[ ए. सूर्यप्रकाश ]: मोदी सरकार द्वारा जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के ऐतिहासिक कदम को छह सप्ताह बीत गए हैं। इस महत्वपूर्ण कदम पर वैश्विक एवं घरेलू प्रतिक्रियाओं की पड़ताल करें तो यही अहसास होगा कि जवाहरलाल नेहरू और बाद में नेहरूवादियों के अनिर्णय के कारण भारत को कितनी बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी। बीते पांच वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने वैश्विक कूटनीति के मोर्चे पर जो भागीरथ प्रयास किए वे तब फलीभूत होते हुए दिखे जब उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को आश्वस्त किया कि जम्मू-कश्मीर में उठाया गया कदम भारत का आंतरिक मामला है। यह बात उन्होंने कहीं अधिक जोरदारी से अमेरिकी राष्ट्रपति के समक्ष ह्यूस्टन की उस सभा में भी कही जिस पर सारी दुनिया की निगाह थी।

जानिए, ‘कश्मीर विवाद’ क्या है

ऐतिहासिक तथ्य यह है कि 1947 में अविभाजित भारत में सभी रियासतों को यह विकल्प दिया गया था कि वे भारत या पाकिस्तान में अपना विलय कर सकते हैं या स्वतंत्र रह सकते हैं। कुल 564 रियासतों ने भारतीय संघ में विलय किया। इनमें जम्मू-कश्मीर रियासत भी शामिल थी जिसने 26 अक्टूबर, 1947 को विलय संधि पर हस्ताक्षर किए। जम्मू-कश्मीर के भारत का हिस्सा बनने पर पाकिस्तान खिन्न था। लिहाजा उसने उसे बलपूर्वक हथियाने की चाल चली। उसने राज्य का कुछ हिस्सा कब्जा भी लिया। चूंकि राज्य ने भारत में विलय कर लिया था तो उसका पाक के कब्जे वाला हिस्सा अवैध है जिसे पीओके कहा जाता है। भारत को इसे फिर से हासिल करना होगा। यही ‘कश्मीर विवाद’ है।

जम्मू-कश्मीर से जुड़ा मसला भारत का आंतरिक मामला

कश्मीर विवाद की चर्चा जरूरी है, क्योंकि दिल्ली की सत्ता पर लंबे समय तक काबिज नेहरूवादी, कांग्रेस पार्टी और मार्क्सवादियों ने पाकिस्तान को यह गुंजाइश दी कि वह दुष्प्रचार करता रहे कि भारत में जम्मू-कश्मीर का विलय विवादित है, जबकि यह राज्य वैध तरीके से भारतीय संघ में शामिल हुआ। मोदी सरकार ने इस स्थिति को सुधारने की दिशा में उल्लेखनीय काम किया। यही वजह है कि तमाम देशों ने यह एलान किया कि जम्मू-कश्मीर से जुड़ा मसला भारत का आंतरिक मामला है। इनमें अमेरिका, रूस, ऑस्ट्रेलिया, फ्रांस, जर्मनी, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश शामिल हैं। वहीं पड़ोसियों में श्रीलंका, नेपाल, भूटान, बांग्लादेश और मालदीव ने एक सुर में कहा कि यह भारत का अंदरूनी मामला है।

अशांत जम्मू-कश्मीर को दुरुस्त किया गया

अंतरराष्ट्रीय समुदाय को अब यह मालूम पड़ा कि पूरे राज्य का महज 14 प्रतिशत हिस्सा ही कश्मीर घाटी में आता है और यहां होने वाली अप्रिय घटनाओं का केंद्र भी मुख्य रूप से घाटी के चार-पांच जिलों तक सिमटा हुआ है। यह नेहरूवादियों की नाकामी ही थी कि पूरी दुनिया में यह धारणा बनी कि समस्त जम्मू-कश्मीर राज्य ही अशांत था। अब इसे दुरुस्त किया गया है।

कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा

शेख अब्दुल्ला के दौर से ही जम्मू-कश्मीर के नेताओं ने अपने निजी हितों की खातिर अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 ए को कायम रखने पर पूरा जोर दिया गया। ये नेता मुख्य रूप से कश्मीर घाटी के थे। इन नेताओं ने राज्य के जनसांख्यिकीय तानेबाने को बिगाड़े रखने के मकसद से अपनी मुहिम को इस तरह चलाया कि उनके हिस्से में पंथनिरपेक्ष एवं लोकतांत्रिक परंपराएं न पनपने पाएं। ये नेता कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा पर चुप्पी साधे रहे। राज्य के इन हिंदू अल्पसंख्यकों को तीस साल पहले उनके घरों से बेदखल कर दिया गया था। इन नेताओं ने कश्मीरी पंडितों की सुरक्षित वापसी सुनिश्चित करने की दिशा में भी कुछ नहीं किया। वे इसी बात से खुश थे कि कश्मीर घाटी पूरी तरह मुस्लिम बहुल बन गई है।

असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण प्रावधान

अनुच्छेद 370 हटने के बाद देश और दुनिया कोे यह पता चल रहा है कि ये प्रावधान कितने असंवैधानिक और भेदभावपूर्ण थे। जैसे यह सुनकर झटका लगा कि आर्थिक रूप से पिछड़े कुछ वर्गों के लिए शैक्षणिक संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान राज्य में लागू ही नहीं किया गया था। दूसरा साफ-सफाई के काम में लगे वाल्मीकि समुदाय को पुरानी व्यवस्था में स्थाई निवासी का दर्जा ही नहीं दिया गया। इस समुदाय के लोग लोकसभा चुनाव में तो मतदान कर सकते थे, लेकिन विधानसभा चुनाव में नहीं। इसके अलावा कोई कश्मीरी महिला यदि राज्य के बाहर के किसी व्यक्ति से विवाह करती तो उसे अपना स्थाई निवासी का दर्जा गंवाना पड़ता और उसकी संतानों से भी ये अधिकार छिन जाते। वहां और भी ऐसे तमाम प्रावधान थे जो पक्षपाती और असंवैधानिक थे।

अनुच्छेद 370 और 35ए पक्षपाती साबित हुए

अनुच्छेद 370 और 35ए शेष भारत के अन्य नागरिकों के लिए भी पक्षपाती साबित हुआ। जहां कश्मीरी देश के बेहतरीन शैक्षणिक संस्थानों में पढ़ सकते थे और भारत में कहीं भी रोजगार हासिल कर वहां बस सकते थे, वहीं शेष भारत के नागरिकों के लिए कश्मीर में ऐसे अवरोध थे। उन्हें न तो कश्मीरी कॉलेजों में प्रवेश मिल सकता था और न ही वे वहां रोजगार हासिल कर सकते। उन्हें वहां संपत्ति खरीदने और बसने का अधिकार भी नहीं था। आप पूरे भारत में विशेषकर पर्यटन स्थलों पर तमाम कश्मीरी कारोबारियों को देख सकते हैं, लेकिन दूसरे राज्यों के भारतीयों को कश्मीर में कारोबार करने की मनाही थी।

हिंदू अल्पसंख्यकों, कश्मीरी महिलाओं के लिए आवाज बुलंद नहीं हुई

यह वास्तव में बेहद शर्मनाक है कि कश्मीर घाटी के जो नेता लोकतंत्र को लेकर कर्कश राग अलापते रहते हैं, उन्होंने कभी हिंदू अल्पसंख्यकों, वाल्मीकि समुदाय या कश्मीरी महिलाओं के अधिकारों के लिए आवाज बुलंद नहीं की। न ही उन्होंने अन्य भारतीयों के साथ हो रहे भेदभाव को खत्म करने के लिए कोई पहल की। अपने यहां अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने के लिहाज से शालीनता और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी प्रदर्शित करने वाले इन नेताओं ने देश के दूसरे हिस्सों में लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता पर हमलों को लेकर दुख जताकर अपने आंसू अवश्य बहाए। यह और भी शर्म की बात है कि कुछ मीडिया संस्थानों, खासतौर से अंग्र्रेजी समाचार चैनलों पर, जहां ये नेता अक्सर दिखाई पड़ते थे, यह सवाल नहीं पूछा जाता था कि अगर भारत के इकलौते मुस्लिम बहुल प्रांत से अल्पसंख्यक हिंदुओं को बेदखल कर दिया जाएगा तो भारत की पंथनिरपेक्ष परंपराओं को कैसे सहेजकर रखा जा सकता है?

अनुच्छेद 370 हटने से कश्मीर घाटी के नेताओं की कलई खुली

इन मीडिया संस्थानों ने इन नेताओं को लगातार मंच प्रदान किया कि वे देश के दूसरे हिस्सों को लेकर विषवमन करते रहें और वे अपने राज्य में हिंदू अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की जवाबदेही से मुक्त रहें। अनुच्छेद 370 हटाने की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि कश्मीर घाटी के उन पाखंडी नेताओं की कलई खुली जिन्होंने शेष भारत के लोगों को कश्मीर घाटी नहीं आने दिया और अपने लिए लुटियन दिल्ली में स्थाई आशियाने बना लिए। यह शर्मनाक है कि तथाकथित सेक्युलर लोग इन नेताओं को सेक्युलरिज्म के प्रतीक के रूप में पेश करते रहे। पीएम मोदी और गृहमंत्री अमित शाह का शुक्रिया कि घाटी के इन पाखंडियों का असली चेहरा सामने आ गया। अब लुटियन दिल्ली से भी उनके पैर उखड़ने चाहिए।

( लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं )