राहुल लाल। कोरोना काल में भारतीय अर्थव्यवस्था चार दशक की सबसे बड़ी गिरावट ङोलते हुए अप्रैल-जून तिमाही में 23.9 फीसद नीचे चली गई। यह गिरावट दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है। नोमुरा होल्डिंग्स इंक जैसे बैंक ने पूरे साल के लिए जीडीपी अनुमान को बदलकर ऋणात्मक 10.8 प्रतिशत कर दिया है। स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की रिसर्च रिपोर्ट इकोरैप ने भी पूरे वर्ष के लिए जीडीपी अनुमान ऋणात्मक 6.8 प्रतिशत से बदलकर ऋणात्मक 10.9 प्रतिशत कर दिया है। कुछ वर्ष पहले भारत आठ फीसद विकास दर हासिल करने में कामयाब रहा था। वर्ष 2016-17 के प्रथम तिमाही में तो विकास दर नौ प्रतिशत तक पहुंच गया था। लेकिन इसके बाद एनबीएफसी संकट और उपभोग की कमी से विकास दर में गिरावट दर्ज की गई।

रिजर्व बैंक की वार्षकि रिपोर्ट के अनुसार भी आर्थिक गतिविधियों में अभूतपूर्व कमी आई है। रिजर्व बैंक के अनुसार मई-जून में अर्थव्यवस्था में सुधार के जो लक्षण दिखाई दिए थे, वे जुलाई में गायब होते नजर आ रहे हैं। आरबीआइ ने भी हालात को अप्रत्याशित करार देते हुए केंद्र सरकार एवं राज्यों के समक्ष उपायों की एक लंबी सूची प्रस्तुत की है। इससे लगता है कि दूसरी तिमाही में भी आर्थिक गतिविधियों में कमी जारी रहेगी। रिजर्व बैंक के अनुसार भी मांग में भारी कमी की स्थिति अभी बनी हुई है। वहीं अर्थव्यवस्था का प्रभाव रोजगार पर भी दिख रहा है।

आर्थिक विकास दर और रोजगार : पांच प्रतिशत विकास दर के साथ भी भारतीय अर्थव्यवस्था में हर साल कार्यबल में जुड़ने वाले एक करोड़ से अधिक युवाओं के लिए पर्याप्त नौकरियां नहीं पैदा हो रही थीं। ऐसे में विकास दर में अप्रत्याशित कमी से रोजगार सृजन पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। जिस तरह आम आदमी कमाई कम होने की खबर सुनकर खर्च कम और बचत ज्यादा करने लगता है, बिल्कुल ऐसा ही व्यवहार कई कंपनियां करने लगती हैं। नई नौकरियां भी कम हो जाती हैं और पुरानी नौकरियों की भी समीक्षा होने लगती है। इससे एक दुष्चक्र शुरू होता है। घबरा कर लोग कम खर्च करते हैं, जिससे उद्योगों में मांग कम होने लगती है और लोग बचत बढ़ाते हैं, तो बैंकों में ब्याज भी कम मिलता है। दूसरी तरफ बैकों से कर्ज की मांग गिरती है।

असंगठित क्षेत्र में रोजगार वृद्धि, वेतन वाले में कमी : सीएमआइई यानी सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार लॉकडाउन के बाद असंगठित क्षेत्र में रोजगार दोबारा पैदा होने लगे हैं। वहीं संगठित क्षेत्र के रोजगार पर यह बात लागू नहीं होती है। बिना वेतन वाले रोजगार की बात करें, तो उनकी तादाद 2019-20 में 31.76 करोड़ से बढ़कर जुलाई 2020 में 32.56 करोड़ हो चुकी है। यानी असंगठित क्षेत्र के रोजगार में करीब 80 लाख यानी ढाई फीसद का इजाफा हुआ है। दूसरी ओर वेतन वाले रोजगार में लॉकडाउन की अवधि में 1.89 करोड़ यानी 22 फीसद की कमी आई है। देश के शहरी इलाकों में वेतन वाले रोजगार की तादाद ग्रामीण भारत से अधिक है। वर्ष 2019-20 में देश में 8.6 करोड़ वेतनभोगी रोजगार में 58 फीसद शहरी और 42 फीसद ग्रामीण इलाकों में थे। रोजगार की हानि भी इसी अनुपात में हुई है।

सीएमआइई के आकड़ों का विश्लेषण करने पर इस क्षेत्र में नौकरियों की कटौती को समझा जा सकता है। लॉकडाउन से पूर्व देश में वेतन वाली नौकरियों में 8.61 करोड़ लोग कार्यरत थे, परंतु लॉकडाउन में यह संख्या केवल 6.82 करोड़ रह गई। हालांकि जून में लगभग 40 लाख नौकरियों में वृद्धि हुई तथा कुल वेतनभोगी नौकरियों की संख्या सात करोड़ 22 लाख पहुंच गई। परंतु जुलाई में पुन: 50 लाख नौकरियों में कमी हो गई तथा वेतन वाली नौकरियों की संख्या केवल 6.72 करोड़ रह गई। इस तरह अभी वेतन वाली नौकरियों की संख्या अप्रैल के 6.82 करोड़ से भी 10 लाख कम है। जुलाई में नौकरियों के इस भारी गिरावट को आरबीआइ की वार्षकि रिपोर्ट से समझा जा सकता है, जिसमें जून में तो रिकवरी देखी जा सकती है, परंतु जुलाई में अर्थव्यवस्था की स्थिति पुन: बिगड़ गई। वहीं असंगठित क्षेत्र में नौकरियों में तो वृद्धि हुई है, परंतु पहले की तुलना में आय में कमी आई है।

