[विजय गोयल]। पहले दूसरों को बदनाम करने के लिए झूठे एवं बेबुनियाद आरोप लगाओ, खूब प्रचार पाओ और जब लाखों-करोड़ों के मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़े तो फिर एक दिन कहो कि हम अपना कीमती समय बचाने के लिए माफी मांग रहे हैं। यह सिलसिला इसलिए ठीक नहीं, क्योंकि माफी सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक ऐसा भाव है जो किसी व्यक्ति द्वारा की गई गलती का प्रायश्चित करने के अहसास से उभरता है। दिखावे के लिए या फिर अदालती मुसीबत से बचने के लिए माफी मांगना एक तरह से माफी शब्द की गरिमा को कम करना है। एक समय माफी मांगने वाला शर्म से जमीन में गड़ जाता था। माफी मरण समान मानी जाती थी। कल्पना कीजिए कि कोई एक व्यक्ति दूसरे को बेवजह बदनाम करता है और उस पर अनर्गल और आधारहीन आरोप लगाता है। अगर आरोप लगाने वाला जानी-मानी शख्सियत होता है तो मीडिया भी उसके आरोपों को खूब महत्व देता है। बहुत होता है तो कभी-कभी पीड़ित का पक्ष भी आ जाता है, लेकिन इतने मात्र से वह आरोपों से मुक्त नहीं होता। ऐसे में पीड़ित के पास अपनी बेगुनाही साबित करने का एक ही माध्यम रह जाता है और वह है अदालत की शरण में जाना।

यह साफ है कि यदि मानहानि के मामले अदालतों में न पहुंचें तो कोई माफी मांगने की जहमत ही नहीं उठाए। माफी मांगने और माफी मिल जाने के बाद कानूनी तौर पर मामला भले ही समाप्त हो जाता हो, लेकिन अदालतों का जो अच्छाखासा समय बर्बाद होता है उसकी भरपाई नहीं होती। क्या अदालतों के वक्त की कोई कीमत नहीं? अच्छा हो कि माफ करने वाले इतनी आसानी से माफी न दें। वैसे भी माफी इसी भाव से अधिक दी जाती है कि चलो पिंड छूटा। यह ठीक वैसे ही है जैसे कभी कोई भिखारी पीछा न छोड़े तो उसे भीख देकर पिंड छुड़ा लिया जाता है। जैसे यह दिल से दिया गया दान नहीं होता वैसे ही मानहानि के मामलों में माफ करने के प्रसंग भी दिल से माफी देने के नहीं कहे जा सकते। आखिर हमारे नेता भावी पीढ़ी को क्या संस्कार दे रहे हैं? पहले बच्चों या फिर भगवान की कसम खाने वालों पर लोग भरोसा करते थे, लेकिन अब भला कसमें खाने वालों पर कौन भरोसा करेगा? माफी को इतना हल्का बना दिया गया है कि अब माफी मांगना एक मजाक सा हो गया है। पहले बेबुनियाद आरोप लगाने और फिर बाद में माफी मांगने वालों के प्रति अदालतों को सख्ती दिखानी चाहिए। अदालतें जनता के पैसों से चलती हैं। उन पर मुकदमों का भारी बोझ है। जब देश के लाखों लोग न्याय की आस में अदालतों के चक्कर काटते रहते हैं तब अदालतों और जनता का वक्त बर्बाद करने वाले माफी के मामलों को खत्म करना ठीक नहीं। क्या यदि कल को चोर और जेबकतरे भी अपनी करनी की माफी मांग लें तो उन्हें बिना सजा दिए या जुर्माना लगाए माफी दी जा सकती है? आखिर अदालतों के कीमती वक्त की बर्बादी का हर्जाना आम जनता क्यों चुकाए?

इन मुकदमों की जगह दूसरे मुकदमों में इतना समय लगाया जाता तो कई जरूरतमंदों को न्याय मिलता, लेकिन यहां तो एक आदमी ने दूसरे आदमी को गाली दी। जब दूसरे ने लाखों-करोड़ों का मुकदमा ठोक दिया तो पहला शख्स कुछ समय तक अपने आरोपों पर अड़ा रहा और फिर कुछ समय बाद बोला कि मैंने गलत या आधारहीन बात कही थी। मैं माफी मांगता हूं। आखिर यह क्या बात हुई? आमतौर पर उसे माफी इसलिए मिल जाती है, क्योंकि माफ करने वाले को भी लगता है कि उसकी जीत हुई और इसी के साथ मामला समाप्त हो जाता है। क्या यह उचित नहीं कि अदालतें पहले आरोप और फिर माफी मांगने वालों पर इसलिए जुर्माना लगाएं, क्योंकि उन्होंने अदालत का समय बर्बाद किया और समय की इस बर्बादी से जनता के पैसे का नुकसान हुआ। ध्यान रहे कि जब यह देखने को मिला कि जनहित याचिकाओं के नाम पर कुछ लोग अपना स्वार्थ सिद्ध कर रहे हैं और कोर्ट एवं जनता का अमूल्य समय बेकार की बातों में पड़ने से बरबाद हो रहा है तो निराधार और बिना जन सरोकार वाली याचिकाओं को दाखिल करने वालों पर जुर्माना लगने लगा। जैसे फालतू की जनहित याचिकाएं दाखिल करने वालों पर जुर्माना लगने लगा है वैसे ही उन पर भी लगना चाहिए जो माफी मांगकर अदालतों का समय जाया

करते हैं। अदालतों का अर्थ केवल न्यायाधीशों से नहीं है। वे एक व्यापक व्यवस्था का हिस्सा होती हैं और यह व्यवस्था सरकार यानी हमारे-आपके टैक्स के पैसे से संचालित होती है। ऐसे में माफी मांगने के साथ ही मामले को खत्म करना एक तरह से जनता को ठगना है। ध्यान रहे कि मानहानि के कुछ मामलों में दिन-प्रतिदिन सुनवाई होती है, क्योंकि उन्हें गंभीर मामला माना जाता है। क्या यह मान लिया जाए कि माफी मांगने के साथ ही ऐसे मामलों की सारी गंभीरता खत्म हो जाती है?

यह भी ध्यान रहे कि पहले अनर्गल आरोप लगाने वाले बाद में माफी मांगकर यह भी दिखाते हैं कि उन्होंने माफी मांगने का साहस दिखाया। सच यह है कि माफी मांगने वाले उस अपराधी की तरह हैं जो आदतन अपराध करते रहते हैं और रह-रह कर जेल जाते रहते हैं। चूंकि माफी मांगने वालों के बारे में इसकी कोई गारंटी नहीं कि वे भविष्य में फिर किसी पर बेबुनियाद आरोप लगाकर उसे बदनाम करने का काम नहीं करेंगे इसलिए माफ करने वालों और साथ ही अदालतों को उन्हें यूं ही नहीं छोड़ देना चाहिए। ऐसे लोगों को मजा चखाया जाना चाहिए। आज जब आरोप लगाकर फिर माफी मांग लेने के मामले सामने आ रहे हैं तब यह याद आता है कि अपने देश में तमाम ऐसे लोग भी हुए हैं जिन्होंने शीश कटवा दिए, लेकिन अपनी बात से डिगे नहीं। आज स्थिति यह है कि महत्वपूर्ण पदों पर बैठे व्यक्ति यह साबित कर रहे हैं कि उनकी बातों का कोई मूल्य-महत्व नहीं और वे दूसरों पर कीचड़ उछालने और फिर माफी मांगकर भाग जाने में माहिर हैं।

(लेखक केंद्रीय संसदीय कार्य राज्यमंत्री हैं)