प्रमोद भार्गव। हाल ही में कर्नाटक में कांग्रेस की सिद्धरमैया सरकार ने लिंगायत और वीरशैव समुदाय को हिंदुओं से पृथक धर्म की मान्यता देने के संबंध में बड़ा राजनीतिक दांव खेला है। इस पर पलटवार करते हुए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि कांग्रेस ने यह कदम लिंगायतों की भलाई के लिए नहीं, बल्कि भाजपा के नेता व कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दयुरप्पा फिर से मुख्यमंत्री न बनें, इसीलिए उठाया है। यहां उल्लेखनीय है कि येद्दयुरप्पा स्वयं लिंगायत समुदाय से हैं और उनका इस समुदाय की करीब 17 प्रतिशत आबादी पर मजबूत पकड़ है। कर्नाटक सरकार की सिफारिश के बाद गेंद अब केंद्र सरकार के पाले में है। निर्वाचन आयोग द्वारा कर्नाटक विधानसभा चुनाव का एलान कर दिए जाने के बाद आदर्श आचार संहिता लागू हो गई है, लिहाजा सरकार इस बाबत चुनाव परिणाम आने तक कोई फैसला नहीं ले पाएगी। नतीजतन सिद्धरमैया ने दांव जरूर चल दिया है, लेकिन लाभ कितना होगा यह 15 मई को चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा।

80 सीटों पर लिंगायत सुमदाय का प्रभुत्व

इस कदम से चुनाव में कांग्रेस को भले ही फायदा हो या न हो, लेकिन येद्दयुरप्पा को जरूर लाभ हो गया है। भाजपा ने उन्हें अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित किया है। भाजपा के पास सिद्धरमैया द्वारा चले दांव की एकमात्र यही काट थी। दरअसल कर्नाटक विधानसभा की 224 सीटों में से करीब 80 पर लिंगायत समुदाय का प्रभुत्व है। यह समुदाय बीच-बीच में हिंदू धर्म से अलग होने की मांग करता रहा है। इनकी मांगों के आधार पर ही न्यायमूर्ति नागमोहन दास समिति की सिफारिशों के तहत सिद्धरमैया सरकार ने इस प्रस्ताव को अंतिम स्वीकृति के लिए केंद्र सरकार के पास भेजा है, जबकि नवंबर 2013 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने इस संदर्भ में कहा था कि अलग धर्म का दर्जा देने से हिंदू समाज और बंट जाएगा।

जानकार कर रहे सिद्धरमैया की आलोचना

अब तात्कालिक राजनीतिक स्वार्थपूर्ति के लिए कांग्रेस पांच साल पहले किए गए फैसले से पलट रही है। इस सिलसिले में महापंजीयक व जनगणना आयुक्त ने भी एक पत्र कर्नाटक सरकार को 14 नबंवर, 2013 को लिखा था, जिसमें लिंगायत और वीरशैवों को हिंदू समुदाय बताया गया था। इस नाते उन्हें अलग धर्म का दर्जा देना नामुमकिन है। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगड़े ने भी इस समुदाय को हिंदुओं से अलग धर्म का दर्जा दिए जाने की सिफारिश पर सिद्धरमैया सरकार की अलोचना की है। उनका कहना है कि किसी भी समुदाय को धर्म का दर्जा देना सरकार का काम नहीं है। संविधान के अंतर्गत कोई भी सरकार एक धर्मनिरपेक्ष सरकार है। इस लिहाज से किसी भी समुदाय के आंतरिक मामले में कोई भी राजनीतिक दल या सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती है।

