[ विजय कुमार चौधरी ]: न्यायपालिका की स्वतंत्रता का मुद्दा रह-रहकर चर्चा में आता रहता है। संविधान में शक्तियों के पृथक्कीकरण के एक अनोखे स्वरूप की परिकल्पना की गई है। सरकार के तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका के स्वतंत्र अस्तित्व एवं उनकी स्वतंत्र कार्यशैली पर ही पृथक्कीकरण सिद्धांत आधारित है। संविधान इन तीनों के बीच एक विशेष अंतरसंबंध को रेखांकित करता है।

संविधान का मूल ढांचा ब्रिटेन की तर्ज पर

हमारे संविधान का मूल ढांचा ब्रिटेन की तर्ज पर है, जबकि पृथक्कीकरण का सिद्धांत अमेरिकी प्रणाली से लिया गया है। इन तीनों अंगों के बीच आपसी नियंत्रण एवं संतुलन का सिद्धांत भी लागू किया गया है। इसके तहत कार्यपालिका विधायिका के प्रति पूर्ण रूप से जिम्मेदार होती है। वहीं ‘राज्य के नीति के निर्देशक तत्वों’ के तहत अनुच्छेद 50 के अनुसार न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक रखने की व्यवस्था की गई है।

न्यायिक समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को

न्यायपालिका की स्वतंत्रता के सिद्धांत का उद्गम स्थल संविधान में यहीं से है। फिर अनुच्छेद 137 के द्वारा न्यायिक पुनरावलोकन के सिद्धांत को स्थापित किया गया है जिसके तहत विधायिका और कार्यपालिका के किसी निर्णय अथवा आदेश की न्यायिक समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को है।

न्यायपालिका, विधायिका और कार्यपालिका

तीनों अंगों के बीच इस अनोखे अंतरसंबंधों के मूल रचनाकार संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बीएन राव थे। वह नौकरशाह एवं न्यायविद थे। विभिन्न समितियों के प्रतिवेदनों का अध्ययन कर उन्होंने अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, आयरलैंड इत्यादि देशों का दौरा भी किया। वहां के संविधानों के अध्ययन के साथ न्यायविदों से विमर्श किया।

संविधान के प्रारूप लेखन को स्वीकृति

इसमें संविधान सभा सचिवालय के संयुक्त सचिव एसएन मुखर्जी का नाम भी उल्लेखनीय है, जिन्होंने संविधान के प्रारूप लेखन का काम मूल रूप से किया था। डॉ.भीमराव आंबेडकर के नेतृत्व वाली प्रारूप समिति ने संविधान के जिस प्रारूप पर विमर्श किया था उसका स्वरूप राव ने तय किया था और लेखन मुखर्जी ने किया था। समिति ने व्यापक-विचार विमर्श कर आवश्यक संशोधनों के साथ उसे अंतिम रूप दिया जिसे डॉ. राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा ने स्वीकृत एवं अंगीकृत किया। डॉ. प्रसाद के मुताबिक राव ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने संविधान निर्माण योजना की परिकल्पना की एवं इसकी आधारशिला रखी। डॉ. आंबेडकर ने इन दोनों को भारतीय संविधान एवं भारत की प्रजातांत्रिक यात्रा का मुख्य शिल्पकार बताया और कहा कि इनके बिना संविधान को अंतिम रूप देने में न जाने कितने वर्ष और लग जाते।

संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता

संविधान में न्यायपालिका की स्वतंत्रता का आशय उसकी स्वतंत्र, अप्रभावित एवं निष्पक्ष दबावमुक्त कार्यशैली से है। लगता है कि संविधान निर्माताओं को ऐसी आशंका थी कि विधायिका अथवा कार्यपालिका के द्वारा इसके अधिकारों के अतिक्रमण या उसे प्रभावित करने की कोशिश हो सकती है। ऐसी स्थिति का प्रभावकारी ढंग से निषेध किया गया एवं न्यायपालिका को ऐसे विकारों से सुरक्षा प्रदान की गई। साथ ही इसे न्यायिक पुनरावलोकन का अधिकार देकर दूसरे अंगों द्वारा नियमित पथ से विचलित होने पर उसे रोकने का अधिकार भी न्यायपालिका को दिया गया।

संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत की संप्रभुता

दूसरी तरफ संविधान का पहला तात्विक शब्द ‘संप्रभु यानी संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न’ है। संविधान की उद्देशिका में भारत को एक संप्रभु राष्ट्र बनाना संविधान का उद्देश्य बताया गया है। विचारणीय है कि संप्रभु राष्ट्र के रूप में भारत की संप्रभुता कहां निवास करती है? संसदीय जनतांत्रिक प्रणाली में संप्रभुता निर्विवादित रूप से जनता में निहित है जो अपने द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के माध्यम से इसका उपयोग करती है। संविधान में जिस ‘राज्य’ की परिकल्पना है उसका प्रतिनिधित्व कौन करता है? जैसे अनुच्छेद 50 कहता है कि राज्य की लोकसेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा। इसमें वर्णित ‘राज्य’ से क्या आशय है? दरअसल जनता द्वारा निर्वाचित विधायिका में ही यह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से निहित हो सकता है।

