नई दिल्ली [ अभिनव प्रकाश ]। डॉक्टर भीमराव आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को संविधान सभा में ‘अराजकता का व्याकरण’ नाम से प्रसिद्ध अपने संबोधन में कहा था कि ‘अगर भारत में लोकतंत्र बरकरार रखना है न केवल प्रपत्र में, बल्कि वास्तव में भी, तो हमें क्या करना चाहिए? मेरे विचार से सबसे पहले हमें अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक तरीकों पर अडिग रहना होगा। इसका मतलब हमें हिंसक क्रांति के तरीके को त्यागना होगा। इसका मतलब है हमें सविनय अवज्ञा, असहयोग आंदोलन और सत्याग्रह के रास्ते को भी त्यागना होगा। ब्रिटिश हुकूमत के दौर में जब कोई भी संवैधानिक रास्ता नहीं खुला था तब इस प्रकार के असंवैधानिक तरीकों के पक्ष में तर्क थे, परंतु जब संवैधानिक रास्ते खुले हैं तो इस तरह के असंवैधानिक तरीकों की कोई तार्किकता नहीं रह जाती है, क्योंकि ये तरीके और कुछ नहीं, बल्कि अराजकता का व्याकरण हैं जिसे हम जितनी शीघ्रता से त्याग दें उतना ही हमारे लिए बेहतर है।’

बीते 2 अप्रैल को विभिन्न दलित संगठनों द्वारा सोशल मीडिया के माध्यम से बुलाए गए भारत बंद में हुई हिंसा और अराजकता डॉ. आंबेडकर द्वारा व्यक्त की गई आशंका की पुष्टि करती है। भारत में दलित आंदोलन और विरोध प्रदर्शन का लंबा सिलसिला रहा है, लेकिन अपने व्यापक स्तर के बावजूद उनका हिंसक इतिहास नहीं रहा है। भारत बंद के दौरान की अराजकता इस आशंका को भी बल देती है कि साजिश के तहत हिंसा को भड़काया गया। खासतौर पर तब जब आखिरी वक्त पर इसमें सभी राजनीतिक दल कूद पड़े, लेकिन आरोप-प्रत्यारोप से परे भी प्रदर्शन के कारणों को देखने की जरूरत है। एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले

पर भारत बंद बुलाने के पीछे जो कारण बताए गए थे उनमें एक आरोप की शक्ल में यह है कि सरकार एससी/एसटी अधिनियम को बदल कर निष्प्रभावी बना रही है, आरक्षण खत्म कर रही है और दलितों पर अत्याचार बढ़ रहे हैं, लेकिन तथ्यों पर एक नजर ही यह दिखाने के लिए काफी है कि ये आरोप बेहद ही कमजोर किस्म के हैं।

हाल में ऐसे जितने भी निर्णय आए हैं, चाहे वह शिक्षण संस्थानों में विभागीय आधार पर आरक्षण का रोस्टर बनाने का हो, जिससे आरक्षित सीटें कम हो रही हैं या फिर एससी/एसटी अधिनियम पर फैसला हो, उनमें से एक भी सरकार का नहीं, बल्कि अदालतों का है। सरकार ने इन दोनों फैसलों का विरोध किया है। अब ऐसा कहना केवल कपोल कल्पना ही हो सकती है कि चूंकि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है इसलिए वह खुद नहीं, बल्कि अदालतों के माध्यम से यह सब कर रही है। यह छल-कपट से बुनी गई कहानी है। यदि अदालतों और सरकार की इतनी ही पटरी बैठ रही होती तो फिर आधार जैसे अनेक मामलों में सरकार को इतना दम-खम नहीं लगाना पड़ रहा होता। एनजेएसी यानी राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग को सुप्रीम कोर्ट द्वारा सिरे से खारिज किए जाने से यह और अच्छे से पता चल जाता है कि सरकार और न्यायपालिका के संबंध कैसे हैं। इसके अलावा अगर सरकार का ट्रैक-रिकॉर्ड भी देखा जाए तो ये आरोप कमजोर ही लगते हैं। भाजपा सरकार ने ही आरक्षण के पक्ष में 81, 82 और 85 वां संविधान संशोधन किया था जो एससी/एसटी की बैकलॉग सीटों को भरे जाने, भर्ती के मापदंड में छूट और पदोन्नति में आरक्षण को लेकर थे।

समाजवादी पार्टी शायद यह बताएगी कि कैसे उसने एससी/एसटी की पदोन्नति में आरक्षण का विरोध किया था और संसद में किसने इससे संबंधित बिल फाड़ा था? क्या किसी से यह छिपा है कि अखिलेश यादव के कार्यकाल में दलित अधिकारियों की सुप्रीम कोर्ट के 2012 के निर्णय के बाद किस प्रकार पदावनति की गई थी। अदालत के निर्णय की आड़ लेकर दलित जाति के उन अधिकारियों को भी उठाकर नीचे फेंक दिया गया था जो बिना आरक्षण भी प्रोन्नति के काबिल थे और अर्हताओं को पूरा करते थे।

सोशल मीडिया पर लंबे-लंबे संदेश लिखने वाले यह बताना भूल रहे हैं कि मोदी सरकार ने ही एससी/एसटी अधिनियम को 2015 में संशोधित कर उसे और प्रभावी बनाने का काम किया है। इसी सरकार ने मुआवजा बढ़ाने के साथ ही जिला स्तर पर विशेष अदालतों की स्थापना की, जिनके लिए दो महीनों में निर्णय देना अनिवार्य बनाया गया है। बढ़ते अपराधों के आंकड़े दिखाकर जो बयानबाजी हो रही है उसमें यह नहीं बताया जा रहा है कि 2015 के संशोधन के चलते अब पहले से अधिक अपराधों को एससी/एसटी अधिनियम के अंतर्गत लाया जा रहा है। इसके कारण जो अपराध पहले दर्ज नहीं होते थे वे भी अब दर्ज हो रहे हैं। क्या मायावती यह बताएंगी कि अपने पिछले कार्यकाल में उन्होंने एससी/ एसटी अधिनियम को ख़ुद कमजोर क्यों किया था और यह निर्देश क्यों दिया था कि सिर्फ हत्या और दुष्कर्म के मामले ही इस अधिनियम के अंतर्गत दर्ज होंगे और वे भी प्रारंभिक जांच के बाद ही? ऐसा लगता है कि सोशल मीडिया पर तथ्यहीन शोर मचाने वाले शायद यह सब बताना जानबूझकर भूल गए। एससी/एसटी अधिनियम पर भी सरकार ने आरंभ में ही कह दिया था कि वह पुनर्विचार याचिका दायर करेगी और मात्र चार-पांच कार्यदिवस में कर भी दिया। उपद्रव को सही बताने वाले क्या यह बताएंगे कि वह इससे अधिक तेजी से क्या कर लेते?

दरअसल भारत बंद के दौरान जो कुछ हुआ वह सिर्फ 2019 के लिए ‘माहौल’ बनाने का खेल है। कभी इंदिरा हटाओ की तरह ही आज मोदी हटाओ की मुहिम में विपक्ष कुछ भी करने पर आमादा हो गया है। बिना किसी तथ्य और साक्ष्य के सोशल मीडिया और खासतौर पर कुछ खास वेबसाइटों के सहारे बेहद ही खतरनाक दुष्प्रचार चला। इसका नतीजा क्या हुआ और कितने लोगों की जान गई, इसकी भीड़ को भड़काने वालों को कोई परवाह नहीं है। चाहे पटेल आंदोलन हो, जाट आंदोलन हो, मराठा आंदोलन हो, करणी सेना का उपद्रव हो या फिर अब दलित प्रदर्शन, सबका पैटर्न एक जैसा ही प्रतीत होता है। ऐसे पैटर्न के बीच यह निर्णय जनता को ही करना है कि क्या वह डॉ. आंबेडकर के ‘अराजकता का व्याकरण’ वाली चेतावनी को मानेगी या फिर सोशल मीडिया पर चलने वाली फर्जी खबरों और दुष्प्रचार को? आरक्षण हो या सामजिक न्याय की लड़ाई या फिर अन्य मुद्दे, उन्हें लेकर जो संघर्ष और सामाजिक खींचतान है वह भाजपा, कांग्रेस इत्यादि के परे है। इसीलिए आंबेडकर ने इन मुद्दों के लिए संवैधानिक तरीकों की वकालत की थी न कि सड़कों पर उतरकर उपद्रव की।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)