नई दिल्ली [डॉ. एके वर्मा]। हाल के समय में पूर्वोत्तर भारत की राजनीति में जबरदस्त बदलाव आया है। यह बदलाव केवल इस रूप में ही नहीं है कि जहां कभी भाजपा का खाता भी नहीं खुलता था और उसे मात्र एक-डेढ़ फीसद वोट मिलते थे वहां कई राज्यों में आज उसकी सरकारें हैं, बल्कि आर्थिक एवं सामाजिक बदलाव के रूप में भी है। पूर्वोत्तर देश के लिए सामरिक दृष्टि से बहुत संवेदनशील है, क्योंकि इसकेसभी आठ राज्यों अरुणाचल, असम, नगालैंड, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, मेघालय और सिक्किम की 90 प्रतिशत से अधिक सीमा अंतरराष्ट्रीय है, जो चीन, बांग्लादेश, म्यांमार, भूटान और नेपाल से लगती है। पिछली सरकारों ने इस क्षेत्र के विकास और देश की प्रतिरक्षा में कोई तालमेल बैठाने का काम नहीं किया। इससे न केवल पूर्वोत्तर के लोगों में भारतीय अस्मिता को लेकर संवेदनहीनता रही, वरन विदेशी ताकतों, खासकर चीन को उन्हें भारत के विरुद्ध भड़काने का एक आधार मिल गया।

1962 के बाद ज्यादातर सरकारें चीन के सामरिक दबाव में रहीं और उन्होंने दक्षिणी पूर्वी एशिया (आसियान) के देशों को कोई विशेष तवज्जो भी नहीं दी। रही-सही कसर ईसाई मिशनरियों ने धर्मांतरण द्वारा पूरी कर दी। 2011 की जनगणना के अनुसार नगालैंड 88 प्रतिशत, मिजोरम 87 प्रतिशत, मेघालय 74 प्रतिशत, मणिपुर 41 प्रतिशत और अरुणाचल 30 प्रतिशत ईसाई जनसंख्या वाले राज्य बन गए जबकि 1911 की जनगणना में ईसाइयों की जनसंख्या इन राज्यों में शून्य से तीन प्रतिशत मात्र थी।

कांग्रेस ने भाजपा को सांप्रदायिक घोषित कर और स्वयं को अल्पसंख्यकों के मसीहा के रूप में पेश कर इसका लाभ उठाया। इससे पूर्वोत्तर में काफी समय तक उसका दबदबा बना रहा, लेकिन भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी पूर्वोत्तर में आदिवासियों के बीच ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के माध्यम से काम कर न केवल लालच और दबाव द्वारा किए जाने वाले धर्मांतरण पर ब्रेक लगाया वरन आदिवासियों को अपनी संस्कृति और धर्म के मार्ग पर डटे रहने का साहस भी दिया। तो क्या पूर्वोत्तर का भगवाकरण हो रहा है? यह ठीक है कि भाजपा पूर्वोत्तर के अनेक राज्यों में सरकार बनाने में सफल रही है, लेकिन अभी यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि पूर्वोत्तर की जनता ने भाजपा की दक्षिणपंथी विचारधारा को स्वीकार कर लिया है। तो फिर हाल के चुनावों में भाजपा की राजनीतिक बढ़त को कैसे देखा जाए? भाजपा ने असम, त्रिपुरा और अरुणाचल

में अपने बलबूते और मेघालय, नगालैंड और मणिपुर में अपने सहयोगी दलों के साथ सरकारें बना ली हैं।

असम और त्रिपुरा में तो भाजपा को स्पष्ट जनादेश मिला। असम में उसने कांग्रेस और त्रिपुरा में वाम दलों की सरकार को विस्थापित किया। असम और त्रिपुरा में क्रमश: कांग्रेस और वामपंथी दलों का जनाधार कम नहीं हुआ, पर इन राज्यों में भाजपा के जनाधार में अप्रत्याशित वृद्धि हुई। निष्कर्षत: इन राज्यों के साथ पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में वामपंथ (कम्युनिस्ट), मध्यमार्गी वामपंथ (कांग्रेस) और क्षेत्रीय विचारधाराओं के साथ-साथ दक्षिणपंथ (भाजपा) को भी राजनीतिक ‘स्पेस’ मिल गया है। इसे हम पूर्वोत्तर में ‘विचारधारामूलक स्पर्धाओं का लोकतंत्रीकरण’ कह सकते हैं, क्योंकि अब वहां राजनीतिक स्पर्धा में उस दक्षिणपंथी विचारधारा को भी स्थान मिल गया जो पहले बहिष्कृत थी।

क्या पूर्वोत्तर में भाजपा की उपस्थिति जनादेश पर आधारित है या उसे केवल रणनीतिक उपस्थिति माना जा सकता है? जनादेश और रणनीतियां परस्पर स्वायत्त विधाएं नहीं, वरन अनुपूरक हैं। जनादेश हेतु राजनीतिक स्पर्धाएं बिना रणनीति के संभव नहीं। हम राजनीतिक दलों की रणनीतियों की समीक्षा उचित-अनुचित के रूप में कर सकते हैं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि भाजपा ने पूर्वोत्तर में अपनी पैठ बनाने के लिए कई सफल रणनीतियां बनाईं। आम जनता खास तौर से आदिवासियों से जुड़ना उसकी पहली रणनीति रही। क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को साधना उसकी दूसरी रणनीति थी। इसके लिए उसने 2016 में राजग की तर्ज पर ‘नार्थ ईस्ट डेमोक्रेटिक एलायंस’ यानी नेडा बनाया जिसमें नगा पीपुल्स फ्रंट, सिक्किम डेमोक्रेटिक एलायंस और असम गण परिषद आदि क्षेत्रीय दलों को सम्मिलित किया। इससे ही उसे स्थानीय समर्थन मिल सका। तीसरी रणनीति के रूप में उसने पूर्वोत्तर के महत्वपूर्ण नेताओं को भाजपा में शामिल किया।

चूंकि चुनावी रणनीतियां राजनीतिक लक्ष्यों को ही प्राप्त करने के लिए होती हैं इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का राजनीतिक लक्ष्य ‘भाजपा सिस्टम’ की स्थापना है जिसे वह ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ की अवधारणा से व्यक्त करते हैं। स्वतंत्रता के बाद देश में ‘कांग्रेस सिस्टम’ स्थापित हो गया था जिसमें केंद्र और राज्यों में कांग्रेसी सरकारों का वर्चस्व रहा। गांधी जी इसके खिलाफ थे। उन्होंने कांग्रेस को भंग कर उसे ‘लोक सेवक संघ’ में बदलने की वकालत की, जिसे नेहरू और पटेल ने स्वीकार नहीं किया। आज कांग्रेस केवल पंजाब, कर्नाटक और मिजोरम में सिमट कर रह गई है जबकि भाजपा करीब 20 राज्यों में सत्ता में है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि कांग्रेस ने उस भारतीयता की उपेक्षा की जिसे गांधी, टैगोर, महर्षि अरविंद, विवेकानंद, राधाकृष्णन और लोहिया जैसे

विद्वानों ने आगे बढ़ाने की कोशिश की। पूर्वोत्तर के राज्य इसके गंभीर शिकार हो गए और वहां स्थानिकता हावी हो गई। यह देश की सुरक्षा के लिए गंभीर चुनौती बन गई, क्योंकि यदि सीमाओं पर देश प्रेम का जज्बा न हो तो शत्रु से लड़ना मुश्किल हो जाता है। इसी कमी को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक तरह की ‘थ्री डी पॉलिटिक्स’ की रणनीति पूर्वोत्तर में लागू की।

इसका अर्थ है डेवलपमेंट यानी विकास, डिफेंस यानी प्रतिरक्षा और डेमोक्रेसी यानी लोकतंत्र को जोड़कर मजबूत और समृद्ध भारत की कल्पना करना। मोदी ने पूर्वोत्तर को ‘आसियान’ देशों से जोड़ने वाले ‘एक्सप्रेस कॉरीडोर’ के रूप में देखा और वहां रेल, सड़क और वायु मार्गों के विकास एवं बिजली उत्पादन को वरीयता देकर विकास को प्राथमिकता दी। पूर्वोत्तर का विकास देश की प्रतिरक्षा से भी जुड़ता है। जिस तरह चीन ‘वन-बेल्ट, वन-रोड’ परियोजना से भारत को घेरने की कोशिश कर रहा है उसकी काट के लिए मोदी ने ‘स्ट्रिंग ऑफ पर्ल’ की जवाबी रणनीति बनाई है और उसके लिए ‘लुक ईस्ट’ से आगे ‘एक्ट ईस्ट’ की नीति अपनाई है। इसमें विकास के साथ-साथ प्रतिरक्षा का भी समन्वय है। विकास और प्रतिरक्षा की सार्थकता के लिए लोकतंत्र अर्थात जनता की

सहभागिता जरूरी है। पूर्वोत्तर के चुनावों ने मोदी की इस रणनीति को संजीवनी दी है। वहां के लोगों ने नरेंद्र मोदी के विकास मॉडल की हकीकत समझी और जनता, राजनीतिक दलों और क्षेत्रीय नेताओं ने भाजपा का समर्थन किया। यदि भाजपा पूर्वोत्तर भारत में विकास को जमीन पर उतार सकी तो पूर्वोत्तर में दक्षिणपंथी विचारधारा भी अपना स्थान बना सकेगी।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)