नई दिल्ली, [सुशील कुमार सिंह]। भारतीय अर्थव्यवस्था में सतत, समावेशी और पूंजवादी विकास समेत समाजवादी धारणा का भरपूर मिश्रण देखा जा सकता है। बरसों से इसकी कोशिश रही है कि विकास को जन-जन तक पहुंचाया जाए पर तमाम अनुप्रयोगों के बावजूद इसमें सफलता नहीं मिल पाई है। पांचवीं पंचवर्षीय योजना(1974-79) से शुरू हुई गरीबी उन्मूलन की कवायद आधा रास्ता भी तय नहीं कर पाई है, लिहाजा अब भी हर चौथा व्यक्ति गरीबी रेखा के नीचे है और इतने ही अशिक्षित भी।

आर्थिक विकास दर को लेकर चिंता हमेशा से रही, लेकिन यही दर मौजूदा समय में पिछले चार साल के मुकाबले सबसे कमजोर स्थिति में है। अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का अनुमान है कि 2019 में भारत विकास दर के मामले में 7.8 फीसद के आंकड़े को छू लेगा। यदि ऐसा होता है तो हम चीन को भी पीछे छोड़ देंगे। अभी विकास दर 6.5 फीसद तक रहने का अनुमान है। इस पर भी गौर फरमाने की आवश्यकता है कि यदि देश में विकास दर आसमान छूती है तो बढ़े हुए हिस्से से सर्वाधिक लाभ में कौन होगा। अंतरराष्ट्रीय अधिकार समूह ऑक्सफेम की ओर से एक सर्वेक्षण तब आया है जब विश्व आर्थिक मंच की शिखर बैठक शुरू होने में चंद घंटे ही बाकी थे।

पिछले साल बने 17 नए अरबपति
सर्वेक्षण बताता है कि भारत में कुल संपदा सृजन का 73 फीसद हिस्सा एक प्रतिशत अमीरों के पास है। यह कोई असमंजस नहीं होने देता कि अमीरी-गरीबी के बीच खाई पहले की तुलना में और चौड़ी हुई है। 2017 के दौरान भारत में 17 नए अरबपति बने और अब इनकी संख्या 101 हो गई है। मगर सवाल यह भी है कि दुनिया में लगभग साढ़े सात अरब की जनसंख्या है जिसमें से ठीक आधे ऐसे लोग हैं जिनकी संपत्ति में रत्ती भर का भी इजाफा नहीं हुआ है। फिलहाल देश की तीन चौथाई संपदा पर चंद लोगों का एकाधिकार है जिसे देखते हुए यह बात बेहिचक कहा जा सकता है कि सबका साथ, सबका विकास मात्र एक सपना बनकर रह गया है जिसे हकीकत में जमीन पर उतारना संभव होता फिलहाल दिखाई नहीं देता।

भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर दिखती असमानता
विश्व बैंक से लेकर मुडीज रिपोर्ट तक तमाम अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां यह बात कह चुकी हैं कि भारत आर्थिक तौर पर सुदृढ़ता की ओर जा रहा है जिसे लेकर संतोष जताया भी जा सकता है। बावजूद इसके जिस प्रकार आर्थिक विन्यास और विकास से जुड़े आंकड़े सामने आए हैं उससे चिंतित होना भी लाजमी है। ऐसे में भारत सरकार को चाहिए कि वह यह सुनिश्चित करे कि भारत की अर्थव्यवस्था सभी के लिए काम करती है न कि चंद लोगों के लिए। वैसे सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर भी असमानता देखी जा सकती है।

आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल सृजित की गई कुल संपदा का 82 प्रतिशत हिस्सा दुनिया के केवल एक फीसद अमीरों की जेब में थी। असमानता के जो गगनचुंबी फासले देखने को मिल रहे हैं उससे साफ है कि दुनिया के देश अपने निजी एजेंडों से बाहर नहीं है। वैश्विक मंचों पर भले ही आर्थिक तौर पर एक-दूसरे को साधने की कोशिश कर रहे हों पर भीतर के हालात बेहतर नहीं हैं।

यह चुनौती भी है सामने
ऑक्सफेम की रिपोर्ट में यह चेतावनी भी है कि आर्थिक तरक्की चंद हाथों तक केंद्रित होकर रह गई है। लोकतंत्र और विकेंद्रीकरण विकास के बड़े आधार माने गए हैं। इसके बावजूद आर्थिक केंद्रीकरण इस कदर पनपना कि वाकई में इसे नीतियों का सही अनुपालन न हो पाना ही कहा जाएगा। नवंबर 2016 में जब देश में नोटबंदी हुई तब यह बात फलक पर थी कि अमीरी और गरीबी के बीच की खाई पाटने के ये काम आएगा पर रिपोर्ट देखकर यह सोच भी बेमानी सिद्ध हुई है। वैसे ऑक्सफेम के वार्षिक सर्वेक्षण को बहुत महत्व दिया जाता रहा। पिछले साल जब कुल संपत्ति का 58 फीसद हिस्सा एक प्रतिशत अमीरों तक सीमित होने की जानकारी का खुलासा हुआ तब भी चिंता की लकीरें बड़ी हुई थीं। सवाल है कि सबका साथ, सबका विकास कैसे होगा?

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