नई दिल्ली, [अनुसुईया उइके]। अभी आदिवासियों को विभिन्न समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। अनुसूचित जाति एवं जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 जैसे कानून होने के बावजूद उन पर अत्याचार की घटनाएं निरंतर हो रही हैं। भूमि अधिग्रहण, अवैध खनन और वन कटाव आदि के कारण आदिवासी अपने परिवेश से विमुख होते जा रहे हैं। इनकी सुरक्षा और विकास के प्रति हमें गंभीरता से सोचने की दरकार है।

हमें ऐसी योजना को अमल में लाना होगा जिससे आदिवासियों को कम से कम नुकसान हो। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में खनन आदि से प्राप्त आय में अनुसूचित जनजातियों को हिस्सेदारी दिया जाना चाहिए। इससे उनका सरकार के प्रति भरोसा बढ़ेगा। साथ ही आदिवासी भी विकास की दिशा में तेजी से आगे बढ़ेंगे। इनके शोषण और संवेदनशीलता के स्तर को देखते हुए इनके संस्कृति की रक्षा सबसे अहम है। देश के कई अनुसूचित जनजाति क्षेत्रों में पर्यटन को प्रतिबंधित किया गया है ताकि उनकी संस्कृति और सामाजिक संरचना को नुकसान नहीं हो, लेकिन पाबंदी के बावजूद इन क्षेत्रों में बाहरी लोग घुसपैठ कर रहे हैं और इनकी संवेदनशीलता को खतरा पहुंचा रहे हैं। इसे लेकर कारगर कदम उठाए जाने की दरकार है।

ऐसा नहीं है कि जनजातियों के प्रति सरकार का रुझान निष्क्रिय रहा है। आजादी के बाद से ही इनके विकास के प्रति सरकार की चिंता बनी हुई है। पहली पंचवर्षीय योजना में जनजातियों के कल्याण के लिए 43 विशेष बहुउद्देशीय परियोजनाएं बनी थीं, जिसे दूसरी योजना में भी जारी रखा गया। तीसरी योजना में एक अलग कार्यनीति बनाई गई क्योंकि पहली दोनों योजनाएं सफल नहीं हो सकीं। पांचवीं पंचवर्षीय योजना में जन जातीय क्षेत्रों के सर्वागीण विकास के लिए जनजातीय उप योजना शुरू की गई। साथ ही भारतीय संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में जनजातियों के कल्याण व उनके शोषण को रोकने के भी व्यापक प्रबंध किए गए हैं। अभी जनजातीय कार्य मंत्रलय द्वारा आदिवासी समुदाय के समग्र विकास और कल्याण के लिए बहुत सारी योजनाएं, कार्यक्रम, मिशन चलाए जा रहे हैं। इनमें जनजाति अनुसंधान तथा मीडिया के क्षेत्र में जनजातीय अनुसंधान संस्थान को ‘सहायता अनुदान’ योजना शामिल है।

इसी तरह इस क्षेत्र में उत्कृष्ट केंद्रों की स्थापना की योजना भी चलाई गई हैं। जनजातियों को आजीविका के लिए जनजातीय उत्पादों के विकास तथा विपणन के लिए संस्थागत समर्थन की योजना है। लघु वन उत्पाद के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य योजना क्रियान्वित की गई है। जनजातियों के समग्र विकास के लिए भी मंत्रलय स्तर पर विभिन्न गैर-सरकारी संगठनों को वित्तीय सहायता दी जाती है। इसमें जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र और अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए अन्य सहायता के कार्यक्रम शामिल हैं।

कमजोर जनजातीय समूहों के विकास के लिए और कम साक्षरता वाले जिलों में आदिवासी लड़कियों में शिक्षा के लिए भी केंद्र सरकार द्वारा योजनाएं संचालित हैं। इन सबके अलावा एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय,जनजातीय क्षेत्रों में व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्र, जनजातीय उप-योजना क्षेत्रों में आश्रम विद्यालयों की स्थापना,अनुसूचित जनजाति के लड़कों और लड़कियों के लिए छात्रवासों की केंद्र सरकार प्रायोजित योजना आदि भी संचालित की जा रही है। जनजातीय समुदाय में शिक्षा को प्रोत्साहन देने के लिए भी कई तरह की छात्रवृत्तियां प्रदान की जा रही हैं। इन सबसे जनजातियों के विकास को गति मिली है।

मगर इन सबके बावजूद, तमाम सरकारी प्रयासों व योजनाओं के बावजूद देश में मौजूद जनजातियां व्यापक असुरक्षा की भावना के साथ जी रही हैं। समाजगत समस्याएं भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। उन्हें अपनी पारंपरिक आजीविका के स्नोतों से बेदखल होने का भी डर है। साथ ही अपनी जमीन और परिवेश से उजाड़े जाने का खतरा भी बना रहता है। आज वनों की संख्या में व्यापक ह्रास होता जा रहा है। इससे जंगल में रहने वाली जनजातियों के पुनर्वास की समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। खनन कंपनियों के द्वारा उन्हें विस्थापित किया जा रहा है। इससे उन्हें अपने परिवेश व प्राकृतिक सानिध्य से वंचित होना पड़ रहा है। कुल मिला कर संविधान द्वारा प्राप्त गरिमापूर्ण जीवन जीने के अधिकार से ये जनजातियां वंचित हैं।

वर्तमान के मानवीय हस्तक्षेप से प्राकृतिक असंतुलन पैदा हुआ है वहीं जनजातियों के अस्तित्व का भी सवाल खड़ा हुआ है। आज आदिवासी विरोध प्रदर्शन के जरिये अपने हक की लड़ाई लड़ रहे हैं। जबकि सरकारी प्रयासों के सही क्रियान्वयन के अभाव की वजह से उनकी समस्याएं और बढ़ी हैं। जनजातियों के पुनर्वास और उनके समुचित संरक्षण की जिम्मेदारी सरकार के ऊपर है। एक लोक कल्याणकारी राष्ट्र होने केकारण इसकी यह जिम्मेदारी बनती है कि प्राचीन सभ्यता के विलुप्त होने के पूर्व उसकी रक्षा के लिए प्रयास करे। आदिवासियों की गरीबी को मिटाने के लिए एक समाजवादी राष्ट्र को समुचित कदम उठाने होंगे। केंद्रीय सहायता का एक बहुत बड़ा हिस्सा बिचौलिए लील जाते हैं। इससे जनजातियों के बीच व्यापक असंतोष व विद्रोह की भावना जन्म लेती है।

जरूरत है समय रहते इनकी समस्याओं पर समुचित ध्यान दिए जाने की। आदिवासियों की शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल, बिजली, आवास आदि बुनियादी जरूरतों की पूर्ति इमानदार प्रशासनिक व्यवस्था के तहत हो तो हम एक शिक्षित स्वस्थ लोकतांत्रिक समुदाय का निर्माण कर सकते हैं। सामाजिक असमानता को शिक्षा के माध्यम से दूर किया जा सकता है।

राजनीतिक इच्छाशक्ति में कमी व वितरण प्रणाली की अनियमितता को दूर कर जनजातियों की खोई सांस्कृतिक विरासत हासिल कर सकते हैं। इसके लिए भू माफिया, अवैध खनन उद्योग पर कठोर नियंत्रण लगाया जाना बेहद जरूरी है। हम शिक्षित जनजातीय युवाओं के बीच करियर काउंसलिंग के तहत राष्ट्रीय रक्षा अकादमी, सिविल सेवा जैसी महत्वपूर्ण सेवाओं की जानकारी देकर इसके लिए उन्हें प्रोत्साहित कर सकते हैं। इससे एक तरफ उनका सामाजिक स्तर ऊपर उठेगा तो दूसरी ओर उन विघटनकारी समस्याओं से भी छुटकारा मिलेगा जो उन्हें विद्रोही बनने पर मजबूर करता है।

(लेखिका राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग की उपाध्यक्ष हैं)

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