[ प्रेमपाल शर्मा ]: हाल में कई बेईमान अफसरों के घरों में छापे मारकर नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार पर करारी चोट की गई है। भ्रष्टाचार के इस खेल में इनकम टैक्स, कस्टम से लेकर दर्जनों विभागों के अधिकारी लिप्त पाए गए हैं। इनमें आइएएस अफसर भी हैैं।

आइएएस अधिकारियों पर भ्रष्टाचार के आरोप

बुलंदशहर की पूर्व डीएम बी चंद्रकला का मामला अभी ठंडा भी नहीं पड़ा था कि अभय सिंह नाम के एक और अधिकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ की गई कार्रवाई की जद में आ गए। अभी जांच जारी है फिर भी इन अधिकारियों में कई समानताएं हैं। ये अभी 40 की उम्र तक भी नहीं पहुंचे हैं। इससे पहले कई-कई जिलों के डीएम रह चुके हैं और इन पर आरोप भी खनन माफियाओं को नियम-कानून तोड़कर फायदा पहुंचाने के हैं। दो वर्ष पहले बिहार में तैनात एक प्रशिक्षु आइएएस अधिकारी पर भी ट्रेनिंग के दौरान ही भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे।

मूल्यों को तहस-नहस करते नौकरशाह

पिछले वर्ष सिविल सेवा परीक्षा के दौरान तो एक अनूठा मामला सामने आया था। केरल कैडर का एक आइपीएस अधिकारी फिर से आइएएस बनने के लिए परीक्षा में बैठा था। वह परीक्षा हॉल में ब्लूटूथ के जरिये नकल करते हुए पकड़ा गया था। यह तो बेईमानी की इंतहा है! भविष्य में ऐसे नौजवानों से नैतिकता की कितनी उम्मीद की जाए जो किसी भी हाल में परीक्षा दुर्ग को तोड़ने में ही सारे मूल्यों को तहस-नहस करने पर उतारू हैं। पूरे देश के लिए और स्वयं सिविल सेवा परीक्षा के लिए यह एक सबक रहा कि इस अधिकारी ने सिविल सेवा परीक्षा में सामान्य अध्ययन के एक पेपर ‘नीतिशास्त्र, सत्यनिष्ठा और अभिवृत्ति’ में सबसे ज्यादा नंबर हासिल किए थे।

नैतिक मूल्यों को जीवन में उतारना चाहिए

साफ जाहिर है कि दीवारों पर उपदेश लिखना, नैतिक मूल्यों को रखना एक पक्ष है और उन्हें जीवन में उतारना बिल्कुल दूसरा। इसका सबसे दुखद पक्ष यह है कि जब देश के करोड़ों नौजवान ऐसी अनैतिक लिप्सा से घिरे हों तो देश का भविष्य क्या होगा? ऐसा नहीं की है ये अभी की अनोखी घटनाएं हैं। 1964 में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने एक अमेरिकी पत्रकार से बातचीत में स्वीकार किया था कि मैं जिन कामों को नहीं कर पाया उनमें नौकरशाही में सुधार भी शामिल हैं। याद कीजिए उन दिनों की नौकरशाही की तारीफ यदा-कदा होती रही है, लेकिन बावजूद इसके उनमें उपनिवेशी संस्कार इस हद तक कूट-कूट कर भरे हुए थे कि वे बदलती सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों में कई बार रोड़ा अटकाते थे।

नौकरशाही में सुधार आवश्यक

1960 के दशक में ही संथानम कमेटी नौकरशाही में भ्रष्टाचार दूर करने और दूसरे सुधारों के लिए बनी थी। केंद्रीय सतर्कता आयोग और दूसरी संस्थाएं भी लगातार इस दिशा में सक्रिय रही हैैं। लोकपाल का गठन भी इसी कड़ी का हिस्सा है, लेकिन अंजाम वही ढाक के तीन पात वाला है। सवाल है कि क्या सिर्फ नौकरशाही ही ऐसे भ्रष्ट आचरण के लिए जिम्मेदार है? नौकरशाही सरकार के तीन स्तंभों में से एक कार्यपालिका का हिस्सा है, जिसके शीर्ष पर मंत्री होता है। क्या बिना मंत्री के सहयोग के भ्रष्टाचार संभव है? हाल में उत्तर प्रदेश के जिन अधिकारियों पर अंगुली उठी है उनके सीधे-सीधे संबंध तत्कालीन सत्ता प्रतिष्ठान से रहे हैं। हो सकता है कि ये अधिकारी राजनीतिक दबाव के चलते अनुचित कार्यों में भागीदार बने हों। यह ध्यान रहे कि कुछ अधिकारी हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला के साथ जेल में हैं तो कुछ चारा घोटाले में दोषी करार दिए गए लालू प्रसाद के साथ।

नौकरशाह भ्रष्टाचार में लिप्त

यह एक दुखद पक्ष यह है कि अरबों रुपये के घोटाले उन योजनाओं में ज्यादा हुए जिन्हें सामाजिक उत्थान, गरीबी उन्मूलन, स्वास्थ्य, शिक्षा के लिए लागू किया गया था। हालांकि संजीव चतुर्वेदी, अशोक खेमका जैसे कुछ अधिकारी तबादले की परवाह न करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन उनसे कई गुना ज्यादा भ्रष्टाचार में लिप्त रहे हैैं। उम्मीद की गई थी कि सूचना प्रौद्योगिकी और सूचना के अधिकार के बाद भ्रष्टाचार पर लगाम लगेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। यदि वर्ष 2005 की ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट से तुलना करें तो मामूली सुधार जरूर हुआ है।

भारत भ्रष्टाचार के मामले में 78वें पायदान पर

आज हम दुनिया के 180 देशों में भ्रष्टाचार के मामले में 78वें नंबर पर हैं, मगर दक्षिण एशियाई देशों में अभी भी सबसे भ्रष्ट हैैं। 2009 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय नौकरशाही से काम निकलवाना सबसे मुश्किल है। नौकरशाही में भ्रष्टाचार रोकने के लिए समय-समय पर सरकारें कुछ कदम उठाती भी रही हैैं, लेकिन आधे-अधूरे मन से। 1993 में पूर्व गृह सचिव एनएन वोहरा समिति ने भ्रष्ट नेताओं और नौकरशाहों के अनैतिक गठजोड़ को रेखांकित किया था। इसी को आधार मानकर 1997 में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कुछ कदम उठाने के लिए भी कहा था। कई सामाजिक संगठन भी बार-बार आवाज उठाते रहे हैं।

भ्रष्टाचार है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा

सूचना का अधिकार सरकारी भ्रष्टाचार से लड़ने का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। इस संबंध में भ्रष्टाचार निवारण कानून भी संसद पास कर चुकी है, लेकिन भ्रष्टाचार है कि रुकने का नाम नहीं ले रहा। दरअसल इसका मुख्य कारण है राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी। उस राजनीति में इच्छाशक्ति आ ही नहीं सकती जिसके तमाम सदस्य किसी न किसी तरह के भ्रष्ट आचरण में लिप्त हों। यही कारण है कि चाहे उन्हें मंत्री बनने के बाद अपना निजी सचिव चुनना हो या जिले का डीएम या पुलिस कप्तान, वे उस अधिकारी को चुनते हैं जो उनकी जी हजूरी कर सके। आजादी के बाद यह प्रवृत्ति लगातार बढ़ रही है। तमाम नौकरशाह ऐशोआराम और वैभव की जिंदगी जीने के लिए सिविल सेवाओं में आ रहे हैं। लाखों की कोचिंग और कई-कई साल तैयारी करने के बाद उनका कहना होता है कि हमें ठाठ से रहना है, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े।

नौकरशाही और राजनीतिक मूल्यों में सर्जरी की जरूरत

भ्रष्टाचार पर रोक लगाने के कदमों के तौर पर सिविल सेवा परीक्षाओं में नैतिक मूल्यों का एक पेपर शामिल करना कहीं से भी फायदेमंद नहीं रहा है। क्या कोई भी ऐसे प्रश्नों के उत्तर से सदाचारी बन सकता है? क्या दीवारों पर लिखे उपदेश नैतिक मूल्य दे सकते हैं? जब शिक्षा व्यवस्था ही नकल और उड़ाए हुई शोध के खंभों पर टिकी हो, जहां चुनाव के लिए करोड़ों रुपये खर्च करने पड़ते हों और जहां हर बात को जाति और संप्रदाय के चश्मे से देखा जाता हो वहां नौकरशाही में सुधार लाना बहुत टेढ़ी खीर है। निश्चित रूप से नौकरशाही के साथ-साथ राजनीतिक मूल्यों में भी एक बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उम्मीद की जानी चाहिए कि नई मोदी सरकार अपने इरादों में सफल होगी।

( लेखक रेल मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहे हैैं )