नई दिल्ली, प्रशांत मिश्र। यह याद दिलाने की जरूरत नहीं कि आने वाला साल लोकसभा चुनाव का है। यह चुनावी साल इसलिए और अनोखा होने वाला है, क्योंकि एक पाले में भाजपा जैसी शक्ति खड़ी है जिसके लिए जीत की कोई सीमा नहीं है और जो हर पराजय को जीत का आधार बनाती है तो दूसरे पाले में कांग्रेस के साथ ऐसी छोटी-बड़ी राजनीतिक ताकतें एकजुट हो रही हैं जिनके लिए यह करो या मरो का क्षण है। इनके पास तीन राज्यों में जीत की संजीवनी भी है। स्पष्ट है कि 2019 कई मायनों में बहुत रोचक होने वाला है। विदाई के मोड़ पर खड़ा 2018 राजनीतिक रूप से बहुत अहम रहा। खासकर भाजपा के लिए। उसने उत्तरपूर्वी राज्य त्रिपुरा में वाम दलों को परास्त कर यह संदेश दिया कि भाजपा का विजय रथ रुकने वाला नहीं। कर्नाटक में कांग्रेस और जद-एस के कौशल से भाजपा को मुंह की खानी पड़ी, लेकिन उसके नैतिक बल में कोई कमी नहीं आई। यह संदेश मुखर होकर उभरा कि भाजपा को सामान्य स्थिति में नहीं हराया जा सकता है। हाल के विधानसभा चुनावों से भी यह बात पुष्ट हुई कि भाजपा से मुकाबला कर उसे परास्त करना कठिन है, पर हार हार होती है और भाजपा के लिए ज्यादा परेशान करने वाली बात यह है कि जिस कांग्रेस से भारत को मुक्त करने की बात हो रही थी, उसने भाजपा से तीन राज्य छीन लिए।

दिल बहलाने के लिए कई तर्क हो सकते हैं कि छत्तीसगढ़ एवं मध्य प्रदेश में भाजपा 15 साल की सत्ताविरोधी लहर से जूझ रही थी और राजस्थान में स्थानीय नेतृत्व के प्रति असंतोष था, पर जीत तो जीत ही होती है। इस जीत ने पस्त पड़ चुकी कांग्रेस में एक नई जान फूंक दी है। वहीं दूसरी ओर भाजपा के अंदर मोदी-शाह विरोधी तत्वों को भी एक बार सिर उठाने का मौका मिल गया है। जहां हिंदी पट्टी के इन राज्यों ने भाजपा के लिए एक नई चुनौती पैदा की वहीं सुदूर उत्तर पूर्व के मिजोरम और दक्षिण के तेलंगाना में कांग्रेस को मिली करारी हार ने उसके देशव्यापी पुनर्जीवन का तर्क बनाने वालों के उत्साह को एक सीमा में रखा। यह कहना अनुचित नहीं कि हर चुनाव का फ्लेवर अलग होता है और विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनावों में बहुत अंतर होता है।

उदाहरण के तौर पर 2003 में ये तीनों राज्य जीतने के बाद 2004 में भाजपा आम चुनाव हार गई थी। इसी तरह 1984 में कांग्रेस ने आम चुनावों में ऐतिहासिक सफलता पाई, परंतु तुरंत बाद हुए कर्नाटक चुनाव में हार गई। इस साल विपक्ष ने राफेल को आधार बना कर मोदी सरकार को भ्रष्टाचार में घेरने की खूब कोशिश की, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इस मुद्दे की हवा निकल गई। इसी तरह जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स कहकर राहुल गांधी ने सारे देश में मोदी सरकार को आड़े हाथ लिया, परंतु अभी हाल में वित्त मंत्री जेटली ने तमाम वस्तुओं को 18 फीसद जीएसटी के दायरे के अंदर लाकर इस मुद्दे पर सरकार की छवि को बेहतर किया है। इसके बावजूद जीएसटी से भाजपा के समर्थक रहे व्यापारी वर्ग खासकर लघु एवं मध्यम उद्योग से जुड़े लोग अभी भी नाराज हैं। इन्हें संतुष्ट करने के लिए सरकार को जीएसटी रिफंड मुद्दे पर शीघ्र फैसला लेना पड़ सकता है।

पिछले कुछ समय से किसान की स्थिति बड़ा मुद्दा है। हालांकि फसल बीमा योजना, लागत का डेढ़ गुना समर्थन मूल्य, नीमयुक्त यूरिया आदि द्वारा मोदी सरकार ने किसानों को राहत देनी की कोशिश की, परंतु कांग्रेस द्वारा लगातार किसान कर्ज माफी के वादे ने पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में भाजपा का काफी नुकसान किया है। हालांकि कर्ज माफी किसान हित का स्थाई मार्ग नहीं, परंतु भाजपा को कांग्रेस के इस विमर्श की काट सोचनी होगी। आगामी आम चुनाव में भाजपा प्रधानमंत्री मोदी की सशक्त छवि को लेकर चुनावी रण में उतरेगी जिसे चुनौती देने के लिए तीन राज्यों में जीत से उत्साहित राहुल गांधी होंगे। यह बात और है कि संयुक्त विपक्ष के नेता बनने के लिए राहुल गांधी को अभी भी काफी मशक्कत करनी पड़ेगी। प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने हर मौके पर अपनी सरकार द्वारा गरीबों को दिए गए लाभों को लेकर विमर्श बनाने की कोशिश की। उज्ज्वला, मुद्रा, बिजली, मकान, शौचालय संबंधी योजनाओं से लगभग 22 करोड़ परिवार लाभान्वित हुए हैं। भाजपा को इनसे बड़ी उम्मीदे हैं, लेकिन हाल के विधानसभा चुनावों में लाभार्थी आश्रित रणनीति काम नहीं आई। अब उसकी असली परीक्षा 2019 में होगी।

देश का अंतरराष्ट्रीय सम्मान, अर्थव्यवस्था में सुधार, राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे अनेक मुद्दे मोदी की तरकश में हैं, परंतु राम मंदिर का मुद्दा भाजपा के लिए अपने हिंदुत्व वोट बैंक के दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण और चुनौती से भरा है। सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे की सुनवाई चार जनवरी से करेगा। यदि चुनावी आचार संहिता प्रभावी होने तक इसका फैसला नहीं आता तो अपनी जमीन बचाने के लिए भाजपा को इस मुद्दे पर कोई प्रशासनिक फैसला लेना पड़ सकता है। बिहार में दरियादिली दिखाकर भाजपा ने राष्ट्रीय स्तर पर मजबूत गठबंधन बनाने की अच्छी शुरुआत की है, परंतु महाराष्ट्र में शिवसेना के तीखे तेवर भाजपा के लिए बड़ी चुनौती हैं। आदिवासी बहुल झारखंड में बिना आदिवासी पार्टी के समर्थन के 2014 दोहराना आसान नहीं। इसके लिए भाजपा को हेमंत सोरेन या बाबूलाल मरांडी को अपने पाले में लाना होगा। नेडा के रूप में भाजपा के पास उत्तर पूर्व में मजबूत गठबंधन है, परंतु दक्षिण भारत अभी भी एक बड़ी चुनौती है। दक्षिण में द्रमुक और टीडीपी के रूप में कांग्रेस को मजबूत साथी मिल गए हैं, परंतु उत्तर प्रदेश और बंगाल में उस पर कोई हाथ रखने को तैयार नहीं। महाराष्ट्र में एनसीपी कठिनाई पैदा कर रही है तो आम आदमी पार्टी भी उससे दूरी बनाए हुए है। 2019 की तस्वीर पर अधिक प्रभाव उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा गठबंधन का पड़ेगा। सिवाय उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय दलों के बीच गठबंधन कहीं और भाजपा के लिए चुनौती नहीं बनेगा, क्योंकि क्षेत्रीय दलों का प्रभाव क्षेत्र कमोबेश उनके ही राज्यों तक है।

कांग्रेस को हवा पर सवार होकर चुनाव जीतने वाली पार्टी कहा जाता है। इस हवा की काट के लिए अमित शाह के नेतृत्व में भाजपा 11 करोड़ सदस्यों के साथ दुनिया के सबसे बड़े दल के रूप में उभरी है। अमित शाह ने चार वषों में भाजपा की चुनावी मशीन का जाल देश के हर बूथ तक बिछा दिया है। यहां तक कि बूथ के अंदर पन्ना प्रमुख भी नियुक्त किए गए हैं। संचार तंत्र के द्वारा इन करोड़ों कार्यकर्ताओं के साथ भाजपा का शीर्षस्थ नेतृत्व लगातार संपर्क में रहता है, परंतु हालिया चुनावों में हार के बाद इस तंत्र के प्रभाव पर प्रश्नचिन्ह लगाए जा रहे हैं। इसकी असली परीक्षा 2019 के चुनावों में होगी। भाजपा ने संगठन को तो मजबूत कर लिया है पर तीन राज्यों में हार के बाद भाजपा के एक वर्ग ने पार्टी नेतृत्व पर उंगलिया उठानी शुरू कर दी हैं, जो पार्टी के लिए एक नई चुनौती बन कर उभरी है।

(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)