संविधान सर्वाधिक महत्वपूर्ण और उच्चतर कानूनों का संग्रह है। न्यायपालिका को इन कानूनों की रक्षा करने एवं इनके अंतिम निर्वचन का अधिकार है।

संविधान सभा का गठन

संविधान सभा का गठन 1937 में हुए विभिन्न प्रांतीय विधानसभाओं के चुने हुए जनप्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचन के आधार पर किया गया था। स्पष्ट है कि जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा ही संविधान का निर्माण हुआ है। संविधान सभा एवं विधायिका के अंतरसंबंध को इससे समझा जा सकता है कि संविधान के निर्माण के पश्चात संविधान सभा ही देश की पहली विधायिका (संसद) बन गई थी।

न्यायिक स्वतंत्रता भारतीय जनतंत्र की रीढ़ है

न्यायिक स्वतंत्रता भारतीय जनतंत्र की रीढ़ है और समय-समय पर न्यायपालिका ने ऐतिहासिक निर्णयों के माध्यम से जनतांत्रिक प्रणाली को दूषित एवं विचलित होने से बचाया है। न्यायिक हस्तक्षेप के कारण अनेक भ्रष्टाचार के मामले उजागर हुए और शासन व्यवस्था को दुरुस्त रखने में सहायक सिद्ध हुए, परंतु धीरे-धीरे न्यायिक स्वतंत्रता परिणत होकर न्यायिक सक्रियता का रूप ले चुकी है और न्यायिक पुनरावलोकन अब न्यायिक सर्वोच्चता एवं श्रेष्ठता के रूप में परिभाषित हो रहा है।

न्यायिक सक्रियता

न्यायिक सक्रियता के तहत किसी दूसरे अंग यथा विधायिका या कार्यपालिका के कार्य में हस्तक्षेप करना न्यायिक स्वतंत्रता का मकसद नहीं हो सकता है। न्यायिक स्वतंत्रता सर्वस्वीकार्य है, परंतु विधायिका अथवा कार्यपालिका की मर्यादा का हनन करके प्रजातंत्र मजबूत नहीं हो सकता है। संविधान सभा ने न्यायपालिका के अधिकारों को रेखांकित करते समय इसके प्रति पूरी सजगता दिखाई थी।

न्यायपालिका को ‘राज्य के अंदर राज्य’ नहीं बनना चाहिए

डॉ. आंबेडकर सहित संविधान सभा के लगभग सभी सदस्य सहमत थे कि न्यायपालिका को ‘राज्य के अंदर राज्य’ नहीं बनना चाहिए। ए कृष्णा अय्यर के मुताबिक न्यायपालिका की स्वतंत्रता का स्तर ऐसा नहीं होना चाहिए कि वह उच्च विधायिका या उच्च कार्यपालिका के रूप में काम करने लगे। कार्यपालिका के कुछ मामलों में दखल देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह तर्क दिया कि अगर कोई काम नहीं करेगा तो किसी को तो काम करना होगा। सवाल है कि क्या इसी तर्क की आड़ कार्यपालिका या फिर विधायिका ले सकती है?

विधायिका के अधिकारों पर अतिक्रमण

विधायिका और कार्यपालिका न्यायपालिका की स्वतंत्रता का आदर करती हैैं। इसी प्रकार ‘संप्रभुता’ एवं ‘राज्य’ के प्रतीक विधायिका एवं उसकी मर्यादा का सम्मान भी उतना ही आवश्यक है। न्यायिक नियुक्तियों के लिए आयोग अधिनियम संसद द्वारा सर्वसम्मति से पारित हुआ था उसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा जिस तरह निरस्त कर दिया गया वह उचित नहीं कहा जा सकता। इसी तरह उत्तराखंड एवं अरुणाचल प्रदेश विधानसभा प्रकरणों में देखा गया कि न्यायपालिका ने विधायिका के अधिकारों का न सिर्फ अकारण अतिक्रमण किया, बल्कि इसकी मर्यादा का भी हनन किया। ऐसी स्थितियों से बचना ही संवैधानिक प्रावधनों का तकाजा है।

सरकार के तीनों अंगों का समान भाव

भारतीय प्रजातंत्र की सफलता के लिए सरकार के तीनों अंगों को एक-दूसरे के प्रति समान भाव रखते हुए संतुलन बनाए रखना होगा तभी अधिकतम जनहित सधेगा एवं प्रजातंत्र का भविष्य उज्ज्वल होगा। हमारे संविधान निर्माताओं का सपना भी यही था।

( लेखक बिहार विधानसभा के अध्यक्ष हैैं )