आसान नहीं राजनीति के अपराधीकरण पर रोक, बाहुबली में ही जनता को दिखाई देता है समस्या का समाधान
चूंकि बाहुबली जनप्रतिनिधि और उसका दल उसके निर्वाचन को जनता के ‘आशीर्वाद’ के रूप में महिमामंडित करते हैं इसलिए शायद न्यायपालिका के निर्देश का सकारात्मक असर न हो।
[डॉ. एके वर्मा]। राजनीति में अपराधियों की 1970 के दशक से जो बाढ़ आई वह अब विकराल रूप ले चुकी है। राजनीति के अपराधीकरण को रोकने हेतु अनेक आयोग बने, कुछ प्रयोग भी हुए, लेकिन नतीजा सिफर रहा। संसद, विधानसभाओं और पंचायतीराज संस्थाओं में आपराधिक वृत्ति वालों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है।
सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार 2004 में 24 प्रतिशत, 2009 में 30, 2014 में 34 और 2019 में 43 प्रतिशत दागी किस्म के लोग संसद पहुंचे। वर्तमान में 159 सांसदों पर हत्या, दुष्कर्म और अपहरण के गंभीर मामले दर्ज हैं। ऐसे सांसदों से हमें क्या अपेक्षा हो सकती है? आचार, विचार और व्यवहार के जो मानक सांसदों से अपेक्षित हैं वे दिखाई नहीं देते। जब अपराधियों पर लगाम लगाने की बात होती है तो सब किनारा कर लेते हैं।
2018 में भी सुप्रीम कोर्ट ने दिया था निर्देश
हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्देश दिए हैं कि उम्मीदवारों को टिकट मिलने के बाद उन्हें अपने ऊपर दर्ज सभी अपराधों की सूचना अपने दल को देनी होगी और दल को 48 घंटे के भीतर सार्वजनिक रूप से बताना होगा कि उसने अपराधी छवि के प्रत्याशी को टिकट क्यों दिया? सितंबर 2018 में भी सुप्रीम कोर्ट ने प्रत्याशियों को निर्देश दिया था कि चुनाव लड़ने से पूर्व उन्हें अपने खिलाफ चल रहे आपराधिक मामलों की सूचना चुनाव आयोग को देनी होगी और प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में उसका प्रचार-प्रसार भी करना होगा। उसने संसद को सुझाव दिया था कि राजनीति में अपराधियों का प्रवेश रोकने हेतु वह कानून बनाए, लेकिन न प्रत्याशियों ने उसे माना, न संसद ने। क्या हम नहीं चाहते कि इस पर लगाम लगे? क्या दलों को यह लगता है कि आम आदमी के राजनीति में आने से उनके निहित स्वार्थों पर विपरीत असर पड़ेगा?
चुनावों में पानी की तरह बहाया जाता है पैसा
आज साधारण व्यक्ति किसी पार्टी से टिकट की उम्मीद नहीं कर सकता, क्योंकि अधिकतर टिकट खरीदे और बेचे जा रहे हैं। लोकसभा और विधानसभा चुनावों की कौन कहे, पंचायत चुनावों तक में पैसा पानी की तरह बहाया जा रहा है। सत्ता, अपराध और धन की तिकड़ी राजनीति पर जैसे कुंडली मारकर बैठी है। ऐसे में लोगों की आस्था लोकतंत्र से उठ सकती है और तब जनता संभवत: कोई वैकल्पिक प्रयोग करना चाहेगी।
राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने का हो प्रयास
अभी सुप्रीम कोर्ट के जज न्यायमूर्ति अरुण मिश्र ने क्षुब्ध होकर टिप्पणी की, ‘इस देश में कानून बचा भी है? यहां रहने से बेहतर है कि देश छोड़ कर चला जाऊं।’ जब न्यायमूर्ति की यह दशा है तो आमजन की क्या दुर्दशा होगी, इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। पूरी व्यवस्था बाबुओं, अधिकारियों, माफिया और नेताओं की ऐसी जकड़न में है कि कितना भी योग्य, कर्मठ, ईमानदार नेतृत्व हो, जनता को राहत नहीं मिलती। अपवादों को छोड़ अधिकांश नेताओं के लिए राजनीति एक ‘निवेश’ है और सत्ता में आने पर व्यवस्था को निचोड़ कर धनार्जन उनका एकमात्र उद्देश्य। यदि इसे बदलना है तो सभी संस्थाओं का दायित्व है कि वे राजनीति को अपराधियों से मुक्त करने का प्रयास करें।
बाहुबली में ही जनता को दिखाई देता है समस्या का समाधान
सुप्रीम कोर्ट की पहल जनचेतना के स्तर पर है जो मानती है कि लोग प्रत्याशी की आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में जानेंगे तो उसे वोट नहीं देंगे। ऐसा होता तो हालिया दिल्ली चुनाव में आपराधिक छवि वाला अमानतुल्लाह इतने भारी मतों से कैसे जीतता? भ्रष्टाचार-लालफीताशाही से प्रशासनिक व्यवस्था इतनी जनविरोधी हो गई है कि मतदाता को ‘एक बाहुबली’ में ही अपनी समस्या का समाधान दिखाई देता है। बाहुबली जनप्रतिनिधि और उसका दल उसके निर्वाचन को जनता के ‘आशीर्वाद’ के रूप में महिमामंडित करते हैं। इसलिए शायद न्यायपालिका के निर्देश का सकारात्मक असर न हो।
अपराधियों के राजनीति में प्रवेश पर रोक लगाने के लिए सर्वप्रथम चुनाव आयोग ‘एलॉटमेंट ऑर्फ सबल आर्डर 1968’ के तहत गंभीर आरोपों वाले प्रत्याशियों को दलीय चुनाव चिन्ह से वंचित करे। इसके लिए उसे एक प्रशासकीय निर्णय लेना है। इससे अपराधी छवि का प्रत्याशी और उसका दल, दोनों दंडित होंगे, क्योंकि दलीय प्रत्याशी के मुकाबले स्वतंत्र उम्मीदवार का जीतना काफी मुश्किल होता है।
कैद पाए नेताओं की सदस्यता समाप्त करने का दिया गया था आदेश
2013 में सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 8(4) को गैर संवैधानिक घोषित कर दो वर्ष या ज्यादा की कैद पाए सांसदों और विधायकों की सदस्यता तत्काल समाप्त होने का आदेश दिया था। इससे लालू यादव की संसद सदस्यता गई थी। संसद को संविधान के अनु.102 और 191 अथवा जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन कर ‘आपराधिक पृष्ठभूमि’ के प्रत्याशियों की अयोग्यता में शामिल करना होगा, क्योंकि अपराधियों के दबदबे का यह आलम है कि वे जेल से भी चुनाव जीत जाते हैं।
कार्यपालिका को भी प्रशासनिक सुधारों पर देना होगा ध्यान
ध्यान रहे कि जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 62 (5) के तहत जेल में बंद मतदाता वोट तक नहीं डाल सकता। न्यायपालिका को सुनिश्चित करना पड़ेगा कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरुपयोग कर आरोपित जनप्रतिनिधि मुकदमे को लंबा न खींचें। कार्यपालिका को भी प्रशासनिक सुधारों पर ध्यान देना होगा जिससे सरकारी कार्यालयों में जनता लालफीताशाही और भ्रष्टाचार से होने वाले उत्पीड़न से बच सके और उसे लगे कि बिना किसी ‘रॉबिन हुड’ के और बिना रिश्वत के उसका काम आसानी से हो जाएगा।
अच्छे लोगों को राजनीति में लाने की चलनी चाहिए मुहिम
सीधे सब्सिडी भेजना आदि ऐसे उदाहरण हैं जिनसे दबंग बिचौलियों और दलालों से जनता को कुछ राहत मिली है। राज्य सरकारों के स्तर पर ऐसे सुधारों की बहुत दरकार है, क्योंकि आम आदमी का ज्यादा काम राज्य सरकार और स्थानीय सरकारों से ही पड़ता है। इसी के साथ गैरसरकारी और सिविल सोसायटी संगठनों को अच्छे लोगों को राजनीति में लाने की मुहिम चलानी चाहिए जिसकी परिकल्पना संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने की थी।
ऐसी सामाजिक धारणा है कि राजनीति गुंडे-बदमाशों के लिए है। जनता को समझाना होगा कि यदि अच्छे लोग राजनीति में नहीं आएंगे तो अच्छे निर्णय लेने वाली संसद और सरकार कैसे बनेगी और अच्छे समाज की नींव कैसे पड़ेगी? इस बदलाव में तकनीक, मीडिया और सोशल-मीडिया की भूमिका अहम है। वास्तव में सभी संस्थाओं और जनता के समन्वित प्रयास से ही राजनीति में अपराधियों के प्रवेश पर लगाम लग सकेगी।
(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ सोसायटी एंड पॉलिटिक्स के निदेशक हैं)