संगठित क्षेत्र में वेतन बिल में कटौती : सीएमआइई के आंकड़ों के अनुसार बैंकों के वेतन बिल में 16.6 फीसद का इजाफा देखने को मिला, जबकि सिक्युरिटीज ब्रॉकिंग कंपनियों के वेतन भत्ते में 13.5 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। इसका आशय है कि इन क्षेत्रों में रोजगार में वृद्धि हुई है। वहीं विनिर्माण क्षेत्र में कपड़ा और वस्त्र उद्योग को भारी नुकसान पहुंचा है। इस क्षेत्र के वेतन बिल में 29 फीसद की गिरावट आई है। यह एक ऐसा क्षेत्र है, जहां श्रम की भागीदारी बहुत अधिक है। यह कृषि के बाद देश में रोजगार प्रदान करने वाला दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। इस क्षेत्र में वेतन बिल की भारी गिरावट का आशय है कि यहां रोजगार का नुकसान काफी ज्यादा हुआ है। यही स्थिति चमड़ा उद्योग की भी है। भारी तादाद में श्रमिकों की जरूरत वाले इस उद्योग में वेतन बिल में जून 2020 के तिमाही में 22.5 फीसद की गिरावट आई है। वाहन कलपुर्जा उद्योग के वेतन बिल में 21 फीसद और स्वयं वाहन उद्योग के वेतन बिल में 18.6 फीसद की कमी देखने को मिली। ध्यान रहे कि उपरोक्त सभी क्षेत्र ऐसे हैं, जहां श्रमिकों की अत्यधिक आवश्यकता होती है। सेवा क्षेत्र की बात करें, तो वहां पर्यटन उद्योग का वेतन बिल 30 फीसद, होटल और रेस्तरां का वेतन बिल 20.5 फीसद, सड़क परिवहन का 27.6 फीसद व शिक्षा का 28 फीसद कम हुआ है।

रोजगार में युवाओं की स्थिति : कोरोना संक्रमण से भले ही बुजुर्गो के अधिक प्रभावित रहने की आशंका हो, लेकिन लॉकडाउन खास तौर पर युवाओं के लिए नुकसानदेह साबित हुआ। इसके पूर्व भी जब रोजगार सृजन में तनाव था, तो वह भी युवाओं को प्रभावित कर रहा था। सीएमआइई के अनुसार उपभोक्ता पिरामिड सर्वेक्षण से सामने आने वाली चिंताजनक तस्वीर यह है कि 28 साल से 39 साल तक की उम्र वाले लोगों की कुल कार्यबल में हिस्सेदारी घट रही है। खासकर 2019-20 में यह गिरावट अधिक तेज रही है। कुल रोजगार में इस उम्र के लोगों की सामूहिक भागीदारी 2019-20 में 34 फीसद थी, जबकि 2017-18 में 37 फीसद हुआ करती थी।

दरअसल भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए पिछले कुछ साल मुश्किल रहे और युवा श्रम शक्ति पर भी इसका असर रहा। लॉकडाउन में भी ऐसी ही स्थितियां रहीं। 20 से 24 साल की उम्र समूह के कुल रोजगार में हिस्सेदारी भले ही नौ फीसद से कम है, लेकिन जुलाई 2020 तक रोजगार गंवाने वालों में उनकी हिस्सेदारी 35 फीसद तक जा पहुंची। इसी तरह 25-29 आयु समूह की रोजगार में हिस्सेदारी 11 फीसद है, लेकिन बेरोजगार होने में हिस्सेदारी 46 फीसद हो चुकी है। एक शिथिल अर्थव्यवस्था में श्रमबल की मांग भी कमजोर होने लगती है। अब उद्यम अपना विस्तार कम कर रहे हैं, लिहाजा अतिरिक्त श्रमबल की जरूरत कम पड़ सकती है। अतिरिक्त श्रम की इस मांग को युवा ही पूरा करते हैं, लेकिन विकास दर में कमी के कारण श्रम की यह मांग कमजोर पड़ चुकी है।

अभी जब अर्थव्यवस्था 23.9 फीसद गिरावट का सामना कर रही है, उससे निपटने हेतु सरकार को स्टील, पावर, पोर्ट, रेलवे आदि क्षेत्रों में भारी निवेश करना चाहिए। इससे एक ओर जहां देश के लिए आधारभूत संरचना का विकास होगा, वहीं दूसरी ओर अर्थव्यवस्था में गतिशीलता आएगी। जब सरकार एक हाइवे का निर्माण करती है, तो उससे दूसरे सैकड़ों उद्योगों में मांग पैदा होती है, जो अंतत: उद्योग विस्तार एवं रोजगार सृजन में सहायक होता है। उत्पादन आधारित अर्थव्यवस्था बनाने के लिए एमएसएमई को हर सुविधा मिलनी चाहिए। महिला श्रमिकों की बड़ी भागीदारी भी अर्थव्यवस्था में सुनिश्चित होनी चाहिए।

रिजर्व बैंक ने अपनी वार्षकि रिपोर्ट में भी केंद्र सरकार को इस संकट से निपटने के लिए सुझावों की जो एक लंबी सूची प्रस्तुत की है, उसे गंभीरता से लिया जाना चाहिए। साथ ही सरकार को मांग में तेजी लाने पर संपूर्ण ऊर्जा लगानी चाहिए। इसके लिए व्यक्तिगत आयकर में कटौती तथा प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की रकम में वृद्धि जैसे कदम उठाए जा सकते हैं। इन सबका अंतिम प्रतिफल न केवल विकास दर में वृद्धि, अपितु रोजगार सृजन के रूप में भी दिखेगा।

सामान्य परिस्थिति में यह अच्छी बात मानी जाती है कि लोग कर्ज मुक्त रहें। लेकिन यदि ऐसा घबराहट में हो रहा है, तो यह इस बात का संकेत है कि लोगों में भविष्य को लेकर आशंकाएं हैं। ऐसे में लोग कर्ज लेने से भी बचते हैं, क्योंकि उन्हें इस बात का यकीन नहीं है कि वो भविष्य में अच्छा पैसा कमा कर यह कर्ज आसानी से चुका पाएंगे। ऐसे में रोजगार सृजन की चुनौतियों को आसानी से समझा जा सकता है। लिहाजा जिन क्षेत्रों में संभावनाएं हैं, उनमें सरकार को पैसा लगाना चाहिए ताकि रोजगार के अवसरों को तेजी से बढ़ाया जा सके।

संकटमोचक की भूमिका में कृषि क्षेत्र: वर्तमान वित्तीय वर्ष के प्रथम तिमाही के आकड़ों में जहां अर्थव्यवस्था के सभी घटकों में भारी गिरावट दर्ज की गई है, वहीं कृषि एवं उससे संबद्ध क्षेत्रों में 3.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई है। वर्ष 2008 के आíथक संकट के समय भी कृषि ने ही मेरुदंड की भूमिका निभाई। वहीं 12 वर्ष बाद भी वही स्थिति है। लॉकडाउन के बीच देश में रबी फसल की बंपर पैदावार हुई। साथ ही जबरदस्त मानसून के कारण चालू खरीफ फसल का बोआई आंकड़ा अब तक का सर्वाधिक हो चुका है। रिवर्स माइग्रेशन के अंतर्गत गांव पहुंचे शहरी श्रमिकों के लिए मनरेगा और कृषि क्षेत्र किसी वरदान से कम नहीं है। सीएमआइई के अनुसार मार्च 2020 में कृषि क्षेत्र में 11.7 करोड़ जुड़े थे।

लॉकडाउन में यह संख्या 13 करोड़ पहुंच गई थी। जुलाई में भी 12.6 करोड़ लोग खेती कर रहे हैं। इस समय भी कृषि क्षेत्र में लगभग 90 लाख लोग मार्च की तुलना में अधिक संबद्ध हैं। कृषि क्षेत्र पहले ही प्रच्छन्न बेरोजगारी से जूझता रहा है। अब इस क्षेत्र पर सरकार को विशेष ध्यान देना चाहिए। सरकार के कृषि निर्यात के अंतर्गत कृषि उत्पादों को प्रोत्साहित किया जाता है। इस कारण मार्च से जून तक कृषि जिंसों के निर्यात में 23 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई है, जिसका मूल्य करीब 25,500 करोड़ रुपया है। इस बीच भारतीय कृषि उत्पादों को दुनिया के नए बाजारों में पहुंच बनाने में मदद मिली है। सरकार को चालू खरीफ सीजन के बंपर पैदावार को समुचित बाजार पहुंच उपलब्ध कराने की कोशिशें अभी से शुरू कर देनी चाहिए, जिससे बंपर पैदावार को सही मूल्य प्राप्त हो सके। किसानों के लिए सरकार अग्रिम निर्णय लेकर कार्य करेगी, तो उनकी क्रयक्षमता में वृद्धि होगी। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मांग में वृद्धि होगी, जो अंतत: संगठित क्षेत्र में रोजगार सृजन को बढ़ावा दे सकता है। इस तरह कृषि के माध्यम से इस आपदा को अवसर में बदला जा सकता है, जिसमें ग्रामीण अर्थव्यवस्था विकास की धुरी बन सकेगी।

[आर्थिक मामलों के जानकार]