[ विराग गुप्ता ]: सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अदालतों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिए दायर अनेक जनहित याचिकाओं को पहले रद करने के बाद उन पर गौर करने का निर्णय स्वागतयोग्य है। संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जनता को जल्द न्याय मिलने के मौलिक अधिकार के तहत, खुली अदालतों की कार्यवाही देखने का भी अधिकार है। विधानसभा और संसद की तरह यदि अदालतों की कार्यवाही का भी सीधा प्रसारण हो जाए तो देश में करोड़ों लोगों को जल्द न्याय मिलने की उम्मीद बढ़ सकती है। हर मुकदमे में यदि दो पक्षकार हों और हर पक्षकार के परिवार में औसतन चार सदस्य हों तो 2.86 करोड़ लंबित मुकदमों में देश के 25 करोड़ लोग मुकदमेबाजी से त्रस्त होंगे। इसमें उन लोगों की संख्या शामिल नहीं है जो नगर निगम इंस्पेक्टर, आयकर अधिकारी और पटवारी जैसे सरकारी अधिकारियों के नोटिस का जवाब देने में परेशान रहते हैं। अपने देश में एक सर्वोच्च न्यायालय, 24 उच्च न्यायालय और लगभग 20,400 निचली अदालतें हैं। मुकदमेबाजी के सभी पक्षकार यदि अदालतों की कार्यवाही में शामिल होने के लिए हर तारीख में आ जाएं तो अदालतों के साथ देश की अर्थव्यवस्था ही ठप पड़ जाएगी।

ऑल इंडिया जजेज एसोसिएशन के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने 1991 में यह निर्णय दिया था कि आम जनता के हितों की सुरक्षा के लिए सर्वोत्तम कदम उठाया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 1990 और निचली अदालतों में 1997 से कंप्यूटरीकरण की शुरुआत के बाद तारीख पता करने और फैसले की नकल लेने के लिए अदालतों का चक्कर लगाने की जरूरत कम हो गई है। देश में सूचना क्रांति और उदारीकरण के शुरुआती दौर में 1989 से दूरदर्शन के माध्यम से लोकसभा और फिर राज्यसभा की कार्यवाही का प्रसारण शुरू होने के बावजूद अदालतों को इससे क्यों गुरेज है? सभी इससे परिचित हैैं कि कर्नाटक में विधानसभा चुनावों के बाद सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए आदेश के तहत शक्ति परीक्षण के दौरान विधानसभा की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होने विधायकों की खरीद फरोख्त और अराजकता पर लगाम लगी थी। सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वारा की गई प्रेस कांफ्रेंस के बाद लोगों की अदालती मामलों में दिलचस्पी बढ़ गई है। अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण शुरू होने से देश में न्यायिक सुधारों को एक नया मुकाम मिल सकता है।

संविधान के अनुसार देश में खुली अदालतों का चलन है जिसे कोई भी व्यक्ति देख सकता है। कुछ निचली अदालतों में वीडियो रिकॉर्डिंग की शुरुआत भी हुई है और कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा 2015 के एक मामले में वीडियो रिकॉडिंग की अनुमति दी गई। सर्वोच्च न्यायालय के भीतर वकील और पत्रकारों को मोबाइल फोन के इस्तेमाल की इजाजत के बाद अदालती कार्यवाही का लिखित प्रसारण जब होने ही लगा है तो फिर सजीव प्रसारण को अब अनुमति मिलनी ही चाहिए। मुख्य न्यायाधीश और अटार्नी जनरल ने सर्वोच्च न्यायालय में मामले की सुनवाई के दौरान यह माना कि सीधा प्रसारण होने से वकीलों की जवाबदेही और न्यायिक अनुशासन में बढ़ोतरी होगी। दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस ढींगरा के अनुसार दीवानी कानून (सीपीसी) में 2002 के बदलाव के बाद मुकदमों में तीन बार से अधिक स्थगन नहीं होना चाहिए। इसके बावजूद कई मामलों में सौ से अधिक बार तारीख पड़ती है जो मुकदमों के बढ़ते बोझ का मुख्य कारण है।

वीडियो रिकॉर्डिंग से ऐसी गड़बड़ियां और अनावश्यक स्थगन पर लगाम लगेगी, क्योंकि न्यायाधीशों को ऊंची अदालतों का और वकीलों को अपने मुवक्किल का भय रहेगा। इससे आपराधिक मामलों में गवाह या अभियुक्त अपना बयान नहीं बदल पाएंगे। एक ही मामले पर देश की अनेक अदालतों में जनहित याचिका दायर करने के चलन को भी सीधे प्रसारण के माध्यम से रोका जा सकेगा। देश में सरकार सबसे बड़ी मुकदमेबाज है। वीडियो रिकॉर्डिंग होने के बाद सरकार भी यह सुनिश्चित कर पाएगी कि उनके मामलों में सही पैरवी हुई या नहीं? वीडियो रिकॉर्डिंग के बाद फर्जी डिग्री के आधार पर वकालत कर रहे वकीलों को मुकदमों में पेश होना मुश्किल हो जाएगा। तमाशबीनों की संख्या कम होने से अदालतें अपना काम और बेहतर तरीके से कर पाएंगी।

मुवक्किल, वकील, गवाह या आम जनता या अन्य पक्ष अपने मामलों की कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग को शुल्क देकर हासिल कर सकेंगे। वीडियो रिकॉर्डिंग के इतने सारे फायदों के बाद न्यायाधीशों की संख्या में बढ़ोतरी के बगैर ही मुकदमों के ढेर को कम करने में मदद मिल सकती है। अदालतों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण से न्यायिक क्रांति होने के साथ सही अर्थों में डिजिटल इंडिया का निर्माण संभव हो सकेगा।

दुष्कर्म या राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे संवेदनशील मामलों के नाम पर सीधे प्रसारण में आपत्ति की जा रही है। कानून के अनुसार ऐसे मामलों में कैमरा कार्यवाही का प्रावधान है। जाहिर है कि इन मामलों की वीडियो रिकॉर्डिंग या सीधे प्रसारण पर स्वत: प्रतिबंध लग जाएगा। यूरोप, अमेरिका सहित विश्व के अनेक देशों में अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण होता है। विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दावा करने वाले देश में अदालतों की कार्यवाही का सीधा प्रसारण नहीं होने से पूरी न्यायिक प्रक्रिया ही सवालों के घेरे में आ रही है।

दिल्ली में कचरे के पहाड़ पर सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से जवाब मांगा है, परंतु मुकदमों के बढ़ते ढेर के बीच करोड़ों लोगों की कचरा होती जिंदगी के लिए भी तो जवाबदेही लेनी होगी। गवर्नेंस के नाम पर देश की राजधानी दिल्ली में 18 लाख सीसीटीवी लगाने की मुहिम चलाने की बात हो रही है तो फिर न्यायिक क्रांति के लिए 20 हजार अदालतों में कैमरे लगाने पर किसे आपत्ति हो सकती है? सर्वोच्च न्यायालय के सभी न्यायाधीशों की पूर्ण बेंच ने 1997 में यह प्रस्ताव पारित किया था कि न्याय न सिर्फ होना चाहिए, बल्कि न्याय होते हुए दिखना भी चाहिए। देश की सभी अदालतों में वीडियो रिकॉर्डिंग या सीधे प्रसारण की अनुमति देकर उस संवैधानिक संकल्प को पूरा करने का समय अब आ गया है।

[ लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं ]