[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: विज्ञान, तकनीकी और संचार एवं सूचना-प्रौद्योगिकी में भारत विश्व के शीर्षस्थ देशों में है और वह अपनी प्रगति पर गर्व कर सकता है। इस प्रगति में तमाम बाधाएं और प्रतिबंध आड़े आए, मगर भारतीय वैज्ञानिकों ने विकल्प ढूंढ़े और सरकारों ने साहस दिखाया। 1975 में पहला उपग्रह आर्यभट्ट अंतरिक्ष में छोड़ा गया और 2017 में एक साथ 104 उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किए गए। परमाणु पनडुब्बी अरिहंत ने भी बीते 6 नवंबर को अपना पहला अभियान पूरा किया। जल, थल और नभ की मारक क्षमता वाली यह पनडुब्बी बेहद भरोसेमंद परमाणु प्रतिरोधक क्षमता प्रदान करती है।

यह अभियान इसलिए आवश्यक था, क्योंकि भारत के दो पड़ोसी देशों ने अपने तेवरों से भारत को परेशान कर रखा है। उपलब्धि के इस अवसर पर यह स्मरण करना समीचीन होगा कि आजादी के बाद भारत ने जो वैज्ञानिक संस्थाएं स्थापित कीं उन्होंने देश में वैज्ञानिक प्रतिभाओं के विकास में अतुलनीय योगदान दिया है। इनमें बार्क, सीएसइआर, डीआरडीओ, इसरो, आइआइटी, एनसीईआरटी के अलावा कई प्रमुख विश्वविद्यालय एवं संस्थान शामिल हैं। यहां से प्रशिक्षित युवाओं ने न केवल भारत को नाभिकीय भौतिकी, अंतरिक्ष विज्ञान और संचार तकनीकी के क्षेत्रों में न केवल आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि दुनियाभर में भारत का डंका बजाया। सबसे पहले नासा में भारतीय युवाओं की ओर दुनिया का ध्यान गया और बाद में सिलिकन वैली में तो एक तरह से भारतीयों का ही वर्चस्व हो गया।

अरिहंत के भारतीय नौसेना बेड़े में शामिल होने के अवसर पर यह भी ध्यान में रखना होगा कि वर्तमान समय सतत सजगता और गतिशीलता का समय है। हथियारों की होड़ में कोई नया कुछ एलान करता है तो दूसरे उस नहले पर दहला फेंकने में देर नहीं करते। इस अंतहीन होड़ में टिकने का उपाय है कि प्रारंभिक स्तर से ही शिक्षा की और विज्ञान की पढ़ाई की ऐसी संरचना हो जो प्रत्येक बालक को वैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रदान करे, मानवीय मूल्यों से परिचित कराए और विज्ञान का सदुपयोग करने तथा दुरुपयोग रोकने में संलग्न रहने के लिए उन्हें तैयार करे।

अफसोस की बात है कि आज प्रत्येक स्तर पर शिक्षा को लेकर होने वाली चर्चा-परिचर्चा में शिक्षा की गुणवत्ता पर चिंता प्रकट की जाती है। जब देश में उच्च शिक्षा संस्थानों में प्राध्यापकों के 40-50 प्रतिशत पद रिक्त हों, स्कूलों में नियमित अध्यापकों का अकाल हो, सरकारी स्कूलों से लोगों का मोहभंग हो रहा हो तब गुणवत्ता पर इसका असर निश्चित रूप से पड़ेगा। मेरे ख्याल से इस समय स्कूलों में केवल 30 प्रतिशत बच्चों को ही गुणवत्तापरक शिक्षा मिल रही है। शेष बच्चों की शैक्षिक उपलब्धियां अपेक्षाकृत कमजोर हैं। विशेषकर सरकारी स्कूलों में विज्ञान की शिक्षा बेहद लचर स्थिति में है। उसमें भी प्रयोगशाला दयनीय दशा में हैं।

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में प्रायोगिक परीक्षा की स्थिति हास्यास्पद हो गई है। नकल रोकने के प्रयास हो रहे हैं, मगर और भी बहुत कुछ होना चाहिए। शिक्षा ऐसा क्षेत्र नहीं है जहां पूर्व की उपलब्धियों पर गर्व करना ही पर्याप्त है, आगे के लिए सतत सजगता और कर्मठता भी उतनी ही आवश्यक है। परीक्षा में सारा ध्यान केवल रटे-रटाए प्रश्नों के उत्तरों पर होना, व्यावसायिक संस्थानों में प्रवेश के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा की स्थिति, कोचिंग का बढ़ता प्रभाव, नकल माफिया की हर जगह उपस्थिति। ऐसी तमाम अन्य चुनौतियां हैं जिन पर केवल सरकारी तंत्र को ही नहीं, समाज को भी ध्यान देना होगा। उन्हें अपना कर्तव्य स्वयं निर्धारित कर उसका निर्वाह करना है। यह तथ्य भी स्वीकारना होगा कि 1947-67 के दो दशकों के बीच विज्ञान शिक्षा का स्तर आज से कहीं अधिक बेहतर था।

कुछ महीने पहले ही केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री ने स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम को आधा कर देने की घोषणा की थी। यदि यह प्रक्रिया आगे बढ़ती है तो निश्चित रूप से यह एक अवसर होगा जहां विज्ञान शिक्षा को वैज्ञानिक सोच एवं दृष्टि के आधार पर नियोजित किया जाए। शिक्षा की विषयवस्तु निर्धारण में और विशेषकर विज्ञान शिक्षा में बड़ी कठिनाई नया जोड़ने में नहीं, बल्कि यह तय करने में होती है कि पुराना क्या छोड़ा जाए? इस कारण पाठ्यक्रम का बोझ बढ़ता रहता है। 1968 की शिक्षा नीति में यह स्वीकार्यता थी कि कक्षा दस तक सभी बच्चे अनिवार्य रूप से विज्ञान और गणित पढ़ेंगे। यह आज भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यही ज्ञान उस राष्ट्रीय समझ की धुरी होगा जो आज की समस्याओं के समाधान के लिए आवश्यक है।

अब हर नागरिक को पर्यावरण प्रदूषण, जल प्रदूषण, जल स्नोतों का विलुप्त होना, जंगलों का महत्व भूल जाना, जलवायु परिवर्तन, ओजोन परत का कमजोर होना, खाद्य-पदार्थों में मिलावट, नकली दवाइयां, मानव-प्रकृति संबंधों की डोर का कमजोर होना, ऐसे कितने ही जीवन से जुड़े पक्ष हैं जिन्हें उन्हें आवश्यक रूप से समझना होगा। जुलाई 2004 में उच्चतम न्यायालय ने पर्यावरण शिक्षा को स्कूलों में हर कक्षा में अलग से अनिवार्य विषय बनाकर पढ़ाने का निर्देश दिया था। इसके पहले न्यायालय ने एनसीईआरटी द्वारा बनाया गया इसका पाठ्यक्रम सभी राज्य सरकारों को भेजा था।

अदालत ने सभी राज्यों की सहमति के बाद ही अपना फैसला सुनाया था। तत्कालीन केंद्र सरकार ने ही इसे लागू नहीं किया। यदि ऐसा किया होता तो आज युवाओं की एक पीढ़ी प्रबुद्ध होकर विज्ञान विषयों में दक्षता प्राप्त कर राष्ट्र निर्माण में सहयोग कर रही होती। आज अगर दिल्ली में हवा खतरनाक स्तर तक जहरीली है तो इसमें शासकीय शिथिलता और लापरवाही के साथ-साथ जनता के सहयोग की कमी भी शामिल है। यह हमारी सामूहिक विफलता ही है कि हम शिक्षा से एक वैज्ञानिक मनोदशा विकसित नहीं कर सके। यही नहीं, हम स्कूल शिक्षा और उच्च शिक्षा के द्वारा चरित्र निर्माण और मानवीय मूल्यों की समझ को भी अपेक्षित स्तर तक विकसित नहीं कर सके। इन सभी पर पुनर्विचार में देरी अब अति घातक होगी।

विश्वविख्यात दार्शनिक एवं राजनेता डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि मनुष्य में ऐसी आत्मा है जो उसे अन्य चीजों, पदार्थों तथा सामग्रियों से पृथकता प्रदान करती है। वह उसकी चिंतन की क्षमता है जो मनुष्यों को अन्य से अलग करती है। उसमें एक ऐसा स्पार्क है जो प्रकृति प्रदत्त है, लौकिक नहीं, अलौकिक है। यह सत्य की खोज हमें दर्शाती है कि मनुष्य अपने पर्यावरण को फिर से ढाल सकता है, उसे बदल सकता है, उसकी संरचना को परिवर्तित स्वरूप दे सकता है। डॉ. राधाकृष्णन के ये विचार भविष्य की विज्ञान शिक्षा को नया आधार प्रदान कर सकते हैं। विज्ञान शिक्षा को व्यावहारिक जीवन से जोड़ सकते हैं और साथ ही साथ देश में वैज्ञानिक प्रतिभा के उच्चस्तरीय विकास में भी महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।

[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]