[ यशपाल सिंह ]: हाल में गाजीपुर, उत्तर प्रदेश की विधायक अलका राय की वह चिट्ठी चर्चा में थी जो उन्होंने कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी वाड्रा को लिखी थी। इस चिट्ठी में उन्होंने सवाल किया था कि कांग्रेस मुख्तार अंसारी को क्यों बचा रही है? अलका उसी क्षेत्र से विधायक हैं, जहां से उनके दिवंगत पति कृष्णानंद राय पहले विधायक थे और नवंबर 2005 में दिनदहाड़े उनकी नृशंस हत्या कर दी गई थी। उनके शरीर से 21 गोलियां निकली थीं और उनके पांच सहयोगी/सुरक्षाकर्मी भी मौके पर मारे गए थे। उस मुकदमे की जांच सीबीआइ ने की और मुकदमा भी दिल्ली में चला, परंतु 12 साल बाद आए फैसले में सभी आरोपी छूट गए। इससे सभी हैरान हुए। चूंकि कृष्णानंद राय पर हमले का अंदेशा था, इसलिए उन्हें सरकारी सुरक्षा दी गई थी। वह हमेशा बुलेटप्रूफ गाड़ी से चलते थे। घटना के दिन उन्हें गांव के पास ही एक क्रिकेट मैच का उद्घाटन करना था, लिहाजा वह सामान्य गाड़ियों को लेकर ही चले गए। साजिशकर्ता शातिर थे। उन्होंने इस दो-तीन घंटे की चूक में ही अपना काम अंजाम दे दिया। घटना होते ही पूरे गाजीपुर जनपद को मालूम हो गया कि हत्या किसने की या कराई है, परंतु तंत्र को 12 साल में नहीं मालूम हो सका कि दोषी कौन थे? लगभग 12 साल आपराधिक न्यायदायी तंत्र की प्रक्रिया चली, परंतु समुचित साक्ष्य के अभाव में मुजरिमों को अदालत को छोड़ना पड़ा। सवाल है कि हमारे देश में न्याय मिलना इतना कठिन क्यों हो गया है?

शासन की जिम्मेदारी होती है हर नागरिक की सुरक्षा और न्याय दिलाना

शासन की पहली जिम्मेदारी हर नागरिक की सुरक्षा और न्याय दिलाना है। इसी को कानून का राज कहते हैं, परंतु यह हो कहां पा रहा है। कहा जाता है कि किसी खंडहर की बार-बार मरम्मत कर उसे कामचलाऊ बनाया जा सकता है, परंतु वह अंतत: रहेगा खंडहर ही। उसमें सांप और बिच्छू आदि पलते-निकलते रहेंगे। दरअसल अंग्रेजों द्वारा हमें दिए गए वर्षों पुराने न्याय तंत्र रूपी खंडहर को जब तक गिराकर हम अपने देश, काल, सोच और मानसिकता के अनुरूप नया तंत्र नहीं खड़ा करेंगे, तब तक कुछ होने वाला नहीं है। अंग्रेजों ने ये सारे आपराधिक कानून 1857 के विद्रोह के बाद बनाए थे, जिनका एकमात्र उद्देश्य था कि देश में पुन: कोई विद्रोह न खड़ा हो। तब जिलाधिकारी पूरा तंत्र चलाता था। सारी शक्तियां उसी में केंद्रित थीं और जवाबदेही भी उसी की होती थी। उसका निर्णय ही सामान्यत: अंतिम निर्णय होता था। उस समय देश की सामान्य जनता की भी सोच और मानसिकता अपराध विरोधी थी।

अपराध एक धंधा हो गया, जिसे सफेदपोश माफिया चला रहे हैं

समाज अपराधियों का महिमामंडन नहीं करता था, लेकिन आज की स्थिति बिल्कुल उलटी है। पहले चंबल के डकैत गिरोह भी सरेंडर नहीं करते थे। वे पूरा जीवन बागी बन मारे जाने तक बिता देते थे। आज तो अपराध एक धंधा हो गया है, जिसे सफेदपोश माफिया चला रहे हैं। अपराध करने के बाद उनके शूटर मौका पाकर तुरंत कोर्ट में सरेंडर कर देते हैं। बाकी का कार्य माफिया देखते हैं। वे उसका और उसके परिवार का पूरा ध्यान रखते हैं। कुछ नहीं होगा, इसकी भी उन्हें गांरटी होती है।