धर्मगुरु बासवन्ना के अनुयायी

दक्षिण के कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र और केरल तक फैले इस समुदाय को प्रभावशाली समुदाय माना जाता है। लिंगायत और वीरशैव 92 उपजातियों में बंटे हैं। हालांकि दोनों समुदायों की पूजा पद्धति में थोड़ी भिन्नता है। इस दृष्टि से लिंगायतों में यह विचार मंथन भी चल रहा है कि आखिर 12वीं सदी में बदलाव लाने वाले धर्मगुरु बासवन्ना की वास्तविक शिक्षाएं क्या हैं? दरअसल बासवन्ना जाति व्यवस्था, पितृसत्तामक मूल्यों के आलोचक थे। उन्होंने मूर्ति पूजा का भी भारी विरोध किया था। उस विरोध के फलस्वरूप पूरे दक्षिण भारत में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया, जो कालांतर में नवजागरण का प्रतीक बना। बदलाव के इस क्रम में जो नई धार्मिक मान्यताएं सामने आईं, उनके परिप्रेक्ष्य में वीरशैव और लिंगायत हैं, लेकिन इनमें भी पूजा पद्धतियों को लेकर थोड़ा भेद है। लिंगायत इष्टलिंग धारण करते हैं, जबकि वीरशैव शिव के उपासक हैं। इष्टलिंग की पूजा हो अथवा शिव की दोनों की उपासनाएं हिंदू धर्म के अभिन्न अंग हैं, इसलिए उन्हें धार्मिक अल्पसंख्यक घोषित करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं होगा।

मान्यता मिली भी तो सुप्रीम कोर्ट रद कर सकता है

यदि उन्हें मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, पारसी और जैन धर्मावलंबियों की तरह पृथक धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया जाता है तो उन्हें वर्तमान में नौकरी व शिक्षा में आरक्षण की जो सुविधा मिली हुई है, वह समाप्त हो जाएगी। गौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 1966 में स्वामी नारायण संप्रदाय और 1995 में रामकृष्ण मिशन को हिंदू धर्म से अलग मान्यता देने से साफ इन्कार कर दिया था। साफ है, यदि केंद्र सरकार राज्य की सिफारिशों को मान भी लेती है तो भविष्य में कभी चुनौती मिलने पर देश का शीर्ष न्यायालय इसे निरस्त भी कर सकता है।

हिंदुओं को जोड़ने की पहल नहीं दिखती

हिंदू अनेक पूजा-पद्धतियों, जातियों, उपजातियों, गोत्रों में विभाजित हैं। ऐसे में इन्हें और बांटना देशहित में कतई नहीं है। यह देश का दुर्भाग्य ही है कि हमारे राजनेता जातियों को तोड़कर उन्हें वृहद हिंदू समाज से जोड़ने का उपक्रम करते दिखाई नहीं देते हैं। अब समय की मांग है कि हम जातीय श्रेष्ठता और निकृष्टता के भेद से मुक्त हों और समान नागरिकता के धर्म का पालन करें। इस भेद को खत्म करना है तो हमें उन युगलों का अभिनंदन करना चाहिए, जिन्होंने अंतरजातीय विवाह करके समाज की जड़ताओं को तोड़ने का काम किया है।

कांग्रेस को नुकसानदायी साबित होगा यह कदम

बहरहाल लिंगायत और वीरशैवों को धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देना एक बेहद संवेदनशील मुद्दा है। विश्लेषकों का अनुमान है कि यह प्रस्ताव कांग्रेस के लिए नुकसानदायी साबित हो सकता है। इससे मुस्लिम वोटों के छिटकने की भी आशंका बढ़ गई है। भाजपा इस मुद्दे को लेकर ज्यादा सचेत इसलिए है, क्योंकि लिंगायत और वीरशैव उसके परंपरागत मतदाता हैं। इनके दूर जाने का क्या हश्र होता है, इसका कड़वा स्वाद पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा चख चुकी है। उसे 224 सीटों में से केवल 40 पर ही जीत मिली थी, जबकि कांग्रेस 122 सीटों पर विजयी रही थी। भाजपा के लिए यह चुनाव जीतना इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि इसे जीतने के बाद ही उसके लिए दक्षिण भारत में प्रवेश के द्वार खुलेंगे। कांग्रेस के लिए संकट इसलिए है, क्योंकि यह समुदाय शिक्षा और नौकरी में मिलने वाले आरक्षण के लाभ से वंचित हो जाएगा।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं