झारखंड, प्रदीप शुक्ला। देर से ही सही, झारखंड विकास मोर्चा के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की भारतीय जनता पार्टी में घर वापसी हो रही है और पूरे दम-खम से। भाजपा जहां बांह पसार कर उनका स्वागत कर रही है वहीं वह भी अपने मातृसंगठन के लिए सब कुछ न्यौछावर करने की कसमें खा रहे हैं। दो महीने पहले तक भाजपा को पानी पीकर कोसने वाले बाबूलाल मरांडी कह रहे हैं कि अगर पार्टी उन्हें झाड़ू लगाने का भी काम देगी तो वह दिल से स्वीकार करेंगे।

खैर, ये राजनीति है। इसमें जो दिख रहा अथवा बोला जा रहा है, जरूरी नहीं ऐसा ही हो भी रहा हो। कई बार जो सामने दिखता है, होता ठीक उससे उलट है। भारतीय जनता पार्टी और बाबूलाल मरांडी के बीच में काफी समय से खिचड़ी पक रही थी। लोकसभा चुनाव में आदिवासियों की नाराजगी के बाद से ही इसकी शुरुआत हो गई थी। पार्टी उस समय राज्य की चौदह में से बारह सीटें जीतने में कामयाब रही थी इसलिए आदिवासियों की नाराजगी जगजाहिर नहीं हुई थी।

इसके अलावा राज्य में रघुवर दास के रूप में गैर आदिवासी चेहरा देने का जो प्रयोग किया था पार्टी उससे पीछे कदम नहीं खींचना चाहती थी। इसलिए विधानसभा चुनाव से पहले यह गठजोड़ परवान नहीं चढ़ सका। लेकिन विधानसभा चुनाव में रघुवर के साथ ही पार्टी की हार के बाद भारतीय जनता पार्टी के पास कोई विकल्प नहीं बचा था और न ही झारखंड विकास मोर्चा अध्यक्ष बाबूलाल के पास। यदि भाजपा ने सत्ता गंवाई तो झाविमो की ताकत भी और क्षीण हो गई। उनके अलावा जीते दोनों विधायक पार्टी के दम पर कम अपनी शख्सियत के आधार पर विधानसभा पहुंचे हैं। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी और बाबूलाल के मिलन का यह सबसे सही समय था और दोनों ने अपने दंभ को मारना ही बेहतर समझा।

सत्रह फरवरी को रांची में एक बड़ी रैली के माध्यम से उनकी भाजपा में दमदार एंट्री कराई जाएगी। भाजपा में बाबूलाल की वापसी का मकसद पार्टी को एक दफा फिर सत्ता के करीब लाना है। स्थानीय मुद्दों को हवा देकर झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेतृत्व में बने राजनीतिक गठबंधन ने भाजपा को सत्ता से हटाने में कामयाबी पाई। बाबूलाल मरांडी के जरिये भाजपा अपनी खोई प्रतिष्ठा वापस पाने की फिराक में है। बाबूलाल मरांडी राज्य में आदिवासियों के सबसे बड़े धड़े संताल समुदाय से आते हैं और उसी समुदाय से मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन भी ताल्लुक रखते हैं। ऐसे में हेमंत सोरेन के मुकाबले के लिए भाजपा उन्हें तैयार करेगी।

झारखंड में भाजपा का गैर आदिवासी चेहरे को आगे कर राजनीति करने का प्रयोग विफल हो चुका है। अब उसके समक्ष एकमात्र विकल्प आदिवासी नेतृत्व को बढ़ाना है। बाबूलाल इसमें पूरी तरह फिट बैठते हैं। बड़े दलों की मौजूदगी के बीच उन्होंने अभी तक अपना अस्तित्व बरकरार रखा है और उनकी लोकप्रियता संदेह से परे है। भाजपा उन्हें विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष के तौर पर स्थापित करेगी।

रणनीति के मुताबिक वे भाजपा में एंट्री के साथ ही पूरे प्रदेश का दौरा कर कार्यकर्ताओं में जोश भरने करने की मुहिम आरंभ करेंगे। यह देखना दिलचस्प होगा कि वे खुद को भाजपा की अपेक्षाओं के अनुरूप ढाल पाते हैं या नहीं। विधानसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाना और उसे मजबूत विपक्ष के तौर पर जनमुद्दों के साथ जोड़ना बाबूलाल की चुनौती होंगे। इसके अलावा अर्जुन मुंडा, रघुवर दास सरीखे भाजपा के कद्दावर नेताओं को भी उन्हें साधना होगा।

केजरीवाल का असर : आम आदमी पार्टी की दिल्ली में प्रचंड जीत की गूंज झारखंड में भी महसूस की जा सकती है। वैसे, मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन पहले से ही अरविंद केजरीवाल के प्रशंसकों में शामिल रहे हैं लेकिन उनकी सरकार के तमाम मंत्री भी जिस तरह दिल्ली के विकास मॉडल की चर्चा कर रहे हैं उससे यह तो जगजाहिर हो चुका है कि आने वाले समय में दिल्ली की कई योजनाएं झारखंड में भी धरातल पर उतरती दिख सकती हैं। शिक्षा व्यवस्था का अध्ययन करने के लिए जल्द ही राज्य से एक टीम दिल्ली जाने वाली है। बिजली मुफ्त करने की प्रक्रिया शुरू की है। इसके तहत 300 मेगावॉट तक मासिक खपत करने वाले घरेलू उपभोक्ताओं को 100 मेगावॉट बिजली मुफ्त दी जाएगी। यह झारखंड मुक्ति मोर्चा के घोषणापत्र का भी हिस्सा है।

सरकार वित्तीय हालात को लेकर लगातार बयान दे रही है कि खजाना खाली है और ऐसे में मुफ्त की बात कहां तक उचित है इस पर विमर्श हो सकता है, लेकिन फिलहाल तो सरकार अपनी मुफ्त वाली योजनाओं को लागू करने के लिए पूरा गुणाभाग लगा रही है। सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि वह बड़ी परियोजनाओं पर नहीं जाएगी। इसका असर राज्य के विकास पर भी पड़ सकता है। बेशक रघुवर सरकार सत्ता गंवा चुकी है लेकिन विकास को लेकर जो योजनाएं शुरू की गई हैं उनसे आने वाले समय में राज्य को फायदा ही होने वाला था। यदि बड़ी योजनाएं पूरी तरह से ठप हो जाती हैं तो नौकरियों का भी संकट खड़ा होगा ही।

[स्थानीय संपादक, झारखंड]