बाहुबली, धनबली और फिर चुनाव के रास्ते महाबली होकर माननीय बन जाते हैं

वे पहले बाहुबली, फिर धनबली और फिर चुनाव के रास्ते महाबली होकर माननीय भी बन जाते हैं और हमारा जर्जर न्याय तंत्र उनके सामने प्रभावहीन हो जाता है। तंत्र में कई कड़ियां होती हैं। सबसे कमजोर कड़ी को वे साम, दाम, दंड, भेद से तोड़ देते हैं और क्षेत्र में बतौर नेता अपना स्वागत भी कराते हैं।

आपराधिक न्याय व्यवस्था के दो तंत्र

देखा जाए तो विश्व में आपराधिक न्याय व्यवस्था के दो तंत्र विकसित हुए हैं। एक है एडवर्सेरियल (विरोधात्मक), जो ब्रिटेन में विकसित हुआ है। दूसरा है इनक्यूजीटोरियल (जिज्ञासु), जो फ्रांस में विकसित हुआ और अधिकतर यूरोपीय देशों जैसे फ्रांस, जर्मनी और इटली आदि में लागू है। इस तंत्र में किसी मामले की विवेचना सीधे अभियोजन शाखा की देखरेख में की जाती है। इसमें न्यायिक सेवा के अधिकारी होते हैं और पुलिस जो विवेचना करती है, वह न्यायिक पुलिस कहलाती है। इसमें पुलिस, मुजरिम के पक्ष-विपक्ष, दोनों के साक्ष्य निष्पक्षता से एकत्र करती है। अगर अभियोजन अधिकारी को लगता है कि केस महत्वपूर्ण है और उसे किसी प्रकार की प्रशासनिक कठिनाई हो रही है, तो फिर विवेचना निर्देशक न्यायाधीश की देखरेख में होती है, जो अपने अनुभवी निर्देशों से विवेचना करवाते हैं।

आरोप पत्र ट्रायल कोर्ट में तभी जाता है, जब अभियोजन अधिकारी साक्ष्यों से संतुष्ट हो जाते

आरोप पत्र ट्रायल कोर्ट में तभी जाता है, जब अभियोजन अधिकारी साक्ष्यों से संतुष्ट हो जाते हैं। वहीं अपने यहां के ब्रिटिश तंत्र में सब कुछ उलटा है। पुलिस ने जो भी साक्ष्य/बयान आदि एकत्र किए होते हैं, उन सबको झूठ मानकर ट्रायल प्रारंभ होता है। तथाकथित सरकारी वकील स्थानीय अधिवक्ता होते हैं। सरकार उन्हें कुछ समय के लिए नामित करती है। हटने के बाद उन्हें उसी जनपद में वकालत करनी होती है। उनके नामांकन और कार्य मूल्यांकन में पुलिस अधीक्षक (एसपी) की कोई भूमिका नहीं होती। हां, अपराध होते ही पूरी जिम्मेदारी/जवाबदेही केवल और केवल पुलिस अधीक्षक की होती है। केस छूट जाने पर एसपी साहब अपनी इच्छा से अपील भी नहीं कर सकते।

विधायक कृष्णानंद राय की हत्या में अपराधियों को तंत्र से सजा नहीं दिला सका

तत्कालीन विधायक कृष्णानंद राय की जब हत्या हुई थी तो मैं उत्तर प्रदेश का पुलिस प्रमुख था। घटना और उसके बाद की कानूनी कार्रवाई, ट्रायल इत्यादि सभी से रिटायर होने के बाद भी परिचित रहा, परंतु अपराधियों को तंत्र से सजा नहीं दिला सका।

माफिया गिरोह आपराधिक न्यायिक तंत्र की पकड़ से बाहर हो चुका

तमाम ऐसी घटनाओं और उनके परिणामों पर जब आज सोचता हूं तो यही पाता हूं कि माफिया गिरोह आपराधिक न्यायिक तंत्र की पकड़ से बाहर हो चुके हैं। इसका प्रभाव अब कुछ साधन विहीन अपराधियों तक ही सीमित रह गया है। माफियाओं पर जो कुछ अंकुश है, वह पुलिस अपने तरीके से ही कर पा रही है। जाहिर है अब देश की आपराधिक न्यायिक व्यवस्था में अमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है, क्योंकि कानून के राज में ही देश और समाज का सर्वांगीण विकास निहित है। देश के बुद्धिजीवियों और न्यायविदों द्वारा इस समस्या पर यथाशीघ्र गंभीर चिंतन की आवश्यकता है।

( लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व डीजीपी हैं )