नई दिल्ली, [डॉ. गौरीशंकर राजहंस]। अभी अभी संपन्न हुए 69वें गणतंत्र दिवस पर 10 ‘आसियान’ देशों के शीर्ष नेताओं की मौजूदगी ने भारत के अंतरराष्ट्रीय महत्व को पूरी तरह बढ़ा दिया। ‘आसियान’ देशों के सदस्य थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस, सिंगापुर, म्यांमार, कंबोडिया लाओस और ब्रुनेई के शासनाध्याक्ष विशिष्ट अतिथि होकर गणतंत्र दिवस के अवसर पर उपस्थित हुए। यह एक अभूतपूर्व दृश्य था जैसा पहले कभी नहीं हुआ था।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निमंत्रण पर इन देशों के राष्ट्राध्यक्ष ‘आसियान’ की रजत जयंती के उत्सव के संदर्भ में भारत के गणतंत्र दिवस के उत्सव में शामिल हुए थे। इन 10 देशों के शासनाध्यक्षों की उपस्थिति से एक बात तो साबित हो गई कि प्रधानमंत्री मोदी के अथक प्रयास से भारत एक मजबूत राष्ट्र बनकर उभरा है और एशियाई देश अब भारत के महत्व को अच्छी तरह समझ रहे हैं।

बताते चलें कि 1991 में नरसिंहराव भारत के प्रधानमंत्री हुए थे। 1992 में उन्होंने उदारवादी आर्थिक नीति की घोषणा की। साथ ही नई ‘लुक ईस्ट’ विदेश नीति की भी घोषणा की। यह महज एक संयोग था कि नरसिंहराव ने अपनी ‘लुक ईस्ट’ विदेश नीति के तहत मुङो दक्षिण पूर्व एशियाई देशों का राजदूत बनाया था। दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों में दो महत्वपूर्ण देश लाओस और कंबोडिया का मैं चार वर्ष तक भारत का राजदूत रहा।

यकायक एक दिन संसद भवन के अपने दफ्तर में बुलाकर नरसिंहराव ने मुझे कहा कि वे दो महत्वपूर्ण दक्षिणपूर्व एशियाई देशों का भारत का राजदूत मुझे नियुक्त कर रहे हैं। मैं थोड़ी देर के लिए हैरान रह गया और मुझे लगा कि प्रधानमंत्री शायद किसी और को राजदूत बनाना चाहते थे और गलती से मुझे बुला लिया है। परन्तु उन्होंने मुझे भरोसा दिलाया कि मुझे बहुत सोच समझ कर और छानबीन के बाद मुझे लाओस और कंबोडिया का राजदूत नियुक्त किया है।

अपने दफ्तर में बहुत देर तक मुझे समझाते हुए नरसिंहराव ने कहा कि दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ भारत के संबंध बहुत पुराने हैं। दुर्भाग्य की बात है कि हमने वर्षो से इन देशों की अनदेखी कर दी। जब 1962 में भारत चीन से युद्ध में हार गया उसके बाद सारी दुनिया में भारत को एक कमजोर देश माना जाने लगा। संभवत: इस कारण भी भारत ने एशियाई देशों से प्रगाढ़ दोस्ती की कोशिश नहीं की। अधिकतर देश चीन की बढ़ती हुई ताकत से घबराए हुए थे, लेकिन अब समय आ गया है कि भारत फिर से दक्षिणपूर्व एशियाई देशों से अपने संबंधों को मजबूत कर सकता है। उन्होंने मुझे बताया कि सम्राट अशोक के समय में बौद्ध भिक्षु बौद्व धर्म के प्रचार के लिए वर्मा और थाईलैंड जिसका नाम उस समय ‘सियाम’ था, मेकांग नदी पार करके लाओस, कंबोडिया और वियतनाम गए जहां उन्होंने बौद्ध धर्म का प्रचार किया।

अधिकतर भिक्षु तो इन देशों में ही बस गए। इन देशों में चीन से भी लोग आकर बसे थे, इसलिए इन देशों को ‘इंडो-चाइना’ भी कहते हैं। नरसिंहराव का कहना था कि चूंकि इन देशों के साथ हमारे हजारों वर्ष पुराने सांस्कृतिक संबंध हैं, इसलिए उन संबंधों को फिर से मजबूत करने में हमें अधिक कठिनाई नहीं होगी। उन्होंने ही बताया कि जब बौद्ध भिक्षु थाईलैंड से मेकांग नदी पार करके लाओस गए तो उस विशालकाय नदी को जो देखने में हुबहू गंगा की तरह लगती थी, उनके मुंह से अनायास ही ‘मां गंग’ निकल गया। बाद के वर्षो में ये सभी देश फ्रांस के उपनिवेश बन गए। जैसे भारत अंग्रेजों का उपनिवेश बन गया था। फ्रांसीसियों को ‘मां गंग’ के उच्चारण में कठिनाई होती थी इसलिए उन्होंने इस विशालकाय नदी का नाम ‘मेंकांग’ रख दिया। मेरी पहली तैनाती लाओस में हुई।

लाओस में ऐसा लगता था कि मानो वह भारत का ही हिस्सा हो। लाओस में अभी भी ‘पाली’ राजभाषा है जो सम्राट अशोक के समय में भारत में राजभाषा थी। भारत की तरह ही लाओस में लड़कियों के नाम राधा, सीता, मृगनयनी, सुभद्रा आदि रखे जाते हैं। पूरे दक्षिणपूर्व एशिया में खासकर लाओस में मैंने देखा कि वहां प्राय: हर शहर और हर गांव में रामलीलाओं का मंचन होता है जिस तरह भारत में रामलीला खेली जाती हैं। जगह जगह मंदिरों में रामायण के दृश्य दिखाई देते हैं।

सम्राट अशोक के समय से आज तक लाओस में बौद्ध धर्म ही राजधर्म बना हुआ है। भगवान गौतम बुद्ध की कहानी प्राय: हर बौद्ध मठ में दर्शाई जाती है। लाओस जैसे दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में बौद्ध धर्म अभी भी राजधर्म बना हुआ है और शत प्रतिशत लोग उसके अनुयायी हैं। सुबह के समय हजारों बौद्ध भिक्षु ‘बुद्धम शरणम गच्छामि’ का नारा लगाते हुए मीलों सड़क पार करते हैं। यह अभूतपूर्व दृश्य है जिसे देखकर ही अनुभव किया जा सकता है। लाओस में मैंने देखा कि वहां सबसे ऊंचा स्थान बौद्ध भिक्षुओं का है और उसके बाद देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री का आता है। लाओस में मुझे जगह जगह यह शिकायत मिली कि भारत ने अनेक वर्षो तक लाओस की अनदेखी की।

कंबोडिया में भारत की संस्कृति अभी भी जीवन्त रूप लिए हुए है। कंबोडिया का विश्व प्रसिद्ध ‘अंकोरवाट मंदिर’ दुनिया के सात आश्चर्यो में से एक है। यहां प्रतिवर्ष हजारों सैलानी आते हैं। उन्हें यह देखकर आश्चर्य होता है कि सैंकड़ों वर्ष पहले यहां मंदिर कैसे बना था। इतिहासकारों ने यह सिद्ध कर दिया है कि इस मंदिर को कंबोडिया के तत्कालीन कारीगरों और दक्षिण भारत के कारीगरों ने मिलकर बनवाया था। सैंकड़ों मील दूर से बड़े बड़े हाथियों की सहायता से खींचकर बड़े बड़े पत्थर अंकोरवाट मंदिर परिसर में लाए जाते थे। कई वर्षो में यह मंदिर बना।

आज इस मंदिर का जीर्णोद्वार भारत सरकार कर रही है। फ्रांस की सरकार भी इस जीर्णोद्धार में हाथ बंटा रही है। फ्रांस ने एक समय में यह प्रचार किया था कि अंकोरवाट मंदिर को फ्रांसीसियों ने बनाया था। मुझे भारत सरकार की तरफ से एक ‘ब्रीफ’ भेजा गया था जिसमें कहा गया था कि इस मंदिर को भारतीयों और कंबोडिया वासियों ने मिलकर बनाया था। उस समय फ्रांस का कोई अता पता नहीं था। मैंने एक कांफ्रेंस में कंबोडिया में जोर देकर कहा था कि अंकोरवाट का मंदिर कंबोडियावासियों और भारतवासियों के प्रयास का फल है। इसमें फ्रांस का कहीं कोई योगदान नहीं है। मेरे ऐसा कहने का बाद यह विवाद रूक सा गया है।

(लेखक पूर्व सांसद एवं पूर्व राजदूत हैं)

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