दिव्य कुमार सोती

भारत पिछले 1,200 वर्षों से लगातार उत्तर-पश्चिम देशों से होने वाले इस्लामी हमलों का शिकार रहा है। सिख-ब्रिटिश सैनिक गठजोड़ की अफगानिस्तान में कामयाबी और ब्रिटिश राज द्वारा कुशलतापूर्वक उत्तर-पश्चिमी सीमा सील किए जाने के कारण तकरीबन एक सदी तक इन पर विराम लगा, लेकिन पाकिस्तान का निर्माण होते ही भाड़े के कबाइलियों की मदद से कश्मीर के जरिये उत्तर-पश्चिम से एक बार फिर आक्रमण शुरू हो गए। पाकिस्तान प्रायोजित सीमा पार आतंकवाद को इस ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखना जरूरी है। पाकिस्तान का निर्माण करने वाले सिर्फ द्विराष्ट्रवाद के पैरोकार नहीं थे, बल्कि पूरे विश्व और मानवजाति को इस्लामी और गैर इस्लामी भागों में विभाजित करके देखने के आदी थे। इसलिए उन्होंने इस्लामी जगत और धर्मनिरपेक्ष भारत के मुहाने पर स्थित मुस्लिम बहुल कश्मीर घाटी को कब्जाने की ठानी। यही कारण है कि कश्मीर में सलाफी वहाबी इस्लाम के प्रचार के लिए अरब जगत से खूब पैसा भेजा गया, परंतु नई दिल्ली में कश्मीर को राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समस्या मान कर ही हल खोजे जाते रहे। नेहरू अनुच्छेद 370 के अंतर्गत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देकर पाकिस्तान और पूरे विश्व को दिखाना चाहते थे कि किस तरह द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत गलत था और विशेष रियायतें लेकर पाकिस्तान का हिस्सा बने मुस्लिम बहुल राज्य भी आराम से भारतीय संघ का हिस्सा रह सकते थे। यहां नेहरू ने न सिर्फपाकिस्तान के वैश्विक जेहादी नजरिये को समझने में बड़ी चूक कर दी, बल्कि वही गलती दोहरा दी जो कि कांग्रेस ने 1932 में कम्युनल अवार्ड को स्वीकार करके की थी, जिसके तहत मुस्लिमों को अपने अलग जनप्रतिनिधि चुनने का अधिकार मिला था जो कि अंतत: देश के बंटवारे का मुख्य कारण बना।
पाकिस्तान के हुक्मरान पहले दिन से खुद को मोहम्मद बिन कासिम, महमूद गजनवी और मुगल आक्रांताओं का उत्तराधिकारी मानते रहे और उन्हीं की तरह मध्य एशिया से सिंधु नदी तक एक इस्लामी राज्य बनाकर भारत में फिर से प्रवेश की योजना बनाते रहे। इसके दो कारण थे। पहला यह कि पाकिस्तान को पानी मुहैया कराने वाली नदियां कश्मीर से होकर बहती हैं। अत: पाकिस्तान इस प्रदेश पर कब्जा चाहता था। दूसरा यह कि हम लाख कश्मीरियत की दुहाई दें, पर वहां सदियों से एक सांप्रदायिक समस्या के कीटाणु मौजूद थे। 19 जनवरी, 1990 को जब कश्मीरी पंडितों को अपने घर-बार छोड़कर भागना पड़ा था तो यह पहली बार नहीं था, बल्कि कश्मीर के पिछले 700 साल के इतिहास में सातवीं बार हिंदू अल्पसंख्यकों को पलायन करना पड़ा था। हमने तो इस इतिहास की कभी चर्चा तक नहीं, पर पाकिस्तान ने इसे लपककर कश्मीर में इस्लामी कट्टरपंथ को खूब हवा दी। इसके लिए वहाबी सलाफी मस्जिदों और मदरसों का पूरा नेटवर्क खड़ा किया गया।
अनुच्छेद 370 ने सदा के लिए यह सुनिश्चित किया कि कश्मीर मुस्लिम बहुल ही रहेगा। जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के मुकाबले नेहरू सरकार ने कश्मीर में मुस्लिम उपराष्ट्रवाद खड़ा करने की नादानी कर डाली। रही सही कसर शेख अब्दुल्ला सरकार ने मनमाने तरीके से जम्मू, कश्मीर घाटी और लद्दाख के बीच विधानसभा सीटों का इस तरह बंटवारा करके पूरी कर दी कि राज्य की राजनीति में हमेशा कश्मीर के मुस्लिम नेताओं का ही वर्चस्व रहे। जब पाकिस्तान ने अलगाववाद को हवा दी तो घाटी के मुस्लिम राजनेताओं ने चुनावों में पर्दे के पीछे से अलगाववादियों से सहयोग लेना शुरू किया। भारतीय संसद के कानूनों की पहुंच से दूर, भारत के बहुसंख्यक गैर मुस्लिम समाज से पूरी तरह कटे और इस्लामिक कट्टरपंथी प्रचार से उपजे घृणा बोध के साथ बड़े हुए स्कूली बच्चे अगर बगदादी की तरह एक मध्ययुगीन इस्लामिक राज्य की स्थापना का सपना देखने वाले बुरहान वानी के समर्थन में पत्थर उठा रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? यह तो होना ही था। पाकिस्तान अपने घटकों के साथ कैसी बर्बरता करता है, यह हम कश्मीरी बच्चों को 1971 में पाक फौज द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में 25 लाख बंगाली मुसलमानों के नरसंहार की कहानी सुना बता सकते थे। हम गुलाम कश्मीर और गिलगिट-बाल्टिस्तान में पाक फौज द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को चर्चा का केंद्र बना सकते हैं अगर जम्मू-कश्मीर विधानसभा में खाली पड़ी इन क्षेत्रों की सीटों पर वहां के कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को नामित कर दें और वह पाकिस्तान की बर्बरता का आंखों देखा हाल सदन में सुनाएं। हम भला कश्मीरियों को साफ-साफ क्यों नहीं बताते कि पाकिस्तान उनकी नदियों पर कब्जा करना चाहता है और इस तथ्य से ध्यान भटकाने के लिए वहाबी इस्लाम को फैला रहा है। पाकिस्तान से होने वाली आतंकी घुसपैठ को रोकने के लिए हम सीमा पर बाड़ लगा रहे हैं, पर कट्टर इस्लाम के प्रसार के लिए पाकिस्तान और खाड़ी देशों से आ रहे पैसे के प्रवाह को क्यों नहीं रोकते? पाकिस्तान हमारे विरुद्ध सैन्य सफलता तो हासिल नहीं कर सका, परंतु सलाफी इस्लाम की विचारधारा के साथ-साथ कश्मीर में धंसा चला जा रहा है।
अब बीमारी इतनी पुरानी हो चुकी है कि इसका इलाज तब तक संभव नहीं जब तक जम्मू-कश्मीर में जनसंख्या के असंतुलन को दूर न किया जाए और जम्मू और लद्दाख को राजनीतिक और आर्थिक रूप से सशक्त बनाकर घाटी के नेताओं और अलगाववादियों के प्रभाव में कटौती न की जाए। विधानसभा सीटों का नए सिरे से परिसीमन किया जाए। परिसीमन प्रक्रिया में जनसंख्या, सीटों पर मतदाताओं की औसत संख्या और क्षेत्रफल आदि के अनुसार जम्मू के हिस्से में अधिक विधानसभा सीटें आनी चाहिए। यह भी जरूरी है कि जम्मू क्षेत्र को बेंगलुरु और हैदराबाद की तर्ज पर औद्योगिक जोन के रूप में विकसित किया जाए जहां देश भर के पेशेवर कामगार आकर्षित हों। इसे एक आर्थिक कॉरिडोर के जरिये पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, दिल्ली और उत्तर-प्रदेश से जोड़ा जा सकता है। विश्व भर में फैले यहूदी व्यापारियों ने अरब देशों के बीच दो हजार साल बाद इजरायल की पुनस्र्थापना में मुख्य भूमिका निभाई थी। कश्मीर समस्या को सुलझाने में हमारे उद्योगपति बड़ी भूमिका निभा सकते हैं।
[ लेखक काउंसिल फॉर स्ट्रेटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं ]