[ राजीव सचान ]: अपने यहां अदालत-अदालत खेलना यानी न्याय प्रक्रिया का दुरुपयोग करना कितना आसान है, इसका उदाहरण है देश को दहलाने वाले निर्भया कांड के एक दोषी पवन कुमार की उस याचिका की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होना जिसमें उसकी ओर से यह दलील दी गई थी कि अपराध के समय वह नाबालिग था। हालांकि इस तरह की याचिका ट्रायल कोर्ट और दिल्ली हाईकोर्ट की ओर से भी खारिज कर दी गई थी, फिर भी सुप्रीम कोर्ट ने इसी आशय की याचिका की सुनवाई करना जरूरी समझा। इसका औचित्य समझना कठिन है, क्योंकि यही सुप्रीम कोर्ट पवन कुमार को उसके तीन साथियों समेत मौत की सजा सुना चुका है।

क्या सुप्रीम कोर्ट ने बालिग या नाबालिग परखे बिना ही मौत की सजा सुनाई थी

क्या उस दौरान यह सवाल नहीं उठा था कि वह बालिग है या नाबालिग? क्या सुप्रीम कोर्ट ने इसकी परख किए बिना ही उसे मौत की सजा सुना दी थी कि वह नाबालिग तो नहीं? क्या यह संभव है या फिर इसकी कल्पना भी की जा सकती है कि देश की सबसे बड़ी अदालत किसी नाबालिग को मौत की सजा सुना दे? अगर नहीं तो फिर इस दलील वाली याचिका सुनी ही क्यों गई कि अपराध के वक्त तो पवन कुमार नाबालिग था? यह सही है कि इस याचिका को खारिज कर दिया गया, लेकिन क्या ऐसा करके सुप्रीम कोर्ट ने अपने समय और संसाधन की बर्बादी नहीं की?

मौत की सजा के मामलों में सुप्रीम कोर्ट को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी चाहिए

इससे इन्कार नहीं कि मौत की सजा के मामलों में सुप्रीम कोर्ट को अतिरिक्त सतर्कता बरतनी चाहिए, लेकिन आखिर सतर्कता बरतने के नाम पर फालतू की याचिका सुनना कितना सही है? यह वही सुप्रीम कोर्ट है जिसने पिछले सप्ताह ही उस याचिका की सुनवाई की जिसमें यह मांग की गई थी कि महात्मा गांधी को भारत रत्न प्रदान किया जाए। स्वाभाविक तौर पर यह याचिका भी खारिज कर दी गई, लेकिन यह सवाल अपनी जगह खड़ा है कि आखिर ऐसी फालतू याचिकाएं सुनी ही क्यों जाती हैं? क्या अब सुप्रीम कोर्ट यह भी तय करेगा कि इन्हें या उन्हें भारत रत्न दिया जाए या नहीं?

निचली अदालतों के पास इतना वक्त नहीं कि 39 साल में भी नरसंहार मामले का निपटारा कर सकें

जो सुप्रीम कोर्ट संता-बंता के चुटकुलों पर रोक लगाने की मांग करने वाली याचिका सुन सकता है वह कुछ भी कर सकता है, लेकिन यह देखना दयनीय है कि हमारे पास एक ऐसी शीर्ष अदालत है जो गैर-जरूरी याचिकाएं भी सुनने का समय निकाल लेता है और दूसरी ओर ऐसी निचली अदालतें भी हैैं जिसके पास इतना भी वक्त नहीं कि वे 39 साल में नरसंहार के किसी मामले का निस्तारण कर सकें।

बहुचर्चित बेहमई कांड का फैसला 24 को आ भी जाए तो क्या उसे न्याय की संज्ञा दी जा सकती है?

कानपुर देहात के बहुचर्चित बेहमई कांड का फैसला पिछली 6 जनवरी को आना था, लेकिन किसी कारण ऐसा नहीं हो सका और नई तारीख 18 जनवरी तय की गई। इस दिन पता चला कि मामले की केस डायरी ही लापता है। नई तारीख 24 जनवरी दी गई है। देखना है कि इस दिन क्या होता है। यदि फैसला आ भी जाए तो क्या उसे न्याय की संज्ञा दी जा सकती है?

1981 में फूलन देवी ने बेहमई गांव के 26 लोगों को एक साथ गोलियों से भून दिया था

बेहमई कांड फरवरी 1981 में फूलन देवी और उनके साथी डकैतों की ओर से अंजाम दिया गया था। इस गांव के 26 लोगों को एक पक्ति में खड़ाकर गोलियों से भून दिया गया था। 20 लोग मारे गए थे, छह घायल हुए थे। इस हत्याकांड ने देश को हिला दिया था।

वीपी सिंह ने नैतिक जिम्मेदारी लेकर यूपी के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया था

वीपी सिंह तब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। उन्होंने नैतिक जिम्मेदारी के तहत अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। कायदे से ऐसे चर्चित मामले की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर की जानी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। बेहमई गांव के पीड़ितों ने न्याय की प्रतीक्षा में 39 साल गुजार दिए। न्याय की बाट जोहते लोगों के लिए यह समय एक युग के समान है।

न्याय के नाम पर मजाक का शर्मनाक उदाहरण

यह मामला केवल न्याय में देरी को अन्याय के समान साबित करने वाला ही नहीं, न्याय के नाम पर हो रहे मजाक का शर्मनाक उदाहरण है। आखिर ऐसे किसी फैसले को इंसाफ कैसे कहा जा सकता है जिसमें न केवल न्याय के लिए प्रतीक्षारत अधिसंख्य लोगों की मौत हो चुकी हो, बल्कि ज्यादातर गवाह भी दुनिया छोड़ चुके हों। इस मामले में 28 लोगों को अभियुक्त बनाया गया था, जिनमें 17 की मौत हो चुकी है। जिन्हें सजा हो सकती है उनकी संख्या चार है, क्योंकि बाकी फरार घोषित हैैं।

बेहमई कांड का फैसला आने के बाद यह अंतिम अदालती फैसला नहीं होगा

यदि बेहमई मामले की केस डायरी मिल जाती है और फैसला सुना भी दिया जाता है तो यह अंतिम अदालती फैसला नहीं होगा। इस फैसले को चुनौती दी जा सकती है और अपने देश में अदालती प्रक्रिया का जैसा बुरा हाल है उसे देखते हुए अंतिम स्तर पर फैसला आने में चार-छह-दस बरस का समय खप जाना साधारण सी बात है। हो सकता है कि तब तक इस मामले से जुड़े कुछ और लोग इस दुनिया से कूच कर जाएं।

न्याय में देरी का यह इकलौता मामला नहीं है

न्याय में देरी का यह इकलौता मामला नहीं है। वास्तव में ऐसे मामलों की गिनती करना कठिन है जिनमें दस-बीस साल बाद न्याय हो पा रहा है। यदि कभी निचली अदालतें समय पर फैसला दे देती हैैं तो ऊंची अदालतों की शिथिलता आड़े आ जाती है। आम धारणा है कि देर-सबेर निचली अदालतों में ही होती है, लेकिन यह काम ऊंची अदालतों में भी होता है।

कोई नहीं जानता चारा घोटाले में हाई कोर्ट अपना फैसला कब सुनाएगा

इसका सटीक उदाहरण है चारा घोटाला। कोई नहीं जानता कि लालू यादव को चारा घोटाले के विभिन्न मामलों में जो सजाएं सुनाई गई हैैं उन पर उच्च न्यायालय अपना फैसला कब सुनाएगा?

न्याय की शिथिलता को लेकर निर्भया की मां को दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैैं

नाबालिग बच्चियों से दुष्कर्म के मामले में निचली अदालतों की ओर से न जाने कितने अपराधियों को फांसी की सजा सुनाई जा चुकी है, लेकिन निर्भया मामले में न्याय की शिथिल गति को देखते हुए यह नहीं लगता कि निकट भविष्य में इन सजाओं पर अमल हो सकेगा। ऐसे घोर निराशाजनक परिदृश्य के बाद भी जिम्मेदार लोग इस पर हैरानी जताते हैैं कि आखिर आम जनता हैदराबाद सरीखी मुठभेड़ पर खुशी का इजहार कैसे कर सकती है? सवाल सही है, लेकिन क्या वे यह नहीं देख पा रहे हैैं कि निर्भया की मां को किस तरह दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैैं?

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )