नई दिल्ली (विक्रम सिंह)। पिछले कुछ दिनों से उत्तर प्रदेश के उन्नाव और जम्मू-कश्मीर के कठुआ के यौन हिंसा से संबंधित अपराधों पर धरना-प्रदर्शन से लेकर टीवी चैनलों पर जोरदार बहस जारी है। इन दोनों मसलों को लेकर राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला भी कायम है। कांग्रेस ने इन गंभीर मसलों को लेकर कैंडल मार्च भी निकाल डाला, लेकिन क्या हम इसकी अनदेखी कर दें कि पुलिस सुधारों संबंधी सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों पर अमल करने की जहमत न तो कांग्रेस ने उठाई और न ही भाजपा ने। नि:संदेह उन्नाव और कठुआ के मामले एक जैसे नहीं, लेकिन दोनों ही मामलों में पुलिस की कार्यप्रणाली सवालों के घेरे में है। यह इसीलिए है, क्योंकि शासन-प्रशासन ने समय रहते सही और सख्त कदम नहीं उठाए।

इन दोनों ही मामलों में यह भी साझा पहलू है कि पुलिस की ही कार्यप्रणाली से हालात बिगड़े। हालात संभालने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने तो उन्नाव के मामले को सीबीआइ के हवाले कर दिया, लेकिन जम्मू-कश्मीर सरकार ने अभी तक ऐसा कोई फैसला करने के संकेत नहीं दिए हैं, जबकि जम्मू के कुछ संगठन ऐसा ही चाह रहे हैं। यह बात और है कि इस चाहत की कोई ठोस वजह सामने नहीं आ रही है। घृणित अपराध को हिंदू-मुस्लिम के नजरिये से देखना क्षुद्रता ही है। कठुआ में आठ साल की बच्ची की दुष्कर्म के बाद हत्या के बारे में जो जानकारी अब तक सामने आई है वह सिहरन पैदा करने वाली है। ऐसी घटना सभ्य समाज के माथे पर कलंक है। बेशक उन्नाव की घटना भी कम भयावह नहीं, क्योंकि पीड़ित युवती के पिता की एक तरह से पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। हालांकि सीबीआइ ने जांच अपने पास आते ही आरोपित विधायक कुलदीप सेंगर को गिरफ्तार कर लिया, लेकिन अभी यह सामने आना शेष है कि विधायक पर लगे आरोपों में कितनी सच्चाई है? यह तो साफ है कि विधायक के भाई ने युवती के पिता को बुरी तरह पीटा और पुलिस ने उसकी मदद करने के बजाय उसे ही जेल भेज दिया जहां इलाज के अभाव में उसकी मौत हो गई।

कठुआ और उन्नाव की घटना के हवाले से केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी ने कहा है कि वह पोक्सो कानून में बदलाव लाकर 12 साल से कम उम्र की बच्चियों से दुष्कर्म के अपराधियों के लिए मौत की सजा के प्रावधान के लिए पहल करेंगी। ऐसे ही कानून हरियाणा, मध्यप्रदेश अरुणाचल प्रदेश और राजस्थान की सरकारों ने भी बनाए हैं। यह सुनने में तो अच्छा लगता है कि बच्चियों से दुष्कर्म के अपराधियों को मौत की सजा का कानून बनेगा, लेकिन इस सवाल का जवाब कौन देगा कि निर्भया के हत्यारों को अभी तक मौत की सजा की क्यों नहीं मिल सकी? आखिर जो सरकार निर्भया फंड को महिलाओं की सुरक्षा में इस्तेमाल करने का तौर-तरीका नहीं खोज पा रही है वह बच्चियों के दुष्कर्मियों को मौत की सजा कैसे दिलवा पाएगी? क्या कारण है कि किसी राजनीतिक दल का कोई नेता यह कहने का साहस नहीं कर रहा है कि पुलिस सुधारों पर अविलंब अमल किया जाए?

सीबीआइ में पुलिस के ही अधिकारी होते हैं, लेकिन वह सक्षम नजर आते हैं वो इसीलिए, क्योंकि उन पर नेताओं का दबाव नहीं होता। यदि पुलिस सुधारों की दिशा में आगे नहीं बढ़ा गया तो हमारी पुलिस और अधिक अपंग ही होगी और उसकी बची- खुची धार भी खत्म हो जाएगी। राजनीतिक नेतृत्व पुलिस सुधारों की दिशा में इसीलिए आगे नहीं बढ़ रहा, क्योंकि शायद वह यह जानता है कि एक बार पुलिस के तंत्र और स्वभाव में सुधार आ गया तो फिर वह उससे अपने अनर्गल और अनुचित कार्य नहीं करा सकेगा।

बेशक पुलिस सुधारों के साथ यह भी जरूरी है कि दुष्कर्म सरीखे संगीन मामलों की सुनवाई फास्ट ट्रैक अदालतों में हो और फास्ट ट्रैक अदालतों का मतलब दिन प्रतिदिन सुनवाई ही होना चाहिए। यह जिम्मेदारी आरोपित पर होनी चाहिए कि वह अपनी बेगुनाही साबित करे। यदि राजस्थान में दुष्कर्म के कुछ मामलों पर 10-15 दिनों में विचारण करके फैसला दिया जा सकता है तो ऐसा ही अन्य मामलों में क्यों नहीं हो सकता? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि राजनेताओं में पुलिस और न्यायिक सिस्टम को सुधारने की इच्छाशक्ति नहीं है।

इच्छाशक्ति के अभाव में ही अपराधों और आपराधिक तत्वों पर प्रभावी लगाम नहीं लग पा रही है। राजनीतिक इच्छाशक्ति का यह अभाव मादक पदार्थों की बेलगाम बिक्री और इंटरनेट के जरिये फैलती अश्लीलता पर रोक के मामले में भी नजर आती है। यदि देश का राजनीतिक नेतृत्व दुष्कर्म की बढ़ती घटनाओं एवं अन्य संगीन अपराधों को लेकर वास्तव में चिंतित है और यह चाहता है कि पुलिस और अधिक सक्षम एवं प्रभावी बल के रूप में सामने आए तो फिर उसे एक दशक से लंबित पड़े पुलिस सुधारों की दिशा में आगे बढ़ना ही होगा। यदि ऐसा नहीं होता तो उन्नाव और कठुआ जैसे मामले आगे भी देखने को मिल सकते हैं और समय के साथ जनता में असंतोष भी बढ़ता जाएगा। पुलिस सुधारों में पहले ही बहुत देर हो चुकी है उन्हें अब और नहीं टाला जाना चाहिए।

(लेखक उत्तर प्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक हैं)