[विराग गुप्ता]। मोदी सरकार के चार साल पूरे होने के साथ ही लोकसभा चुनाव की आहट अब और तेज हो गई है। इसी के साथ ‘एक देश एक चुनाव’ की चर्चा ने भी जोर पकड़ लिया है। हाल में उत्तर प्रदेश सरकार की एक समिति ने ‘एक देश एक चुनाव’ के पक्ष में अपनी राय दी है। उसने 2024 में लोकसभा के साथ ही विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की है। इस पर सपा नेता अखिलेश यादव ने 2019 में ही दोनों चुनाव एक साथ कराने की चुनौती दी है। क्या 2019 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ हो सकते हैं? लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ कराने के लिए अनेक संवैधानिक समस्याओं का समाधान करने के साथ सरकार को विपक्षी दलों का सहयोग भी हासिल करना होगा। अक्टूबर 1951 से फरवरी 1952 के दौरान पहली

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे। 1967 से गठबंधन सरकारों का दौर शुरू हुआ, जिससे लोकसभा और विधानसभा चुनावों की एक साथ चल रही गाड़ी पटरी से उतर गई।

जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने के छह महीने पहले कभी भी चुनाव कराए जा सकते हैं। विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने के दस महीने पहले चुनाव कराने के लिए यदि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 14 और 15 में बदलाव कर दिया जाए तो हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड और दिल्ली में लोकसभा के साथ-साथ 2019 में चुनाव कराए जा सकते हैं। इसी तरह से मिजोरम, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की विधानसभाओं का कार्यकाल खत्म होने के बाद कुछ महीनों के लिए राष्ट्रपति शासन लगाकर वहां भी लोकसभा के साथ चुनाव कराए जा सकते हैं। चूंकि सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, तेलंगाना, उड़ीसा और आंध्र प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल लोकसभा के आसपास ही खत्म होगा इसलिए इन राज्यों में लोकसभा के साथ चुनाव कराने में कोई खास वैधानिक अड़चन नहीं हैं। अगर विधानसभा चुनाव समय से पहले कराए गए तो कहीं-कहीं कुछ महीनों के लिए पुरानी सरकार भी बरकरार रहेगी। इससे नए विधायकों और पुरानी सत्ता के बीच राजनीतिक संघर्ष के साथ आयाराम-गयाराम का खेल भी शुरू हो सकता है। इससे बचने के लिए चुनाव परिणाम कुछ महीने बाद घोषित किए जा सकते हैं।

मध्यावधि चुनाव की नौबत आने पर नई लोकसभा या विधानसभा का कार्यकाल बकाया समय के लिए ही होना चाहिए, जिससे पांच सालों में देश में चुनाव का अनुशासन दोबारा न टूटने पाए। बार-बार चुनावों के चलते आचार संहिता लागू होने के कारण केंद्र सरकार द्वारा बड़े निर्णय नहीं ले पाने का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है। एक अनुमान के अनुसार विधानसभा और लोकसभा के चुनाव अलग-अलग होने से हर साल करीब चार महीने आचार संहिता के दायरे में आ जाते हैं। चुनाव आयोग ने सितंबर 2018 के बाद एक साथ चुनाव कराने के लिए कमर कसने की बात कही थी। इसके लिए 12 लाख नई ईवीएम मशीनों और वीवीपैट की व्यवस्था करनी पड़ेगी जिससे सरकारी खजाने पर 4500 करोड़ का बोझ पड़ सकता है। नीति आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार 2009 के लोकसभा चुनाव के आयोजन में 1195 करोड़ रुपये खर्च हुए थे जो 2014 के चुनाव में बढ़कर 3900 करोड़ हो गए। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने की स्थिति में 4500 करोड़ रुपये की बचत से ईवीएम मशीनों और वीवीपैट के खर्चे का इंतजाम हो सकता है। एक साथ चुनाव की व्यवस्था बेहतर लोकतंत्र और दीर्घकालिक लाभ के लिए हमारा निवेश होगा।

एक साथ चुनाव होने पर केंद्रीय सुरक्षा बलों की सभी क्षेत्रों में मौजूदगी रहेगी, जिससे बंगाल के पंचायती चुनावों की तरह हिंसा के मामलों में कमी आने के साथ क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद, जातिवाद और भाषावाद पर भी लगाम लग सकती है। संविधान के अनुसार संसद को राज्यों की सीमा में बदलाव के साथ राज्यों को खत्म करने का भी अधिकार है। संविधान में कहीं भी राजनीतिक दलों का जिक्र नहीं है और कानून के सभी उपबंध राष्ट्रीय एकता के स्वर को बुलंद करते हैं। ऐसे में एक साथ चुनाव आयोजित कराने पर कैसे विवाद हो सकता है? आलोचकों को यह समझना चाहिए कि चुनाव आयोग ने इस बारे में 1983 में ही अनुशंसा कर दी थी। बीते 35 सालों में सरकारें इसे लागू करने में विफल रहीं। एक साथ चुनाव से राष्ट्रीय एजेंडे को महत्व मिलेगा। एक साथ चुनाव हर मर्ज की दवा नहीं हैं, लेकिन यह समझा जाना चाहिए कि लगातार चुनावों का सिलसिला भी ठीक नहीं।

( लेखक सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं)