती है तो सरकारें यह कहकर अपना पल्ला झाड़ लेती हैं कि इसमें निजी विमान कंपनियों की भी हिस्सेदारी है। ऐसे में हवाईजहाज संचालन से संबद्ध सभी एजेंसियों को एकीकृत रूप से तमाम समस्याओं की पहचान करनी होगी और समय रहते उनका समाधान तलाशना होगा।

[वरिष्ठ पत्रकार]